पूज्य गुरुदेव लेखन से पूर्व चिन्तन नियमित किया करते थे एवं सहयोगी कार्यकर्ताओं को बिठाकर उनके दिमाग की अच्छी कसरत करवा के उनसे संदर्भ ढूंढ़ने को कहते। इधर संदर्भों की तलाश होती, उधर इतनी चर्चा के बाद प्रातः उनकी लेखनी चल पड़ती। आश्चर्य यह होता था कि इन लेखों में बहुधा वही नाम, संदर्भ हुआ करते थे जो परिजन, शोधकार्य में सहयोगी उस समय पढ़ रहे या नोट्स ले रहे होते थे। संभवतः यह भी योग की एक सिद्धि है, जिसमें व्यक्ति विचारों को समष्टिगत प्रवाह बनाकर पढ़ लेता है व उसे युग प्रवाह का अंग बना देता है। ऐसा कई बार देखने में आया कि किसी नये विषय पर किसी कार्यकर्ता ने पुस्तक पढ़ी तो अगले दिन पूज्य गुरुदेव का लेख उसी विषय पर नकल हेतु पहुँच गया। प्रवाह वही है, शक्ति उन्हीं की है। लेखनी भले ही किसी या किन्हीं के हाथों में हो।