नारी जाग्रति के प्रणेता, युगऋषि पूज्य गुरुदेव

August 1990

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“केवल नारी नहीं, सुनो हम साथी हैं, भगिनी माँ है नहीं वासना का साधना है, हम ममता है, गरिमा हैं। आँचल में जीवनधारा है, कर में आतुर राखी है। मस्तक पर सिन्दूर बिन्दू, अनुराग त्याग की सीमा है। गृहिणी, सहधर्मचारिणी, कुल दीपक की बाती हैं।

प्रस्तुत कविता की पंक्तियाँ ली गयी हैं अखण्ड-ज्योति अप्रैल 1963 के अंक से व यह बताती है कि सूत्र संचालक ने कितनी अंतः पीड़ा के साथ इन्हें अपनी पत्रिका में प्रकाशित किया होगा। वस्तुतः “नारी जागरण अभियान” स्वयं में एक ऐसा आंदोलन है जिसका शुभारंभ कर, गति देकर लाखों आंदोलन है जिसका शुभारंभ कर, गति देकर लाखों महिलाओं में प्रगति की उमंग भर देने का जो पुरुषार्थ सूत्र संचालक पूज्य युगनिर्माताओं की श्रेणी में बिठा देता है। आधी जनशक्ति के दमन, शोषण, उत्पीड़न पर वस्तुतः पिछले दो हजार वर्षों में कहा तो बहुत गया पर उसे जनांदोलन का रूप छुट-पुट स्तर पर ही दिया गया। सड़े-गले मूढ़ मान्यताओं से भरे इस समाज को जब तक जमकर झकझोर नहीं जाता, तब तक बदलने की बात तो दूर उनमें गतिशील भी नहीं आती।

पूज्य गुरुदेव ने “अखण्ड-ज्योति के शुभारंभ के साथ ही अपनी लेखनी यदि “मैं क्या हूँ” जैसे जटिल, आत्मोपनिषद् प्रधान विषय पर चलाई थी तथा परलोक लीला एवं सम्मोहन विद्या के झुनझुने कौतुकी लोगों के लिए बजाए थे तो दाम्पत्य जीवन की निर्मलता एवं गृहस्थ को तपोवन समान बना कर जीना चाहिए। इन विषयों पर विशद विवेचन भी किया था। उद्देश्य एक ही था-पुरुष अपने घर में बैठी अपनी पत्नी को यथोचित सम्मान देना सीखें, नारी शक्ति की महत्ता को पहचानें व उन्हें भी आगे बढ़ने के उपयुक्त अवसर प्रदान करने के लिए मात्र बच्चे जनने की मशीन न बनकर उन्हें बराबर का साझीदार बनाएँ। यह संयोग नहीं है कि उन्हीं दिनों शरतचन्द्र जगत में इन्हीं विषयों पर लिखी जा रही थीं। रवीन्द्रनाथ टैगोर की नारी की व्यथा-वेदना पर मार्मिक कथाएँ उन दिनों खूब पढ़ी जा रही थीं। मिशन के सूत्र संचालक पूज्यवर ने शुरुआत कुदृष्टि के शोधन से की। यदि नर अपने कामुक चिन्तन को बदल लेता है तो नारी पर अनावश्यक दबाव, शोषण स्वतः ही बन्द हो जाता है। सुखी गृहस्थ कैसे बना जाय, इसके लिए भी उनने दाम्पत्य जीवन की पवित्रता पर जोर दिया।

क्रमशः गायत्री व यज्ञ का प्रतिपादन करते-करते उनने नारी पाठकों को याद दिलाया कि वे अपनी गरिमा को पहचानें। जून सन् 1959 की अखण्ड-ज्योति में वे लिखते हैं कि वैदिककाल में ऋषिकाएँ ही समाज की विभिन्न गतिविधियों का संचालन करती थीं। सभी ब्रह्मवादिनी थी। तथा कइयों ने मंत्रों की रचना तक की है। वेदाध्ययन, ब्रह्मोपासना, यज्ञ, शिक्षण आदि।

गृहस्थ संचालन के अतिरिक्त उनके द्वारा सम्पादित कार्य थे। बृहदारण्यक का उदाहरण देते हुए उनने लिखा कि-”जिस प्रकार पुरुष ब्रह्मचारी रह कर तप, स्वाध्याय, योग आदि द्वारा ब्रह्म को प्राप्त करते हैं वैसे ही स्त्रियाँ ब्रह्मचारिणी रह कर आत्मनिर्माण एवं परमार्थ का संपादन करती हैं।” अथर्ववेद का उल्लेख हैं कि “ब्रह्मचर्येण कन्या युवानं विन्दते पतिम” (अथर्व 11/6/18) अर्थात् कन्या ब्रह्मचर्य का अनुष्ठान करती हुई उसके द्वारा उपयुक्त पति को प्राप्त करती है।

संभवतः पूज्य गुरुदेव पहले ऐसे धर्म-क्षेत्र में प्रवक्ता रहे हैं जिनने आध्यात्मिक पुरुषार्थों से लेकर भौतिक जगत के, समाज क्षेत्र के विभिन्न कार्यों में पुरुष व स्त्री दोनों को समान अवसर दिये जाने की वकालत उस जमाने में की, जबकि ऐसा समाजशास्त्री भी खुलकर नहीं कह पा रहे थे। गायत्री तपोभूमि की स्थापना के बाद जब वहाँ 108 एवं 1008 कुण्डी गायत्री महायज्ञ सम्पन्न हुए तो वंदनीया माताजी एवं पूज्य गुरुदेव दोनों की उनके संचालन, व्यवस्था में समान जिम्मेदारी थी। सभी आमंत्रित एवं यज्ञ में भाग लेने की पूरी स्वतंत्रता दी गयी एवं वहीं से उस अभियान की शुरुआत हुई जिसे उनने नारी जाग्रति या महिला जागरण अभियान नाम दिया। मार्च 1958 में गुरुदेव अपनी पत्रिका में लिखते हैं कि “नारी जाति के बौद्धिक व भावनात्मक उत्कर्ष की भारी महत्व को समझते हुए यह विचार उठता है कि हमारी धर्मपत्नी की शक्ति, योग्यता व भावना का उपयोग क्यों न इस कार्य में किया जाय।” उन दिनों वंदनीया माताजी की इच्छा कन्याओं के लिए गुरुदेव व माताजी दोनों कई कन्या गुरुकुलों का निरीक्षण करके आए थे। संभवतः उन दिनों परिजनों की कन्या को घर से बाहर भेजने की हिचक को देखते हुए वे इस चिन्तन को कार्य का स्वरूप नहीं दे पायी पर बाद में शाँतिकुँज आने पर सुनियोजित ढंग से इस कार्य को चला सकीं।

महायज्ञ के बाद अगले वर्ष ही 1959 की गायत्री जयंती पर उनने पहली महती जिम्मेदारी वंदनीय माताजी के कंधों पर डाली। वह भी अखण्ड-ज्योति के संपादन की। 2 वर्ष तक अपनी हिमालय यात्रा एवं आर्ष ग्रन्थों के भाष्य हेतु बाहर रहने के कारण वे परोक्ष मार्गदर्शन वंदनीया माताजी का करते रहे किन्तु सारा प्रत्यक्ष दायित्व वंदनीया माताजी ने बड़ी कुशलतापूर्वक सँभाला। यहीं से उन्हें दस वर्ष बाद सौंपे जाने वाले अति महत्वपूर्ण कार्य की नींव पड़ चुकी थी।

अपनी विदाई से एक वर्ष पूर्व उनने “आध्यात्मिक धारावाहिक चलाने वाली एक लेखमाला प्रकाशित की। इसमें मूल प्रतिपादन यह था कि “प्रजनन प्रक्रिया के मूल में छिपी पवित्रता को पहचाना जाना चाहिए। नर और नारी दोनों मिलकर एक व्यवस्थित शक्ति का रूप धारण करते हैं। जब तक यह मिलन न हो, चेतना व गति उत्पन्न ही न होगी। काम बीज का दुरुपयोग न कर उसका परिष्कार किया जाना चाहिए। नर-नारी का निर्मल सामीप्य ही आध्यात्मिक काम विज्ञान है।” यह एक क्राँतिकारी प्रतिपादन था जिसके माध्यम से नर की शक्ति का स्रोत नारी को बताया गया था व मर्यादित यौन संबंधों का निर्वाह करते हुए किस प्रकार दोनों प्रगति पथ पर बढ़ सकते हैं, इसका मार्गदर्शन किया गया था।

वंदनीया माता जी को मातृत्व की उदात्त गरिमा से भरा-पूरा बताते हुए मई 1971 की अखण्ड-ज्योति में उनने लिखा कि “जून के बाद माताजी शाँतिकुँज हरिद्वार रहेंगी। अखण्ड घृतदीप उनके साथ चला जायेगा। वे भी 24 लक्ष के 24 महापुरश्चरण संपन्न करेंगी।” गुरुदेव 30 जून 1971 को हिमालय चले गए एवं सारा कार्य भार वंदनीया माता जी ने सँभाला। यह पूज्य गुरुदेव के स्थूल से सूक्ष्म की ओर जाने का प्रथम चरण था। उनने प्रत्यक्ष से अपना स्वरूप काफी पीछे कर वंदनीया माता जी के माध्यम से मिशन का मार्गदर्शन-संचालन आरम्भ कर दिया था। एक वर्ष की अवधि जब तक गुरुदेव अपनी मार्गदर्शक सत्ता के पास रहे माता जी के पास बारह कन्याएं आ गई जो 12-13 वर्ष की सुसंस्कारी विभूतियाँ थी। इनने अखण्ड दीप के पास अखण्ड महापुरश्चरण वंदनीया माताजी के मार्गदर्शन में आरंभ कर दिया जो चार वर्ष में समाप्त हो गया। इन्हीं कन्याओं की संख्या बढ़ी व इनको प्रशिक्षिका बनाकर शांतिकुंज के नारी जागरण सत्र चलाये गये तो 3-3 माह के थे।

इन नारी जागरण सत्रों की विशेषता यह थी कि इनमें गुरुकुल स्तर की शिक्षा कि साथ-साथ परिवार निर्माण व लोकसेवी बनने का समग्र शिक्षण दिया जाता था। आठवें दर्जे से अधिक पढ़ी वयस्क कन्याओं व महिलाओं को प्रवेश दिया गया। स्वास्थ्य-संरक्षण, शिशु पालन, घर की स्वच्छता, परिवार, कुरीतियों से संघर्ष, सामान्य संगीत शिक्षा, लाठी व्यायाम, स्काउटिंग, संस्कार कर्मकाण्ड तथा स्वावलम्बन की शिक्षा इनमें दी जाती थी। युग नेतृत्व तथा समूह संचालन भी उन्हें यहाँ सिखाया गया। प्रवेश संख्या बढ़ती गई, शाँतिकुँज का भी विस्तार होता गया एवं जुलाई 1975 में “महिला जाग्रति अभियान” नाम से एक स्वतंत्र पत्रिका प्रकाशित होना आरंभ हो गई। इस पत्रिका में ऊपर बताये गये विषयों का विवेचन व मार्गदर्शन समाहित था। आरंभिक वर्ष से ही इसकी पाठक संख्या बीस हजार पहुँच गई जो बताती है कि ऐसे साहित्य की कितनी आवश्यकता उस समय थी। इस पत्रिका में चुनौती थी-

जब तक नारी के नयनों से बहता है जल खारा।

तब तक नवयुग का न पूर्ण होगा मृदुस्वप्न तुम्हारा॥

पूरी पत्रिका सारे परिकर को संबोधित थी व इसके लेखों ने न केवल परिवार के मुखिया को, बच्चों को व अन्यान्य सदस्यों को भी जीवन जीने की नयी दिशा दी पाँच वर्ष बाद इस पत्रिका को युग निर्माण पत्रिका से समन्वित कर इन विषयों का विवेचन इसमें किया जाने लगा।

सबसे महत्वपूर्ण व चौका देने वाली घोषणा पूज्यवर ने अक्टूबर 75 में की, जब उनने देवकन्याओं के जत्थे क्षेत्रों में नारी सम्मेलन हेतु भेजे जाने का निर्णय व नवंबर में उन्हें रवाना कर दिया गया। वंदनीया माता जी के संरक्षण में प्रारंभ में पलीं व पूज्य गुरुदेव द्वारा प्रशिक्षित इन तपस्विनी देवताओं के जहाँ-जहाँ ओजपूर्ण व्याख्यान हुए एक नया क्राँति का तूफान आया। सभी ओर महिला नेतृत्व की, युगपरिवर्तन की दुदुंभी बजती चली गई। यह दृश्य देखने योग्य था कि जिस सभा को बड़-बड़ वक्ता नहीं सँभाल पाते उसे गेरुआ वस्त्रों इन देवकन्याओं ने न केवल बाँध रखा बल्कि उनके चिन्तन को भली-भाँति झकझोरा। यह क्रम नवम्बर 1975 से 1979 तक निर्बाध गति से चलता रहा, फिर शक्तिपीठों के निर्माण की घोषणा कर गुरुदेव ने क्षेत्रीय कार्यक्रमों को नई दिशा प्रदान की। देवकन्याओं के प्रशिक्षण के साथ त्रैमासिक महिला शिक्षण शांतिकुंज में सतत् चलता रहा व उसका परिवर्धित स्वरूप अब युगशिल्पी शिक्षण के रूप में चलता है जिसमें स्वावलम्बन, संगीत, कर्मकाण्ड एवं संभाषण कला का बहुमुखी शिक्षण दिया जाता है।

इन्हीं प्रशिक्षण कन्याओं-महिलाओं ने क्षेत्र का नेतृत्व सँभाला एवं लगभग पच्चीस हजार महिला संगठन पूरे देश में गठित किए। यह कहना अतिश्योक्ति न होगी कि क्षेत्र की सक्रियता, कार्य कर्ताओं की तत्परता, स्फूर्ति के मूल में इन महिलाओं का ही सबसे बड़ा हाथ है।

पूज्य गुरुदेव संभवतः पहले युगपुरुष हैं जिनने “इक्कीसवीं सदी-नारी सदी” की घोषणा की है। उनकी घोषणा है अब नारी का वर्चस्व प्रमुख होगा तथा वही नवसृजन के निमित्त प्रमुख भूमिका निभाएंगी। उनके महाप्रयाण के निमित्त प्रमुख भूमिका निभायेंगी। उनके महाप्रयाण के बाद माँ शारदामणि की तरह वंदनीया माताजी द्वारा संगठन का समग्र सूत्र संचालन कुशलतापूर्वक संभाल लिए जाने से यह भविष्यवाणी साकार होती दीखती है। नारी जाग्रति के लिए इस महामनीषी द्वारा संपन्न पुरुषार्थ युगों-युगों तक याद किया जाता रहेगा।


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