शाम का समय था वे शान्ति कुँज के अपने कमरे में बैठे व्यवस्था आदि कार्यों के संदर्भ में गोष्ठी रहे थे। इसी बीच बरसात के कारण लाइट चली गई। कुछ शाम अधिक हो जाने के कारण और कुछ घने बादलों के कारण कमरे में घना अँधेरा हो गया। बैठे हुए लोगों में से कुछ प्रकाश के लिए लैम्प आदि की व्यवस्था के लिए उठने ही वाले थे कि तनिक तीखी आवाज में वह स्वयं उठते हुए बोले थे कि तनिक बैठे रहो! उठना नहीं। तुम्हें क्या पता कौन सी चीज कहाँ रखी है। मैं अपनी हर चीज यथा स्थान रखता हूँ। कहते हुए उन्होंने लैम्प जलाया और एक मन्द प्रकाश में वार्तालाप पुनः शुरू हो गया। कहाँ चेतना की उच्चतम भूमि पर निवास? और कहाँ इन छोटी चीजों की ऐसी सुव्यवस्था? इन दोनों बातों का विरल एकीकरण उन्हीं के जीवन में सघन था।
ईस्ट अफ्रीका जाने के लिए वह पानी के जहाज से यात्रा कर रहे थे। उद्देश्य तक ही था सभ्यता के अहं में ग्रस्त लोगों द्वारा तिरस्कृत अपमानित समुदाय की गले लगाना। वहाँ भारतीय सभ्यता और संस्कृति के बीज छिड़कना। समुद्री यात्रा अनभ्यासी के लिए कम कष्टकर नहीं होती। पर उनका लेखन चिन्तन तथा अन्य दैनिक क्रम यथावत थे। इसी बीच पता चला कि उनके गन्तव्य स्थान के कुछ व्यक्ति साथ चल रहे है। बस मन की सीखने की वृत्ति ने प्रोत्साहित किया क्यों न पहुँचने के पहले वहाँ की भाषा सीख ली जाय।
उमंग उत्साह में बदली उत्साह कार्य में। सीखना शुरू हो गया। ठीक 1 दिन में उन्होंने स्वाहिली नाम से जानी जाने वाली भाषा पर अधिकार प्राप्त कर लिया। सिखाने वाले स्वयं दंग थे। यों प्रसिद्ध प्राध्यविद् सर विलियम जोन्स ने भी कलकत्ता के पण्डितों से संस्कृत सीखी थी। पर यहाँ गति की तीव्रता से अद्भुत थी। सीखने की वृत्ति के इसी वरदान के बल पर उन्होंने वहाँ पहुँच कर सारे वार्तालाप उन्हीं की भाषा में कर सबको चकित कर दिया।