आत्म देवता के साधक सावित्री के सिद्ध उपासक

August 1990

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अपनी प्रचण्ड तपश्चर्या एवं गायत्री महाशक्ति की सुनियोजित उपासना कर वर्चस् की सिद्धि करने वाले पूज्य गुरुदेव ने सदैव डंके की चोट पर यह कहा कि जो भी उनके द्वारा निर्देशित साधना उपक्रम को जीवन में अपनाएगा, वह सुनिश्चित ही प्रतिफल पाएगा। अखण्ड ज्योति जूना 1966 में “अखण्ड ज्योति के परिजन इतना तो करें ही” प्रसंग में वे लिखते है कि “हमने गायत्री उपासना तथा पूजा पद्धति लोगों को सिखाई है और साथ ही यह भी कहा है कि इनका पूरा लाभ उन्हीं को मिलेगा जो अपने व्यक्तित्व को पवित्र एवं उत्कृष्ट बनाने की साधना भी साथ ही करेगा।” आगे वे लिखते है कि “हमने प्रत्येक सहचर को शास्त्रों एवं ऋषियों का यही संदेश सुनाया है कि वे भी विश्व मानव की सेवा को हमारी ही तरह जीवन का वैसा ही अंग बनाएं जैसा कि धन उपार्जन तथा शरीर यात्रा के नित्यकर्म हेतु हम प्रयत्नशील रहते है। यही सच्चा अध्यात्म है।

उपासना को सेवा साधना से जोड़ने का उनका तरीका स्वयं में निराला था एवं अध्यात्म को सही प्रगतिशील दिशा देने वाला भी। लाखों व्यक्तियों को इस प्रकार उनने अपनी ही मुक्ति, वैराग्य, समाधि वाले चिन्तन से विरत कर लोकसेवी बना दिया। यह एक क्रान्तिकारी स्तर का विचारक ही कर सकता था। धर्म के संबंध में जो भ्राँतियाँ संव्याप्त हैं एवं जनोपदेशक जो भी कुछ कहकर उन्हें पोषण देते रहे है, उनसे जूझना व योद्धा की तरह संघर्षरत रह बिना विचलित हुए लक्ष्य सिद्धि तक पहुंच जाना उनके व्यक्तित्व के एक अनूठे पक्ष को प्रस्तुत करता है।

पिछले दिनों लिखे ‘सावित्री महाविज्ञान’ (अभी प्रकाशित) ग्रन्थ में उनने जो लिखा है, वह पूरे मानव समुदाय को एक चुनौती हैं। उसे उन्हीं की लिपि में यहाँ प्रस्तुत कर रहे है।

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“गायत्री उपासना का प्रयोजन प्रमुखता सद्बुद्धि का अवतरण है। वह ऋतम्भरा या महाप्रज्ञा कही जाती हैं उसका यही लाभ प्रमुख है। इस संदर्भ में हम जितना कुछ उपलब्ध कर सके है, वह गर्व करने योग्य तो नहीं, पर संतोषजनक अवश्य है। नवनिर्माण हमारे इस जीवन का प्रमुख उद्देश्य है। सज्जनों में ही सद्बुद्धि का अवतरण होता है। अपने संपर्क क्षेत्र में जितने भी लोग मिल सके, उनको इस मार्ग पर चलाया घसीटा और धकेला भी है। उसका परिणाम भी लहलहाती फसल के रूप में दीखने लगा है और यह विश्वास बन गया है कि वर्तमान 24 लाख उपासक यदि अपने को बीज बनाकर बोने लगे तो हमारी ही तरह वे भी नई फसल उगाने लगेंगे और युगसन्धि के आगामी वर्षों में यह विस्तार क्रम इतना व्यापक हो जाएगा कि सुसंस्कारी प्रकृति के लोगों में कदाचित ही कुछ प्रतिशत ऐसे बचें जो आद्यशक्ति-युग शक्ति की गायत्री की तत्व चेतना से अनुप्राणित न हुए हों। अपने सहचरों अनुचरों से हमें वैसा विश्वास भी है। यदि उनमें से कुछ शिथिल पड़ते दीखेंगे तो उन्हें झकझोरने की स्थिति में हमारी अदृश्य सत्ता यह शरीर उठ जाने के उपरान्त भी सक्षम रहेगी।”

कितना सुनिश्चित आश्वासन है व यह इलहाम भी कि संभव है शरीर के महाप्रयाण के बाद लोग प्रमादग्रस्त हो जायें तो सूक्ष्म व कारण शरीर के माध्यम से उन्हें सतत् सक्रिय बनाते रहने का संकल्प भी वे प्रकट करते हैं।

अलौकिक दैवी सत्ताएं अवतारी महापुरुष इसी तरह अपना जीवन जीती अगणित व्यक्तियों के लिए प्रेरणा स्रोत बनकर अपना धरती पर अवतरण सार्थक कर जाती है। गुरुदेव कहा करते थे कि पाने लायक जो कुछ भी इस संसार में है, उसे आत्मदेव को जगाकर सहज ही पाया जा सकता है। उनका मत था कि पाँच ज्ञानेन्द्रियों की शक्ति को समझना और उनका सदुपयोग कर सकना ऐसा प्रयोग है जिसके द्वारा अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, आनन्दमय कोशों को जगाया जा सकता है और उनके सहारे समर्थ सिद्ध पुरुषों जैसा लाभ उठाया जा सकता है। वे यह भी कहते थे कि मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार और प्राण की पंचधा सूक्ष्म काया स्थूल शरीर से असंख्य गुनी सामर्थ्यवान है। (अखण्ड ज्योति, नवम्बर 1971, पृष्ठ 84)

गायत्री की व्याख्या प्राणों की रक्षा करने वाली महाशक्ति (गयं (प्राणों) का जो त्राण करे वह “गायत्री”) के रूप में भी की जाती है। पूज्य गुरुदेव ने पंचकोशों की तो सिद्धि अर्जित की ही प्राणशक्ति को प्रबल बनाकर संकल्प को अडिग बनाकर स्वयं को अजर, अमर मृत्युंजय बन लिया। इन्द्रियों से वे परिचारिकाओं जैसा काम लेते रहे, कभी उच्छृंखल नहीं होने दिया। स्वादेन्द्रिय की पवित्रता हेतु जौ व छाछ का सेवन तथा वाक् पवित्रता अर्जित करने हेतु सत्य का प्रयोग जीवन भर किया। निष्पाप व निर्मल जिह्वा पर साक्षात् सरस्वती विराजमान रहती थी यही कारण था कि उनके आशीर्वाद कभी निष्फल नहीं गए, न कभी परामर्श टाले गये। जिससे बात की उसे अपना बना लिया। जो कुछ भी सारगर्भित प्रवचनों में कहा लोगों के अन्तःकरण में उतरता चला गया।

यही बात घ्राणेन्द्रियों, चक्षुन्द्रियों, कर्णेन्द्रियों तथा काम बीज रूपी त्वक् इन्द्रिय के संबंध में समझी जा सकती है। सर्वत्र उनने सद्भावना व श्रेष्ठता की ही गंध सूँघी आँखों से श्रेय ही देखा, कानों से दिव्य प्रयोजन के बच नहीं सुने-कटु कर्कश वचनों को भुला दिया तथा ब्रह्मचर्य की साधना द्वारा ऊर्ध्वरेता बन अपनी कुण्डलिनी शक्ति को जाग्रत किया। यह पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ जिस व्यक्ति के मातृवत् श्रद्धा के साथ सिद्ध कर लीं, उसके पास कोई कमी रह कैसे सकती है? पंचदेवों को भी उनने इन्द्रियों की तरह संभाला। मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार व प्राण सभी देवों की आराधना कर उन्हें परिष्कृत की ओर ही नियोजित किया।

गायत्री के पाँच मुख पंचकोश कहलाते है। यही सावित्री का स्वरूप है। दस भुजाओं का का अलंकारिक विवरण आता है वे पाँच ज्ञानेन्द्रियों एवं पाँच मनस तत्व से संबंधित देवता ही हे जो मिल कर महाशक्ति की दस भुजाएं बनाते है। इस प्रकार पूज्य गुरुदेव ने पंचकोशों की सिद्धि व दस देवताओं को आत्मसात कर स्वयं को गायत्रीमय बना लिया था। गायत्रीमय स्वयं को ही नहीं अपितु अगणित व्यक्तियों को इस दिशा में मोड़ा व सद्बुद्धि की अवधारणा द्वारा देवत्व का अभिसंचार किया। यही तो है नूतन सृष्टि का सृजन।

यहाँ एक पक्ष विचारणीय है कि क्या उनकी जगह और कोई व्यक्ति होता तो वह मूढ़ मान्यताओं से ग्रसित इस देश में जहाँ ऊँच नीच, जाति पाँति, लिंगभेद जैसी कितनी ही बुराइयाँ संव्याप्त है, इस स्तर का मोर्चा चलाता? सबसे गायत्री उपासना भी करवा लेता तथा यज्ञ में बैठकर आहुतियां भी डलवा लेता? संभव नहीं। अछूत व स्त्री कैसे गायत्री का प्रयोग कर सकते है, यह भ्रान्ति जिस राष्ट्र में रोम रोम में संव्याप्त हो, वहाँ यह क्राँतिकारी कदम सारे खतरे मोल लेते हुए उठाना, एक अवतारी सत्ता का ही काम हो सकता था। संभवतः इसी काम के लिए, आमूलचूल परिवर्तन के लिए, तथा कथित बुद्धिवादियों व अनास्था बढ़ाने वाले कर्मकाण्डियों से मोर्चा लेने हेतु यह कालजयी जन्मा था। आजीवन वे आचार से, अविवेकपूर्ण प्रचलनों से, दुर्बुद्धि भरे कुतर्की प्रतिपादनों से मोर्चा लेते रहे, न जाने कितने घाव व चोटें खायीं पर राणा साँगा की तरह मोर्चे पर डटे रहे, यह शक्ति उन्हें कहाँ से मिली? संदेह नहीं कि माँ गायत्री ही स्वयं अपने पुत्र का संरक्षण कर रही थी व अंततः उसने गायत्री जयंती के पावन दिन अपने पुत्र को गोद में लेकर स्थूल शरीर के बंधन से मुक्त कर और सूक्ष्म, सघन, वायुभूत बनाकर अपना विश्वमाता वाला स्वरूप उजागर कर दिया कि सारे विश्व की कुण्डलिनी को जगाने व नवयुग लाने हेतु अब उस सिद्ध पुरुष का पुरुषार्थ नियोजित होना है। जीवन वृत्तांत के इन प्रसंगों, लिपिबद्ध उनके विचारों व साधना की सिद्धि के अलौकिक घटनाक्रमों से भी बढ़कर किसी की क्या कोई और प्रमाण चाहिए?


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