प्रज्ञा आलोक का दिग्दिगन्त में विस्तार

August 1990

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अपनी चौथी हिमालय यात्रा से लौट कर आने के बाद शांतिकुंज में रहकर अपनी 1972 से 1981 तक की दो पंचवर्षीय योजनाओं की घोषणा पूज्य गुरुदेव ने की। इन योजनाओं में पहले पाँच प्रमुख कार्यों निज की तप साधना द्वारा युग निर्माण आँदोलन का परोक्ष सूत्र संचालन, प्राण प्रत्यावर्तन के सघन अनुदान, नारी जागरण का अभिनव सूत्रपात, वैज्ञानिक अध्यात्मवाद की स्थापना का भागीरथी प्रयास तथा प्रवासी भारतीयों में देव संस्कृति का विस्तार में से चार की चर्चा तो हो चुकी। पाँचवाँ प्रसंग विदेश में बसे प्रवासियों व नागरिकों को देव संस्कृति के महत्वपूर्ण निर्धारणों से अनुप्राणित कर उन्हें उस केन्द्रीय धुरी से जोड़ना था जो प्राण संचार करती रह सके। इस के लिए दिसम्बर 1972 से स्वयं पूज्य गुरुदेव ने अढ़ाई माह की अफ्रीका के पूर्वी भाग की यात्रा की। यह यात्रा कई उद्देश्यों से जरूरी थी।

युग निर्माण की चर्चा करते समय वे सदा कहते थे कि मिशन का कार्य क्षेत्र सारा विश्व है व अवधि तब तक की है जब तक कि वह युग, यह समय, यह एरा नहीं बदल जाता। शुरुआत उन लोगों से करना उनने अनिवार्य समझा जो भारत के राजदूत बनकर पीढ़ियों से वहीं जा बसे थे इनमें प्रधानता गुजरात प्रान्त से जाने वालों की, किन्तु राजस्थान, पंजाब व अन्यान्य स्थानों से रोजगार हेतु बाहर गए परिजनों की संख्या भी कम नहीं है। इनमें से कई पूज्य गुरुदेव से अखण्ड ज्योति के माध्यम से जुड़े हुए थे। इन से पत्र व्यवहार व मार्गदर्शन का क्रम चल ही रहा था। ये व्यक्ति न केवल अफ्रीका के तंज़ानिया, केन्या, मोमबासा, जाम्बिया, जिंबाबे, काँगो यूगांडा, साउथ अफ्रीका, मलावी जैसे देशों में बसे हुए हैं, बल्कि यूरोप के इंग्लैण्ड, नार्वे, डेनमार्क, हालैण्ड जर्मनी तथा कनाडा, सूरीनाम, फिजी, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैण्ड, मलेशिया एवं अमेरिका आदि राष्ट्रों में भी बहुतायत से विद्यमान हैं। इन सभी से मिलना तो इतनी कम अवधि में संभव नहीं था किन्तु उस विधा की तो शुरुआत करनी ही थी जिसके माध्यम से परिजनों को आवश्यक प्रेरणा, प्रकाश एवं दिशा निर्देश दिया जा सकें। अन्यान्य धर्मों के अनुयाइयों तथा विज्ञानवेत्ताओं से मिलना भी उनका उद्देश्य था ताकि वसुधैव कुटुम्बकम् के लक्ष्य तक पहुँचने के लिए स्थूल शरीर से जो जाना जा सकना संभव है वह इस यात्रा से जान लिया जाय।

सोचा जा सकता है मात्र अफ्रीका के कुछ देशों की यात्रा द्वारा तो वह प्रयोजन पूरा नहीं होता जिसकी चर्चा ऊपर की गयी है। यहाँ यह नहीं भूलना चाहिए कि उनकी यात्रा अन्यान्य धर्म गुरुओं के समान नहीं थी जो सुख उपभोग की तलाश में धन बटोरने की ललक में, धर्म के नाम पर योग साधना के नाम पर संव्याप्त आस्था वाली मानसिकता का दोहन करने अधिकाँश समय वहीं बने रहते हैं। चोगा भले ही उनने बाबा जी का पहन रखा हो, किन्तु आचरण में पाश्चात्य भोग विलास की ही प्रधानता रहती है। पूज्य गुरुदेव ने जीवन भर एक ब्राह्मण की जिन्दगी जी है वह सफेद खादी की धोती व एक कुर्ते से ही जीवन भर काम चलाया है। विमान यात्रा का खर्च सुनकर उनने समुद्र से यात्रा कर अधिक दिन प्रवास व बिताना पसंद किया ताकि अनावश्यक भार परिजनों पर न पड़े वह जहाज पर व्यतीत समय को वे स्वाध्याय, साधना में लगा सकें। आज की परिस्थितियों में यह भले ही अव्यावहारिक प्रतीत होता हो किन्तु मिशन का सूत्र संचालक जिन आदर्शों पर जीवन भर चला था, उनके माध्यम से ही अपनी रीति नीति का निर्धारण कर रहा था। यदि इसे एक आदर्श शुरुआत कहें तो उचित होगा क्योंकि वे आने वाले दिनों में प्रज्ञा परिजनों प्रवासियों तथा विश्वभर के नागरिकों में घूम घूम कर प्रचार करने वाले विवेकानन्दों, रामतीर्थों, कुमारजीवों, महेन्द्रों व संघमित्राओं के लिए एक उदाहरण सामने रखना चाहते थे। यह यात्रा एक बीजारोपण मात्र थी इसलिए सूत्र संचालक ने 80 वर्ष के जीवन के अढ़ाई माह इस कार्य के लिए निर्धारित कर दिए किन्तु यह कार्य बाद में भी सतत् चलना ही था।

वे अपने ममत्व भरे मार्गदर्शन से अनेकों परिजनों को अपना बनाकर लौटे वह लौटते हुए उनने कल्पना कर ली कि देव संस्कृति के मूल स्वरूप से जब तक प्रत्येक भारतवासी को, प्रवासी नागरिकों को एवं विश्व वसुधा पर बसने वाले हर व्यक्ति को अवगत नहीं कराया जाता तब तक वे अज्ञान के अंधकार में ही भटकते रहेंगे। भोगवादी जीवन ही जहाँ सब कुछ है, नास्तिकतावादी तत्वदर्शन जहाँ हावी होता जा रहा हो, वहाँ भारतीय संस्कृति की आस्थावादी मान्यताओं का पहुँचना जरूरी है यहीं से शुभारंभ हुआ वह अभियान जो एक शोधग्रन्थ के रूप में 1975 में “समस्त विश्व को भारत के अजस्र अनुदान” के नाम से साकार हो कर गायत्री तपोभूमि से प्रकाशित हुआ। इस ग्रन्थ से इस महामनीषी का युग द्रष्टा व विचारक वाला वह स्वरूप परिलक्षित होता है जिसमें मानव मात्र के उत्थान के लिए पीड़ा दिखाई देती है व सभी को दयनीय स्थिति से उबारने हेतु किये जा सकने वाले प्रयासों की प्रेरणा के दर्शन होते हैं। भारतीय संस्कृति चिरकाल से विश्वमानव की सेवा करती रही है व उन्हीं आदर्शों को आधार बनाकर पुनः वह कार्य संपन्न करती रह सकती हैं, इसका प्रत्यक्ष मार्गदर्शन इस देवदूत द्वारा इसमें किया गया है।

अब तक न जाने कितने भारत माँ के सपूत पिछली दो सदियों ने भारत से बाहर जा कर बस गए, पर उनकी खोज खबर किसी ने नहीं ली, न उनको सुनियोजित दिशा देने का प्रयास किया। बुद्धि की दृष्टि से कुशल एवं भावनाओं की दृष्टि से संपन्न इन प्रवासियों का अधिकांश धर्म गुरुओं ने दोहन ही किया, उन्हें उनके मूल स्वरूप का बोध कराके मार्गदर्शन नहीं दिया। विवेकानन्द एवं रामतीर्थ के बाद गिने चुने व्यक्ति ही ऐसे पहुँच पाये जो वहाँ के विलास प्रधान, भोगवादी स्वरूप से अप्रभावित रह अपनी संस्कृति के रंग में विदेशियों को रंग सके। प्रस्तुत ग्रन्थ इन महामानवों के पुरुषार्थ के बाद किया गया एक ऐसा लेखनी का तप कहा जा सकता है जिसका उद्देश्य था देवमानवों के अंदर से उनका ब्राह्मणत्व जगाया जाय, उन्हें उनकी गरिमा का बोध कराके उन महान परम्पराओं से परिचित कराया जाय जो समस्त संसार का कभी भला करती थीं व आगे भी करती रहेंगी।

अपनी पुस्तक की भूमिका में उनने लिखा कि “भारतीय कभी नर पशु नहीं रहे। वे क्षुद्र स्वार्थों के लिए न तो कभी जिये हैं और न मरे खपे हैं। जन्मघुट्टी में ही उनको मानवीय कर्तव्यों को अपनाने की और उसके लिए बढ़ चढ़ कर त्याग बलिदान करने की शिक्षा पिलाई जाती है। वे पेट और परिवार की नहीं, आदर्शों की रक्षा करने एवं समस्त संसार से पीड़ा एवं पतन को निरस्त करने के लिए अपने चिन्तन और कर्तव्यों को नियोजित रखते थे। इस देवोपम रीति नीति को अपनाकर वे आत्मिक विभूतियों से और भौतिक समृद्धि से भरे पूरे बन सके, साथ ही अपना तथा समस्त संसार का भला कर सके। यही है हमारी साँस्कृतिक पुण्य परम्परा पूर्वजों की विरासत और गौरव गरिमा की आधार शिला, जिसके माध्यम से हमें पूरे भावावेश और प्रचण्ड पुरुषार्थ के साथ अपनी नवोदित सत्ता की प्राण प्रतिष्ठा करनी है।

प्रस्तुत पंक्तियाँ एक प्रकार का शंखनाद है जिसके माध्यम से युग निर्माण योजना के अंतर्गत संसार भर को मानवीय संस्कृति का सन्देश सुनाने तथा वैसी ही गतिविधियाँ अग्रसर करने की प्रेरणा दी गयी। इस पुस्तक में विश्व के कोने कोने में संव्याप्त भारतीय सभ्यता, विभिन्न भारतीय संस्कृति के अवशेष चिह्नों की जानकारी तथा अमेरिका यूरोप से लेकर रूस, जापान, कोरिया, दक्षिण पूर्व एशिया से सम्पन्न महान कर्तृत्व की बड़े विस्तार से व्याख्या की गयी है। इस शोध ग्रन्थ में अंत में प्रवासी भारतीयों की वर्तमान स्थिति, विदेशों में भारतीयता प्रेमी संगठनों की जानकारी तथा भारतीय तत्वज्ञान को विश्वव्यापी कैसे बनाया जाय, यह मार्गदर्शन है। इस ग्रन्थ ने प्रबुद्ध वर्ग में न केवल अच्छी खास ख्याति प्राप्त की, सभी अखण्ड ज्योति पाठकों को अपने गौरवमय अतीत की झाँकी भी करा दी। यही पुस्तक प्रवासी परिजनों के लिए भावी मार्गदर्शन का आधार भी बनी। अब इसे हिन्दी व अंग्रेजी में पुनः प्रकाशित किया।

मात्र हिन्दी व गुजराती तक सीमित रहने से मिशन का कार्य क्षेत्र फैल नहीं सकता था। अतः इस पुस्तक के प्रकाशन के दो वर्ष बाद एक योजना बनी जिसमें पत्रिका अथवा पुस्तकें इंग्लिश, तमिल, तेलुगु, बंगाली, गुरुमुखी जैसी पाँच भाषाओं में प्रकाशित किये जाने की योजना बनी। युग शक्ति गायत्री के नाम से ये गुजराती मराठी व उड़िया में पहले ही प्रकाशित हो रही थी। साथ ही प्रवासी भारतीयों के लिए साँस्कृतिक चेतना, गायत्री एवं यज्ञ तथा योग के वैज्ञानिक स्वरूप का परिचय देने वाली तीन छोटी पुस्तिकाएं हिन्दी अंग्रेजी व गुजराती में 1971-80 में प्रकाशित हुई। गायत्री महाविज्ञान के समन्वित तीनों खण्ड तथा पूज्य गुरुदेव की आत्मकथा जो 1958 में लिखी हुई, का अंग्रेजी अनुवाद भी पुस्तक आकार में प्रकाशित हुआ। इन सभी में उपासना, साधना, आराधना से लेकर लोक सेवा संबंधी विशद मार्गदर्शन भी है।

पत्र व्यवहार द्वारा समय समय पर प्रवासी भारतीयों व उनके संपर्क में आने वाले वहाँ के नागरिकों को मार्गदर्शन देते रहने का एक क्रम चल पड़ा व अब कार्यकर्ताओं के समूह सुनियोजित ढंग से प्रशिक्षण हेतु यहाँ बुलाने तथा यहां से दो या तीन लोकसेवी, निस्पृह परिव्राजक स्तर के उच्चशिक्षित कार्यकर्ता सतत् भेजे जाते रहने की योजना पूज्य गुरुदेव अपने सामने बनाकर गए हैं।

पूज्य गुरुदेव का संकल्प है कि युगसन्धि के शेष दस वर्षों में उनका संदेश विश्व के जन जन तक पहुंचे इस के लिए विश्व की अन्यान्य भाषाओं में साहित्य का अनुवाद होते रहने की प्रेरणा वे सूक्ष्म शरीर से प्रतिभाशालियों को देते रहेंगे। फ्रेंच व रशियन में यह कार्य आरंभ हो चुका है। विश्व में


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