एक कार्यक्रम के सिलसिले में गुरुदेव को एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाना था। पहले स्थान के कार्यकर्ता उनके जाने की व्यवस्था बनाने में जुटे थे। किसी का मत था एयरकंडीशंड कोच का टिकट ले लिया जाये यात्रा आराम से कट जाएगी। कुछ लोग फर्स्ट क्लास की वकालत कर रहे थे। उनके अनुसार इस तरह जाने से न केवल यात्रा आरामदायक रहेगी, बल्कि खुली हवा का लाभ मिलेगा।
चल रही इस चर्चा के कुछ शब्द गुरुदेव के कानों में पड़े उन्होंने इन सबको पास बुलाकर कहा मुझे पैसिन्जर ट्रेन में साधारण डिब्बे का टिकट खरीद कर ला दो। रिजर्वेशन की भी जरूरत नहीं। पैसे भी बचेंगे और मैं आराम से अपना लेखन भी कर लूँगा। उन दिनों उनकी चलती ट्रेन में लिखने की आदत थीं। यद्यपि एनीबेसेण्ट भी इस तरह लिखा करती थी, पर उनका अपना निजी सैलून होता था। एकाग्रता और मितव्ययिता का ऐसा अद्भुत मिलन शायद पहली बार हो रहा था। गाँधी के इस अनुयायी को यही सादगी शोभा भी देती थी।