चौबीस महापुरश्चरणों की पूर्णाहुति एवं तपोभूमि की स्थापना

August 1990

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साधना की सफलता का मूल तो साधक की अटूट निष्ठा एवं आत्मशोधन है किन्तु ऐ अक्ष जो बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, वह है सुसंस्कारिता साधना स्थली में साधना करने की सुविधा उपलब्ध होना। जहाँ यह उपलब्ध हो जाती है वहाँ थोड़े ही पुरुषार्थ से दिव्यदर्शी साधक अपना लक्ष्य सिद्धि कर लेते है। वातावरण की अपनी महत्ता है। देवात्मा हिमालय की हिमाच्छादित चोटियों के मध्य गंगा किनारे की गई उपासना का अपना प्रतिफल है तथा श्रेष्ठ संस्कारों से अनुप्राणित भूमि में साधना का अपना। महर्षि रमण ने अपनी एकान्त साधना के लिए शैव साधकों की तपस्थली अरुणाचलम् को चुना क्योंकि वहाँ वे सारे संस्कार विद्यमान थे जहाँ वे न्यूनतम पुरुषार्थ से अपनी सिद्धियों को जगा कसते थे। योगीराज अरविन्द ने भी वेद पुरी को ही अपनी तपःस्थली बनाया जो महर्षि अगस्त की तपोभूमि थी। रावण महाबली था पर तप शक्ति से डरता था। उसके निर्देश थे कि उसके असुर उत्तर में कहीं भी जाएँ पर वेदपुरी जहाँ आज पांडिचेरी स्थित है से कोसों दूर रहें क्योंकि उस स्थान के प्रभामण्डल का प्रभाव असुरत्व के लिए विनाशकारी था। गोविन्द पाद जो आद्य शंकराचार्य के गुरु थे, ने अमरकण्टक को अपनी साधना स्थली बनाया, वहीं पर आचार्य शंकर को चारों धामों की यात्रा करने का उपदेश दिया व शक्ति प्रदान की। यह महत्ता भूमि के संस्कारों की है।

पूज्य गुरुदेव ने अपनी जीवन यात्रा के साधना काल रूपी पूर्वार्द्ध की पूर्णाहुति के लिए एवं भावी गतिविधियों को क्रिया रूप देने के लिए जिस स्थान का चयन किया, वह महर्षि दुर्वासा की तपःस्थली था। यह स्थान यमुना किनारे मथुरा से वृन्दावन जाने वाले मार्ग पर स्थित था। वे अखण्ड ज्योति के जनवरी 1942 अंक में लिखते है कि “मथुरा में गायत्री तीर्थ बनने की योजना किसी व्यक्ति के संकल्प से नहीं वरन् माता की प्रेरणा से बनी है। ब्रह्मविद्या के गंभीर अन्वेषण एवं विशद विस्तार के लिए एक केन्द्रीय स्थान जरूरी था। कितने ही सूक्ष्म एवं रहस्यमय कारणों से वह स्थान मथुरा चुना गया व अब वहाँ गायत्री माता का मन्दिर व तपोभूमि बननी है। यही स्थान बाद में गायत्री तपोभूमि नाम से प्रख्यात हुआ।

भूमिका चयन करने के बाद उससे भी कठिन कार्य निर्माण का है। धर्मधारणा भारत में अभी भी जिन्दा है पर उन दिनों जब चारों और मूढ़ मान्यताएँ घर किये हुए बैठी थीं, गायत्री के संबंध में भ्रान्तियाँ संव्याप्त थी, यह काम भगीरथ के गंगावतरण के समान दुष्कर था। पूज्य गुरुदेव ने सबसे पहले गायत्री चर्चा स्तम्भ के माध्यम से सब पाठकों की मनोभूमि बनाई एवं गायत्री तीर्थ बनाने की आवश्यकता बताते हुए अंतः की सदाशयता जगाई। यों यह कार्य इस युग अंतः की सदाशयता जगाई। यों यह कार्य इस युग का ब्रह्मर्षि, यह विश्वामित्र, अकेला भी कर सकता था पर जनता के अंश अंश सहयोग द्वारा उनका अपनत्व संस्था से जोड़ते हुए ही वह कार्य होना है, यही उनका लक्ष्य था। साथ ही सहयोग देने वाले हर व्यक्ति को उनने गायत्री उपासक कहा तथा प्रत्येक से हाथ से मंत्र लेखन व नियमित अनुष्ठान करने को कहा। उनके स्वयं के चौबीस लक्ष के चौबीस महापुरश्चरणों की समाप्ति का समय आ रहा था। गायत्री जयन्ती 1943 में उसकी औपचारिक पूर्णाहुति होनी थी। उस दिन तक उनने तपोभूमि पर मन्दिर के निर्माण तथा गायत्री माता की मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा कर डालने का निश्चय कर लिया व इस पुनीत कार्य में सभी साधकों से सहयोग माँगा। उसके लिए नवम्बर माह 1949 के अंक में गायत्री तपोभूमि का संभावित रूप क्या होगा, इसका एक चित्र छापा व उसके नीचे एक पंक्ति दी, “देखें किन्हें पुण्य मिलता है इस पवित्र तीर्थ को बनाने का” आश्चर्य होता है यह देखकर कि तपोभूमि वैसी ही बनी जैसा कि इसका प्रारूप बनाया गया था।

ज्येष्ठ सुदी 10 गायत्री जयन्ती 1942 तक उनने हस्त लिखित गायत्री मंत्र चौबीस लक्ष की संख्या में गायत्री तपोभूमि पहुँचाये जाने की अपनी इच्छा व्यक्त प्रत्येक व्यक्ति से 2400 मंत्र लिखकर भेजने को कहा। इस प्रकार एक हजार चुने हुए साधकों द्वारा इस लक्ष्य पूर्ति के लिए तिथि निर्धारित कर दी व उस दिन तक उन्हें हस्त लिखित गायत्री मंत्र प्राप्त हो गए। पर मन्दिर अभी था कहाँ? अभी तो निर्माण भी होना था।

अपने पाठकों को श्रेय देने के लिए उनके नगण्य से अनुदान को भी अखण्ड ज्योति में छापा व जिन जिन ने नैष्ठिक उपासना की, उनके चित्र जुलाई अंक में छापे। जिनमें सावित्री देवी, शिवशंकर जी मिश्र बाला शंकर जी भट्ट, नन्दकिशोर उपाध्याय, पुरुषोत्तम साखरे तथा शालिग्राम जी दुबे कुछ नाम है। वस्तुतः जुलाई 1942 का अंक ही गायत्री साधना की अनुभूतियों पर आधारित अंक था। इस तथा आगे के अंकों की “गायत्री चर्चा” प्रसंग में उनने स्थान स्थान पर गायत्री उपासना का महत्व तथा फैलायी जा रही भ्रान्तियों के निवारण हेतु शास्त्र सम्मत तर्क सम्मत समाधान दिए। दिसम्बर 1942 की अखण्ड ज्योति में उनने घोषणा कर दी कि ज्येष्ठ सुदी सं. 2010 गायत्री जयन्ती (सन 1943) को कई महान कार्यों की पूर्णाहुति होगी उसमें प्रथम थी सहस्राँशु गायत्री ब्रह्मयज्ञ की पूर्णाहुति। 124 करोड़ गायत्री महामन्त्रों का जप, 124 लाख आहुतियों का हवन, 124 हजार उपवास तीनों ही पूरे होने को आ रहे थे वे सभी गायत्री जयन्ती तक पूरे हो जाने की संभावना उनने व्यक्त की थी। दूसरा था सवा करोड़ हस्तलिखित मंत्रों के संकल्प की पूर्ति व उसकी भी पूर्णाहुति। तीसरा था स्वयं के 24-24 लक्ष के 24 पुरश्चरणों की पूर्णाहुति। चौथा था गायत्री मन्दिर में गायत्री माता की मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा। ऋषिकल्प सात्विकता का इस आयोजन में पूरा ध्यान रखे जाने का उनने आश्वासन दिया व स्वयं बैसाख सुदी 14 से ज्येष्ठ सुदी 10 तक चौबीस दिन मात्र गंगाजल पीकर निराहार उपवास रखने की घोषणा की।

यह प्राण प्रतिष्ठा पर्व कितना महत्वपूर्ण था, इसको भली भाँति समझा जा सकता था जब हम देखते है कि इसके लिए पूर्व से पूज्य गुरुदेव ने क्या क्या तैयारियाँ की।

(1) भारत वर्ष के सभी प्रमुख तीर्थों (चौबीस सौ) का जल एवं सभी सिद्ध पीठों (इक्यावन) की रज एकत्रित कर सभी तीर्थों व सिद्ध पीठों को गायत्री तीर्थों में प्रतिनिधित्व देने की घोषणा व छह माह में यह कार्य पूरा भी कर लिया। बारह महाशक्ति का चरणोदक भी स्थान स्थान से मंगाया गया।

(2) सात सौ वर्षों से जल रही एक महान सिद्ध पुरुष की धूनी की अग्नि की स्थापना करने की बात कही गयी।

(2) सात सौ वर्षों से जल रही एक महान सिद्ध पुरुष की धूनी की अग्नि की स्थापना करने की बात कही गयी।

(4) सवा करोड़ मंत्र लेखन भी प्रस्तावित गायत्री तीर्थ में उसी दिन स्थापित किये जाने की घोषणा की गयी।

इस आयोजन में बहुत बड़ी भीड़ को नहीं मात्र 124 उन गायत्री उपासकों को बुलाया गया, जिनने संतोषजनक ढंग से समस्त विधि विधानों को पूरा कर गायत्री उपासना संपन्न की थी। साथ ही ज्ञानवृद्ध, आयुवृद्ध, लोकसेवी, पुण्यात्मा सत्पुरुषों के पते भी माँगे गये ताकि उनसे इस पुण्य आयोजन हेतु आशीर्वाद लिया जा सके। कितना कुछ सुनियोजित व शालीनता, सुव्यवस्था से भरा पूरा आयोजन, जिसमें स्वयं को सिद्ध न बताकर सबके आशीर्वाद माँगे ताकि भूमि के संस्कारों को जगाकर एक सिद्धपीठ विनिर्मित की जा सके।

सब कुछ इसी प्रकार चला एवं चौबीस दिन का जल उपवास पूज्य गुरुदेव ने निर्विघ्न पूरा किया। जो साधक ब्रह्म यज्ञ में आए थे, उन्हें मात्र दुग्ध दिया जाता व लकड़ी की खड़ाऊँ पर चलने, यथा संभव सारी तप तितिक्षाओं का निर्वाह करने को कहा गया। गायत्री जयन्ती के दिन वाराणसी से पधारे तीन संतों ने ब्रह्मयज्ञ की शुरुआत की। अरणिमंथन द्वारा अग्नि प्रज्ज्वलन का प्रयास किया गया पर तीन चार बार करने पर भी असफलता हाथ लगी। पूज्य गुरुदेव अधूरे बने गायत्री मन्दिर के फर्श पर बैठे सारी लीला देख रहे थे। उनने जटापाठ धनपाठ सामगान के लिए उपयुक्त निर्देश दिए तथा अरणि मंथन हेतु आई काष्ठ को अपने हाथ से स्पर्श कर गायत्री मंत्र का जप कर वापस किया। एक सहयोगी को बुला कर कहा कि नारियल की मूँज लाओ। उसके आने पर उसमें भी मंत्रोच्चारण द्वारा प्राण फूँके तथा पुनः अरणि मंथन किये जाने का निर्देश दिया। जैसे ही काष्ठों का घर्षण हुआ, मूँज को स्पर्श करा दिया तथा तुरन्त अग्नि प्रज्ज्वलित हो उठी इसी यज्ञ कुण्ड में धूनी की स्थापित कर दी गयी। यज्ञ पूर्ण हुआ एवं संध्या सभी के साथ संतरे का रस लेकर पूज्य गुरुदेव ने अपना उपवास तोड़ा। एक महायज्ञ, जो सन् 1923 में इस महापुरुष ने आरंभ किया था, की पूर्णाहुति इस पावन दिन हुई। घोषणा की गई कि आगामी पाँच वर्षों में एक शतकुण्डी यज्ञ, एक नरमेध यज्ञ एवं एक सहस्रकुंडीय महायज्ञ अंत में संपन्न होगा जिसमें विराट स्तर पर गायत्री साधक भाग लेंगे।

पूर्णाहुति के दिन ही उनने शाम को एक और विलक्षण घोषणा की कि अभी तक उनने किसी को गुरु के नाते दीक्षा नहीं दी है। अभी तक सत्य धर्म की दीक्षा ही वे देते आये है। अब वे अगले दिन प्रातः अपने जीवन की पहली गुरुदीक्षा देंगे। जो लेना चाहें वे उस दिन उपवास रखें। स्वयं वे भी निराहार रहेंगे तथा अपने समक्ष साधकों को बिठाकर यज्ञाग्नि की साक्षी में दीक्षा देंगे। दीक्षा का यह प्रारंभिक दिन था व इसके बाद अनवरत क्रम चल पड़ा। यही दिन दीक्षा के लिए क्यों चुना, यह एक साधक द्वारा पूछे जाने पर उनने कहा कि 24 लक्ष के चौबीस महापुरश्चरणों की पूर्णाहुति व चौबीस दिन के जल उपवास की समाप्ति पर उनमें अब पर्याप्त आत्मबल का संचय हो चुका है तथा अब

वे अपनी परोक्षसत्ता के संकेत पर अन्यों को अपने मार्ग पर चलने की विधिवत आध्यात्मिक प्रेरणा दे सकते है। ब्रह्मवर्चस् सम्पन्न गुरुदेव ने पूर्णाहुति के अगले दिन वाले गुरुवार से दीक्षा देना आरंभ किया व उनके माध्यम से स्थूल सूक्ष्म रूप में ज्ञान दीक्षा, प्राणदीक्षा, संकल्प दीक्षा लगभग पाँच करोड़ से अधिक व्यक्ति उनके महानिर्वाण तक ले चुके थे। सिद्ध साधक का सिद्ध तीर्थ बनाने का यह प्रथम सोपान पूर्ण हो चुका था। अब विशाल गायत्री परिवार बनाने की, संगठन को सुव्यवस्थित करने की सुविस्तृत स्तर पर तैयारी करनी थी, जिस निमित्त ने गायत्री तपोभूमि के निर्माण के बाद प्राणपण से जुट गए।


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