महाप्राण से अब प्राणों की दूरी हमें रुलानी (Kavita)

August 1990

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हुए प्रकंपित स्वर, नयनों में विकल वेदना छाती। महाप्राण से अब प्राणों की, दूरी हमें रुलाती॥ क्षुद्र अकिंचन हम दीपों ने, ज्योति तुम्हीं से पाई। हारे थके हुए नयनों में, तुमने आस जगाई। टूटी मनवीणा की अनुपम, सरगम पुनः सजाई। दिशाहीन जब भटक रहे थे, राह नई दिखलाई॥

अनुपम अनुदानों की गाथा, नहीं भुलायी जाती। विष में डूबी मानवता को, सुधापान करवाया। दुख दर्दों से बिलख रहे, उनमें मधुहास जगाया। प्यासी जगती ने तुम से ही, स्नेह स्रोत है पाया। अखिल विश्व को धर्म और संस्कृति का पाठ पढ़ाया॥

हर पल जले जगत के हित में, बनकर दीपक बाती। आज हमारी बारी है, हम भी विश्वास दिलावें। आदर्शों के लिए हृदय में, तड़पन व्यथा जगावें। बन प्रामाणिक और क्रियारत, अविरल कदम बढ़ाएं। बच हुआ जो काम प्राण देकर भी उसे बनाएं॥

सींचे खून पसीने से, अभिनव अंकुर की थाती। भागीरथी ज्ञान की गंगा, से जग को सरसाने। क्रांति विचारों में लाने को, बुने आज ताने बाने। समता ममता और एकता, के हम गायें तराने। नन्दन बन के पुष्प बनें इस वसुधा को महकाने॥

राह नवल निर्माणों की, हमको आवाज लगाती। महाप्राण से अब प्राणों, की, दूरी हमें रुलाती॥


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