जीवन की शोधकर्ता (Kahani)

August 1990

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स्वामी विवेकानन्द के जीवन की शोधकर्ता मेरीलुई सवर्क ने लिखा है “व्याख्यान देते समय उनके शरीर से एक तरह की तरंगें निकलती थी। फिर क्या मजाल कोई उनसे बंधे बिना न रहे।” फूल बाग कानपुर में, उनकी वक्तृता समारोह के दौरान इस तथ्य को सत्यापित होते बहुतों ने देखा। उस दिन लगभग 15 हजार की उपस्थिति थी। भारत सरकार के तत्कालीन गृहमंत्री आने वाले थे। उनकी देर के कारण काफी कुछ लोग इधर-उधर चले गये। खैर मंत्री महोदय आए संक्षेप में उन्होंने अपनी बात पूरी की। पं. गुरुदेव ने माइक संभालते हुए स्पष्ट घोषणा की “जो मंत्री जी को सुनने आए हो सो चले जाएं जिन्हें मुझे सुनना हो वे बैठे रहे।” घोषणा का परिणाम यह हुआ कि बाहर गये लोग भी लौट आए। उपस्थिति ज्यों की त्यों हो गई। एक घने सन्नाटे को चीरती उनकी वाणी ठीक डेढ़ घंटे तक गूँजती रही। रात्रि के साढ़े बारह बजे मंत्र मुग्ध जनसमुदाय का सम्मोहन टूटा। लोग प्रवचन की चर्चा करते हुए अपने घरों की ओर गए। ऐसा था उनका सम्मोहक व्यक्तित्व जिसका स्थायित्व एक व्यापक संगठन के रूप में सभी के सामने है।

काका कालेलकर गाँधी जी के लिए मजाक में कहा करते थे अपना सब कुछ लुटा देने वाले महापुरुष यदि कहीं कंजूस होते हैं तो अपने मय को लुटाने करने में। इसके छोटे से अंश को भी यह बेकार नहीं गंवा सकते। काका का यह मजाक गुरुदेव के जीवन में भी सोलह आने सच था। यों उनका सुबह का समय लेखन के लिए था पर इस बीच वह अनेकों मुलाकातियों की न केवल दुःख तकलीफ सुनते बल्कि समाधान जुटा देते। एक दिन एक व्यक्ति उनके पास आया। आने के बाद उसने शाखाओं के झगड़े कार्यक्रम की परेशानियां कहना शुरू की।

उसके कथन के बीच में ही पैनी नजर ताकते हुए वह बोले बेटा तू अपनी बात कह तेरा घर परिवार कैसा है। जवाब में उसने गृह कलह, बच्चों की पढ़ाई, पत्नी के स्वास्थ्य अपनी नौकरी संबंधी अनेकों समस्याएं कह सुनाई। यथार्थ में वह कहना भी यही चाहता था। सब कुछ सुनकर वह बोले अब देख तूने असली मुद्दे की बात कही ना पहले बेकार में मेरा और अपना समय खराब कर रहा था। जा तेरा ध्यान रखेंगे। वह व्यक्ति चला गया। समय की इतनी कीमत उसे आज पता चली।


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