विशाल संगठन की सुनियोजित शुरुआत

August 1990

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जितने भी बड़े-बड़े कार्य इस जगती पर सम्पन्न हुए है, वे संघशक्ति के बल पर ही हुए है। ऋषि रक्त के संचय से सीता का जन्म हुआ था जो रावण के विनाश का कारण बनी तथा देवताओं की अंशधर सत्ता महाकाली के रूप में जन्म लेकर शुम्भ निशुम्भ, मधुकैटभ इत्यादि दैत्यों का संहार कर पायी। राम को रीछ वानरों का सहयोग लेना पड़ा तो कृष्ण को ग्वाल-बालों का, अर्जुन-सुदामा जैसे सखाओं का। बुद्ध का धर्मचक्र प्रवर्तन संधारामों में से निकले भिक्षुओं भिक्षुणिओं के बल पर ही संभव हो सका। गाँधी ने भी सत्याग्रहियों की सेना एकत्र न की होती तो परतंत्रता की बेड़ियों से मुक्ति न मिलती।

महाकाल की अग्रदूत जब भी जन्म लेते है, आत्मबल सम्पन्न होते है। स्वयं सब कुछ करने की सामर्थ्य भी रखते है, किंतु स्रष्टा का खेल बिल्कुल निराला है। वह चाहता है श्रेय अगणित नरतनधारी देवात्माओं को मिले जो अवतारी सत्ता के साथ जन्म लेती है। पूज्य गुरुदेव रूपी महाकाल की सत्ता जब जन्मी और उनका साक्षात्कार अपनी परोक्ष मार्गदर्शक सत्ता से हुआ तो उन्हें अपना उद्देश्य समझ में आ गया था कि उन्हें एक विशाल संगठन खड़ा करना है जिसके माध्यम से वे विचारक्राँति को, जनमानस के परिष्कार को सम्पन्न कर दिखायें। इसके लिए चरण-चरण में मार्गदर्शन उनकी दुर्गम हिमालयवासी सत्ता करती रही। स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के नाते अपनी भूमिका निभाकर, “सैनिक” समाचार पत्र के सम्पादन से मुक्ति लेकर जब “अखण्ड ज्योति” पत्रिका के रूप में अपने विचारों के विस्तार द्वारा उनने अपनी छूटी हुई तप साधना को अगले चरण पर पहुँचाया तो उनका लक्ष्य था आत्मशक्ति का संवर्धन तथा तप से उद्भूत लेखनी द्वारा तत्कालीन समाज का बहुमुखी मार्गदर्शन। लेखनी दो तरह से चली एक प्यार व ममत्व भरा व्यक्तिगत परामर्श, प्रत्येक व्यक्ति को पत्र द्वारा स्वयं की लेखनी से। दूसरे लेखों के रूप में-जिनमें व्यक्ति, परिवार समाज से जुड़ी समस्याओं का आध्यात्मिक परिप्रेक्ष्य में समाधान समाहित रहता था। 1953 की गायत्री जयन्ती पर जब उनने गायत्री तपोभूमि की स्थापना कर अपनी पहली गुरुदीक्षा दी तो एक अध्याय का पटाक्षेप हो गया था-वह था चौबीस लक्ष के चौबीस महापुरश्चरणों की साधना जिसकी पूर्णाहुति उस दिन की गयी तथा दूसरा अध्याय आरंभ हो गया था वह था गायत्री परिवार के रूप में एक सुव्यवस्थित संगठन की स्थापना। मणिमुक्तकों को ढूंढ़कर एकत्र कर उनमें प्राणशक्ति भरने का सुनियोजित कार्य यदि गायत्री जयन्ती सन 1953 से आरंभ हुआ माने तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी। क्योंकि इसके पूर्व तो वे पृष्ठभूमि तैयार कर रहे थे, वातावरण गर्म कर रहे थे तथा हर परिजन को आने वाले समय के लिए अपनी तैयारी कैसे की जाय, यह मार्गदर्शन दे रहे थे। “गायत्री चर्चा” स्तम्भ द्वारा उनने गायत्री के तत्वज्ञान को व्यावहारिक जामा पहनाकर उसे इतना जन सुलभ बना दिया कि हर व्यक्ति जो उनके संपर्क में आया, वह गायत्री साधना न्यूनाधिक किसी ने किसी रूप में करने लगा।

गायत्री महायज्ञ अभी बड़े रूप में संपन्न होने थे। यज्ञ की प्रेरणा-”संगतिकरण” अर्थात् परमार्थ प्रयोजनार्थ श्रेष्ठ व्यक्तियों का संघबद्ध होना उन्हें भली भाँति याद था। अतः उनने शतकुण्डी महायज्ञ व सहस्रकुंडीय महायज्ञों के रूप में बाजपेय, अश्वमेध, राजसूय यज्ञ परम्परा का पुनर्जीवन कर एक विशाल संगठन की स्थापना करने का संकल्प इसी दिन लिया।

पूज्य गुरुदेव अगस्त 1953 की अखण्ड ज्योति की “गायत्री चर्चा” स्तम्भ में लिखते है कि गायत्री तपोभूमि की स्थापना माँ भगवती की इच्छा और प्रेरणा से ही हुई है। इसका मुख्य कार्य होगा। भारतीय संस्कृति धर्म और आत्मविज्ञान की आधारशिला गायत्री का जन-जन तक विस्तार। तपोभूमि भारतवर्ष के तपस्वियों, गायत्री उपासकों का एक ऐसा केन्द्रीय संगठन बिन्दु है जहाँ उनका पारस्परिक संगठन व सहयोग स्थापित होगा। जन-साधारण में गायत्री साधना का विस्तार करने की जो योजना है उससे राष्ट्र में एक तपोमयी भूमिका का सूक्ष्म वायुमण्डल बनेगा और उस वातावरण में अनेक मनोरम पुष्प प्रस्फुटित होंगे।” (पृष्ठ 21 अगस्त 1953 अखण्ड ज्योति) पहली बार वे इसी अंक में लिखते है कि “अब सभी गायत्री उपासकों को जो हमसे जुड़े हैं अपना दैनिक उपासना क्रम चालू रख रविवार के दिन साप्ताहिक कार्यक्रम रखना व सामूहिक हवन करना चाहिए।”

संभवतः गायत्री परिवार की विधिवत स्थापना का यह शुभारंभ था। समय दान का आवाहन भी पहली बार इसी अंक में इसी स्तंभ में किया गया था। उन दिनों “अपनों से अपनी बात” स्तंभ आरंभ नहीं हुआ था। “गायत्री चर्चा” स्तंभ के अंतर्गत ही वे अपनी बात कह लिया करते थे। अनेक व्यक्तियों को सन्मार्ग पर लगाने का पुण्यफल एकान्त साधना से कहीं अधिक बताते हुए वे गायत्री मात के निमित्त श्रम व समय सब से माँगते है वे सेवा के लिए समर्पित कार्यकर्ताओं का आह्वान भी पहली बार इसी के माध्यम से करते है। क्रमशः इन्हीं प्रसंगों को आगे बढ़ाते हुए 1954 की जून में पहला, पंद्रह दिन का जीवन विद्या सत्र आयोजित हुआ जिसमें संजीवनी विद्या पर, जीवन जीने की कला पर व्याख्यानों का क्रम चला। संभवतः यह बौद्धिक स्तर का पहला समागम था।

इसके पश्चात जो दूसरा महत्वपूर्ण कदम पूज्य गुरुदेव द्वारा उठाया गया, वह था संगठन निर्माण हेतु पंद्रह माह का एक अनुष्ठान का शुभारम्भ जिसकी पूर्णाहुति 108 कुण्डी महायज्ञ के यज्ञ के रूप में अप्रैल 1956 में विद्या का अधिकाधिक प्रचार के इस अनुष्ठान में गायत्री विद्या का अधिकाधिक प्रचार जन जन तक करने के लिए सबसे कहा गया व बसंत पंचमी 1955 को उनने घोषणा की कि वे 108 कुण्डी महायज्ञ में नरमेध यज्ञ करेंगे। घोषणा चौंकाने वाली थी क्योंकि उससे तो पौराणिक आशय नर बलि का ही निकलता था। पूज्यवर ने अखण्ड ज्योति के अंकों में इसका स्पष्टीकरण किया कि नरमेध का अर्थ है विशिष्ट व्यक्तियों द्वारा किसी उद्देश्य विशेष के लिए उच्चस्तरीय ड़ड़ड़ड़। अपना जीवन समाज को समर्पित करना तथा मन बुद्धि प्राण, जीवन, इच्छा, आकाँक्षा आदि की परमार्थ के लिए यज्ञ भगवान को आहुतियाँ दिया जाना। इस विशाल यज्ञ से जुड़ी नरमेध प्रक्रिया द्वारा उनने ऋषि रक्त में छिपे त्याग तत्व का आह्वान किया तथा परिजनों पाठकों की आत्माओं को झकझोरा।

अखण्ड ज्योति पढ़ने वाले पाठक निरन्तर प्रकाश प्रेरणा पा रहे थे वे गायत्री की सद्बुद्धि विस्तार की प्रेरणाओं को जन जन तक फैला रहे थे। इसी वर्ष 1955 में पूज्य गुरुदेव ने मथुरा में भादों से महामृत्युंजय यज्ञ, विष्णुयज्ञ, शतचण्डीयज्ञ, नवग्रहयज्ञ तथा चारों वेदों के यज्ञों के आयोजन किए व जो मथुरा न आ सके उनसे अपने यहाँ एक छोटा सा यज्ञ प्रति सप्ताह कर लेने का निवेदन किया। साथ ही नित्य नियमित जप करते रहने व मंत्र लेखन का अनुरोध भी। ऊपर वर्णित यज्ञ चैत्र माह 1953 (संवत् 2013) तक चलने थे। इनके समापन पर ही विशाल 108 महाकुण्डी यज्ञ व नरमेध यज्ञ का आयोजन किया गया। नरमेध प्रक्रिया देखने हजारों व्यक्ति आ जुटे। जिनने समाज के लिए कार्य करने का संकल्प लिया था उसके हाथ अलग-अलग रंग की रेशम की डोरियों से खंभों से बाँधे गये। उन्हें कलावा पहनाकर उन पर अक्षत पुष्प वर्षा कर यज्ञ समाप्ति पर उन्हें समाज को समर्पित कर बंधनमुक्त कर दिया गया।

इस यज्ञ में, जो बीस अप्रैल से 24 अप्रैल 1956 तक चला कई विशिष्ट अतिथियों व बीस हजार से अधिक व्यक्तियों ने भाग लिया। लोकसभा के सभापति अनन्तशयनम आयंगर ने इसका उद्घाटन किया। यह पूज्य गुरुदेव द्वारा तपोबल से जनशक्ति जुटाने के लिए किया गया। संगतिकरण था, एक ऐसा महायज्ञ था जिसकी परिणति पूरे भारत में स्थान स्थान पर यज्ञायोजनों के रूप में होनी थी। अपने इस कार्यक्रम के अंतिम दिन गुरुदेव ने घोषणा की कि भारत में वे 108 स्थानों पर गायत्री महायज्ञ छोटे बड़े रूप में पूरे आगामी दो वर्षों में सम्पन्न करेंगे। वस्तुतः इनकी संख्या 108 न रहकर 1008 से भी अधिक हो गई एवं ये पाँच व नौ कुण्डी से 108 यज्ञ स्तर के हुए। पहली बार अखिल भारतीय गायत्री परिवार का सदस्यता का पत्र सितम्बर 1953 की अखण्ड ज्योति में छापा गया व बाकायदा अधिकृत शाखाएँ स्थापित कर दी गई। यह प्रगतिक्रम बताता है कि कितने सुनियोजित ढंग से संगठन का सूत्रपात पूज्यवर द्वारा किया गया।

दिसम्बर 1953 में पूज्य गुरुदेव ने एक वर्ष तक 24 लक्ष गायत्री महामंत्र का महापुरश्चरण सामूहिक स्तर पर किये जाने की आवश्यकता पर बल दिया तथा इसे “आध्यात्मिक वरुणास्त्र” कहा जो 1957 में संभावित प्रकृति प्रकोपों, अन्तर्ग्रही प्रभावों तथा युद्धोन्माद की संभावनाओं से मानव मात्र को बचाने के लिए किया जाना था। जून 1947 में पहला अखिल भारतीय गायत्री परिवार सम्मेलन 7 से 12 जून की तारीखों में बुलाया गया एवं गायत्री उपासक, शाखा कार्यवाहक या मंत्री तथा व्रतधारी अक्रिय कार्यकर्ता ये तीन श्रेणियाँ अपने परिजनों की करके प्रत्येक को जिम्मेदारियाँ बाँट दी। इस सम्मेलन में संगठन का महत्व सबको समझाया गया, विभिन्न प्रांतों की गोष्ठियाँ की गयीं तथा किस प्रकार गायत्री व यज्ञ भावना का जन-जन तक विस्तार किया जाना है, यह बताया गया।

1957 की दिसम्बर अखण्ड ज्योति में पूज्य गुरुदेव द्वारा बताया गया कि 14 सितम्बर 1958 से गुरु वे नेपच्यून की युति आरंभ हो रही है। ऐसे में पाँच वर्ष भयंकर आपदाओं से भरे हो सकते है। इसके लिए गायत्री परिवार के संभावित एक लाख सदस्यों द्वारा ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान 1958 में किया जाना चाहिए। वह इसकी महापूर्णाहुति स्वरूप 1008 कुण्डों का एक विशाल महायज्ञ कार्तिक सुदी 12 से 15 (23 नवम्बर से 23 नवम्बर) 1958 की तिथियों में मथुरा में तपोभूमि में करने की विधिवत् घोषणा कर दी गयी। यह यज्ञ 101 यज्ञशालाओं में 1 लाख होताओं द्वारा संपन्न होना था। इस विराट आयोजन द्वारा एक लाख गायत्री उपासकों की श्रद्धा शक्ति का केन्द्रीकरण कर पूज्य गुरुदेव ने इस विशाल संगठन को उस महायात्रा पर ला खड़ा कर दिया जिसे अगले दिनों करोड़ों व्यक्तियों को अपनी चपेट में लेना था। यह उस मिशन का प्रगति की दिशा में अभूतपूर्व मोड़ था।

“यह सब अदृश्य सत्ता का खेल था। इस आयोजन में सूक्ष्म शरीर से वे ऋषि भी उपस्थित हुए थे, जिनके दर्शन हमने प्रथम हिमालय यात्रा में किए थे। सभी सूक्ष्म एवं कारण शरीरधारी थे। इन सब कार्यों के पीछे जो शक्ति काम करती रही उसके संबंध में किसी को कोई तथ्य विदित नहीं। लोग इसे हमारी करामात कहते रहे, किंतु भगवान साक्षी है कि हम जड़ भरत की तरह, मात्र दर्शक की तरह यह सारा खेल देखते रहे। जो शक्ति व्यवस्था बना रही थी, उसके संबंध में कदाचित ही किसी को कुछ आभास हुआ हो।”


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