इस युग का अभूतपूर्व समुद्र मन्थन

August 1990

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अध्यात्म और विज्ञान का समन्वय कर दोनों के शाश्वत स्वरूप का सरल, सुबोध प्रस्तुतीकरण एवं वैज्ञानिक गवेषणाओं आधुनिकतम यंत्रों के माध्यम से प्रमाणीकरण एक ऐसा युग पुरुषार्थ है, जिसके सम्पादन पर पूज्य गुरुदेव को इस युग का सब से बड़ा मनीषी वैज्ञानिक, दार्शनिक सिद्ध किया जा सकता है। वे स्वयं एक जीती जागती प्रयोगशाला के रूप में चुनौती भरा जीवन जीते रहे। अध्यात्म साधनाएँ पूर्णतः विज्ञान सम्मत है; यह उनने अपने जीवन के माध्यम से प्रमाणित किया। ब्रह्मवर्चस् सम्पन्न आचार्य श्री के अनेकानेक कर्तव्यों में, उनकी 80 वर्ष की जिन्दगी की महत्वपूर्ण उपलब्धियों से जड़े हीरक मालाओं के हार में एक हीरा और जुड़ता है- वैज्ञानिक अध्यात्मवाद की परिकल्पना, उस दिशा में आवश्यक दार्शनिक शोध कर युग साहित्य का प्रस्तुतीकरण तथा एक अत्याधुनिक प्रयोगशाला एवं दुर्लभ ग्रन्थों से सज्जित “ब्रह्मवर्चस् शोध संस्थान” की स्थापना।

इसकी शुरुआत काफी पहले से हो चुकी मानी जानी चाहिए। पूज्य गुरुदेव ने अपने प्रथम “अखण्ड ज्योति” अंकों के साथ सन् 1940 के दशक में ही अध्यात्म मान्यताओं के वैज्ञानिक प्रस्तुतीकरण कार्य आरम्भ कर दिया था। “मैं क्या हूँ” जैसे गूढ़ दार्शनिक विषय पर मनोविज्ञान को आधार बनाकर उनने प्रतिपादित किया था कि व्यक्ति जैसा चाहे, स्वयं को बना सकता है। इस के लिए उसे “ऑटोसजेशन” की तकनीक का आश्रय लेना होगा जो कि मूलतः ध्यानयोग है। बाद में उनने 1947 में दो विशेषांक “वैज्ञानिक अध्यात्मवाद” पर ही प्रकाशित किए, साथ ही एक पुस्तक भी सद्ज्ञान ग्रन्थमाला की इसी विषय पर प्रकाशित की। यह वर्ष था जब भारतवर्ष परतंत्रता के बन्धनों से मुक्त होने जा रहा था। धर्म और अध्यात्म भी मूढ़मान्यताओं, अंधविश्वासों, सड़ी गली परम्पराओं के आवरण में जकड़े किसी देवदूत के द्वारा अपनी मुक्ति चाहते थे ताकि वे नवीन समाज की संरचना का आधार खड़ा कर सकें। उन्हें इस पाश से मुक्त कर विज्ञान का कलेवर प्रदान करने का श्रेय पूज्य गुरुदेव को ही जाता है।

उन दिनों आस्तिकता, तत्वदर्शन, साधना, संयम जैसे विषयों को वैज्ञानिक ढंग से समझाते, हुए उनने उपासना विधियों की उपयोगिता को सुबोध शैली में समझाया। पहली बार जनसाधारण के सम्मुख ऐसा प्रतिपादन आया, जिससे वे प्रेरणा ले सकें कि अध्यात्म मात्र शास्त्र वचन ही नहीं हैं, पूर्णतः उसका पूरा आधार विज्ञान सम्मत भी है। बाद की अखण्ड ज्योति के अंकों में वे शब्द शक्ति की महत्ता, गायत्री के चौबीस अक्षरों का वैज्ञानिक विवेचन, यज्ञ विज्ञान के महत्वपूर्ण पक्षों तथा कुण्डलिनी महाशक्ति के विज्ञान सम्मत आधार पर लिखते रहे। यह क्रम 1967-68 तक चला।

यह समय आते आते उन्हें ऐसा लगा कि अब प्रबुद्ध वर्ग में अखण्ड ज्योति की गहरी पैठ हो चुकी है व प्रबुद्ध पाठक उनके प्रतिपादनों को पसंद कर रहा है। उनने अनुभव किया कि यदि वे इस प्रतिपादन से भरी पूरी और सामग्री अखण्ड ज्योति के पृष्ठों पर देते रहे तो वह वर्ग, जो अध्यात्म साधनाएँ, धर्म-धारणा, कर्मकाण्ड, प्रतीक उपासना आदि नामों से ही कतराता रहा है अथवा मन में उनके संबंध में भ्रान्तियाँ पाले हुए है, भी उनकी बात समझकर इस आलोक का विस्तार कर सकेगा।

इस कार्य के लिए वे श्रेय उन्हीं को देना चाहते थे, उन्हें ही निमित्त बनाना चाहते थे जो विज्ञान की विधाओं से जुड़े थे। अखंड ज्योति पाठक वर्ग में विज्ञान पढ़ने पढ़ाने वाले अध्यापकों की कमी नहीं थी। उनके ही संपर्क में चिकित्सक, इंजीनियर, भौतिकी आदि के ऐसे विशेषज्ञ विद्वान भी थे जिनका चिन्तन प्रत्यक्षवाद, बुद्धिवाद प्रधान था। कहना न होगा कि यही चिन्तन आस्था व श्रद्धा की काट अपने अस्त्रों से करता आ रहा है। पूज्य गुरुदेव ने उन्हीं अस्त्रों को प्रयोग अपने उद्देश्य की पूर्ति हेतु किया।

अपनी निराली शैली में उनने दो सौ चुने हुए विज्ञान की विभिन्न विधाओं से जुड़े व्यक्तियों को बसंत पर्व 1968 पर पत्र लिखें कि वे उनके माध्यम से अखण्ड ज्योति के लिए मानव मात्र के कल्याण के लिए आ चुके इस उत्तरार्ध में भी विज्ञान विषय का अध्ययन करना चाहते हैं। उन सभी रसायनशास्त्र, जैविकी, मनोविज्ञान, भूगोल, अंतरिक्ष विज्ञान, आणविक भौतिकी, वैद्युतिकी, भूगर्भशास्त्र, नृतत्वविज्ञान, समाजशास्त्र जैसे विषयों पर विशद विवेचना करने वाले नोट्स मंगाए गये थे। विषय का खुलासा उनने अखण्ड ज्योति में प्रकाशित अपने उद्बोधन में कर दिया था कि “विज्ञान और बुद्धिवाद की मान्यताओं ने मानवीय आदर्शवादिता को गहरा आघात पहुँचाया है और साँस्कृतिक मूल्यों के विनाश का गहरा संकट आ खड़ा हुआ है। जड़ परमाणुओं से चेतना जन्म लेती हैं, मानवीय अस्तित्व एक संयोग मात्र है, आत्मा का स्वतंत्र कोई अस्तित्व नहीं- शरीर के साथ ही जीवन समाप्त हो जाता है, कर्मफल की दण्ड व्यवस्था नाम की किसी चीज का अस्तित्व है नहीं, प्रकृति प्रेरणा का अनुसरण ही जीव का स्वाभाविक धर्म है, कामवृत्ति की तृप्ति आवश्यक है, उसे रोकने से कांप्लेक्सेस पैदा होते हैं व माँसाहार विज्ञान सम्मत है, किसी की पीड़ा का कोई महत्व नहीं- इन प्रतिपादनों ने मनुष्य को बंदर से विकसित हुआ एक नर पशु मात्र बना दिया है। नैतिक और सामाजिक उच्छृंखलताओं का कारण यही आस्था संकट है। इससे जूझने के लिए विज्ञान के अस्त्रों का ही प्रयोग करना होगा। नोट्स इसी आधार पर मंगाये गये थे। प्रत्येक विषय की विशद गूढ़ सामग्री से भरे फुलस्केप पन्नों पर लिखे नोट्स मथुरा आने लगे। लगभग बीस हजार से अधिक पन्ने विभिन्न विषयों पर एकत्रित हो गए।

यह एक अनसुलझी गुत्थी है कि कब कैसे उन सभी नोट्स का अध्ययन किया गया होगा क्योंकि कुछ ही माह बाद सभी ने देखा कि अखण्ड ज्योति की प्रतिपादन शैली धारदार तर्कों द्वारा आस्तिकता के तत्वदर्शन की काट करने वाले पक्षों पर एक दूसरा ही विवेचन प्रस्तुत करने लगी थी। सभी आधार विज्ञान सम्मत थे व लगने लगा था कि अभी तक सोचा जा रहा ढर्रा गलत था। 1969 में प्रकाशित कुछ लेखों के शीर्षक दृष्टव्य हैं लोकोत्तर जीवन विज्ञान-भूत भी, धर्मरहित विज्ञान हमारा विनाश करके छोड़ेगा, बिन्दु में समाया सिन्धु नास्तिक दर्शन पर वैज्ञानिक आक्रमण, आत्मा के अस्तित्व का प्रमाण-भूत, परलोक और पृथ्वी-कितने दूर कितने पास, जीवकोषों के मन और मानसोपचार, अन्तरिक्ष के सूक्ष्म शक्ति प्रवाह इत्यादि।

पूज्य गुरुदेव की लेखनी से उद्भूत इन सरस प्रतिपादनों को पढ़कर वैज्ञानिक वर्ग को, बुद्धिजीवी वर्ग को लगा कि अध्यात्म तो प्रगतिशील है, विज्ञान सम्मत है। अभी तक की उनकी सारी मान्यताएँ धराशायी हो रही थीं। इस बीच गुरुदेव के दौरे जहाँ जहाँ हुए वहाँ मेडिकल कॉलेज, पी.जी. कॉलेज, ऑडिटोरियमों में उनने प्रत्येक स्थान पर बुद्धि जीवियों को संबोधित कर उनको इस आँदोलन में सम्मिलित होने का आह्वान किया। एक नया वर्ग देखते देखते जुड़ता चला गया व पूज्य गुरुदेव की शान्तिकुँज में आरम्भ की गयी सत्र श्रृंखला में बड़ी संख्या में दर्शन एवं विज्ञान विषय की विभूतियाँ सम्मिलित होकर स्वयं को धन्य मानने लगी। परलोक, पुनर्जन्म, कर्मफल अतीन्द्रिय सामर्थ्य, सिद्धियाँ, साधना उपचार, कुण्डलिनी अष्टचक्र, अंतरंग में विद्यमान विराट संभावनाएं मंदिर-मूर्ति-शिखा सूत्र-तिलक-संख्या-पूजा अग्निहोत्र जन-व्रत आदि का वैज्ञानिक प्रस्तुतीकरण हजारों ऐसे व्यक्तियों को खींचकर प्रज्ञापरिवार में सम्मिलित कर रहा था जो पहले इन नामों से बिदकते थे।

“वैज्ञानिक अध्यात्मवाद” की इस नई चिन्तन धारा ने 70 से 90 के दो दशकों में पूरे भारत व विश्व में एक व्यापक उथल पुथल मचाई एवं शोध का एक नया आयाम ही खोल दिया। साधना का वैज्ञानिक स्वरूप प्रस्तुत कर पूज्य गुरुदेव ने अनेकों बुद्धिजीवियों को प्राण प्रत्यावर्तन जीवन साधना, साधना स्वर्ण जयन्ती, कुण्डलिनी जागरण, उच्चस्तरीय गायत्री साधना सत्रों में सम्मिलित कर उनका आत्मबल बढ़ाया व इस योग्य बनाया कि वे आस्था संकट से मोर्चा ले सके॥ इस लिए सभी प्रतिपादनों का सारगर्भित पहला संकलन 1978-79 में 42 पुस्तकों के एक सेट के रूप में तथा दूसरा संकलन 1984-85 में 25 पुस्तकों के एक सेट के रूप में प्रकाशित हुआ।

सबसे महत्वपूर्ण स्थापना 1978-79 में हुई जब उनने कणाद ऋषि की तपःस्थली में भागीरथी के तट पर ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान की स्थापना की। शांतिकुंज से लगभग आधा किलोमीटर दूरी पर विनिर्मित यह संस्थान स्वयं में अनूठा है। यहाँ बौद्धिक अनुसंधान व वैज्ञानिक प्रयोग परीक्षण का क्रम जून 79 से आरंभ हुआ। नवयुग के अनुरूप तत्वदर्शन के निर्माण हेतु युग मनीषी का आह्वान किया गया एवं दुर्लभ ग्रन्थों से भरा एक ग्रंथालय विनिर्मित हुआ जिसमें विज्ञान व अध्यात्म के समन्वयात्मक प्रतिपादनों पर खण्डन व मण्डन करने वाले दोनों ही पक्षों की विभिन्न विषयों की पुस्तकों एवं पत्रिकाओं अनुसंधान निष्कर्षों तथा शोध ग्रन्थों का विश्वभर से संकलन किया गया। उद्देश्य एक ही था विज्ञान की सहायता से श्रेष्ठता के समर्थन एवं भविष्य निर्माण के लिए सुदृढ़ आधार खड़े करना। युग परिवर्तन के नये आयाम तलाश करने के लिए भविष्य विज्ञान, सर्वधर्म समभाव एवं देव संस्कृति पर शोधकार्य भी इसी के साथ हाथों में लिए गये। अपने ही परिवार में से उच्च शिक्षित पदार्थ विज्ञान, चिकित्साशास्त्र एवं अन्यान्य विधाओं में निष्णात ऐसे नररत्न निकल कर आ गए जिनने स्थायी रूप से यहीं रहकर अथवा कुछ समय नियमित रूप से इस कार्य के लिए देते रहने का संकल्प लिया। दार्शनिक शोध का क्रम चल पड़ा एवं दिसम्बर 1979 व जनवरी 1980 में आयोजित तीन सत्रों में बुद्धिजीवी वर्ग चिन्तन को पूज्य गुरुदेव ने भलीभाँति मथा।

प्रत्यक्ष प्रमाणों की प्रस्तुति प्रयोगशाला की आवश्यकता और थी जहाँ यह प्रतिपादित किया जा सके कि अध्यात्म उपचारों को अपनाने से काया की जीवनीशक्ति बढ़ती है, मनोबल व आत्मबल में वृद्धि होती है। तनाव का शमन होता है। एवं रोगों के होने की संभावनाएं समाप्त हो जाती है। चिकित्सा वान, मनोविज्ञान एवं पदार्थ विज्ञान को सम्मिलित एक ऐसी प्रयोगशाला 1984 तक बनकर खड़ी हो गई जिसमें कल्प साधकों, युगशिल्पी साधकों तथा आहार नियमन, जप-अनुष्ठान, वर्णों का अध्यापन, नादयोग, त्राटक आदि सम्पादित करने वाले व्यक्तियों पर प्रयोग परीक्षण आरंभ हो गए। गायत्री मंत्र की शब्द शक्ति एवं यज्ञ के रूप में पदार्थ की कारण शक्ति की शोध इस संस्थान की निराली विशेषता है। अन्यान्य विषयों पर तो अनुसंधान अब विश्व की कुछ प्रयोगशालाओं में आरंभ भी हो चुके है किन्तु मंत्रशक्ति की प्रभावोत्पादकता, ध्वनि वान का विश्लेषणात्मक अध्ययन एवं यज्ञ की भौतिकीय व रासायनिक आधार पर विशद विवेचना संभवतः इसी संस्थान की विज्ञान जगत को देन है।

गैस लिक्विड क्रोमेटोग्राफी, फ्रैक्शनल डिसटिलेशन एवं साल्वेन्ट एक्सट्रैक्शन के माध्यम से यहाँ वनौषधियों की गुणवत्ता की प्रमाणित की जाती है। व यह भी बताया जाता है कि उनका सूक्ष्मीकृत रूप में चूर्ण, क्वाथ-फाण्ट या वाष्पीभूत अग्निहोत्र धूम्र के रूप में प्रयोग समग्र स्वास्थ्य के लिए लाभकारी (होलिस्टिक हीलिंग) है। मंत्रों के उच्चारण व श्रवण का शरीर के अंग-प्रत्यंगों पर क्या प्रभाव पड़ता है तथा विभिन्न वर्णों (स्पेक्ट्रम के सात रंग) व प्रकाश ज्योति का ध्यान किस तरह से शरीर की विद्युत को प्रभावित कर उसे सुनियोजित करता है, इसे मल्टीचैनेल पॉलीग्राफ, बायोफीडबैक, इलेक्ट्रोएन के फेलोग्राफी, इलेक्ट्रोकार्डियोग्राफी, तथा साइकोमेट्री के उपकरणों से देखा-परखा जाता है। रक्त के श्वेतकण व विभिन्न हारमोन्स, एन्जाइम्स, जीवनीशक्ति बढ़ाने वाले द्रव्यों तथा फेफड़ों की रक्त शोधन प्रक्रिया को प्राणायाम, आसन, मुद्राएं बन्ध ध्यान तथा आहार संयम कैसे प्रभावित करते है, इसके लिए यहाँ स्पेक्ट्रोफोटोमीटर, इलेक्ट्रोफोरेसिस ऑटोएनालाईजर, स्पायरोमेट्री आदि के प्रयोग परीक्षण होते है। सारे यंत्रों का विश्लेषण कम्प्यूटर्स द्वारा किया जाता है।

अभी तक संपन्न शोधकार्य एवं पूज्य गुरुदेव द्वारा निर्देशित भावी शोध संकल्पनाओं को शीघ्र ही पुस्तकाकार एवं बुलेटिन के रूप में प्रकाशित करने की योजना है ताकि जन जन तक यह जानकारी पहुँच सके कि अध्यात्म साधनाओं का अवलम्बन घाटे का सौदा नहीं व जो लाभ होता है वह पूर्णतः वान सम्मत है, प्रत्यक्षवाद की कसौटी पर प्रमाणित किया जा सकता है। देवसंस्कृति के निर्धारण मात्र कपोल कल्पना नहीं है वरन् तथ्यों पर आधारित है, यह देखकर नयी पीढ़ी, बुद्धिवादी समुदाय को भी आश्वासन मिलेगा कि एक ऐसा संस्थान है जो मात्र इसी कार्य को समर्पित है।

पूज्य गुरुदेव ने सतयुग कालीन ऋषि श्रेष्ठों की तरह से जो वैज्ञानिक भी हुआ करते थे समय समय पर 1984 तक स्वयं ब्रह्मवर्चस जा जाकर व तत्पश्चात शोधकर्ताओं का मार्गदर्शन कर एक ऐसा सुदृढ़ आधार खड़ा कर दिया है कि दार्शनिक विवेचनाओं एवं वैज्ञानिक आँकड़ों के माध्यम से वह सारा प्रतिपादन अब प्रस्तुत करना संभव है जो नव युग की आधार शिला रखेगा। विज्ञान व अध्यात्म का समन्वय एक समुद्र मंथन के समान इस युग में संपन्न हुआ पुरुषार्थ कहा जा सकता है। समुद्र मंथन से निकले चौदह रत्नों की तरह इस शोध-अनुसंधान से उद्भूत निष्कर्ष आने वाले समय में जन-जन का मार्गदर्शन करेंगे, जीवन जीने की शैली दिखायेंगे तथा उज्ज्वल भविष्य का पथ प्रशस्त करेंगे।

पूज्य गुरुदेव स्वयं को कलम का सिपाही एक विनम्र लोकसेवी तथा ऋतम्भरा प्रज्ञा के आराधक कहते रहे। यह सब तो उनके जीवन का अंग है।

किन्तु इन सबसे भी कुछ अधिक व सशक्त रूप में स्वयं “वर्चस” सम्पन्न एक ऐसे “ब्रह्मर्षि” का जीवन उनने जिया जिसे एक अन्वेषक तत्वदर्शी या वैज्ञानिक मनीषी द्वारा जिया माना जाना चाहिए। ब्रह्मवर्चस् उस तत्वदर्शन की शोध का उत्तरार्ध है जो उनने स्वयं चौबीस लक्ष के चौबीस गायत्री महापुरश्चरण कर अपनी काया में जीवन के प्रारंभिक काल में आरंभ की थी। दृश्य रूप में तो उत्तरार्ध का पटाक्षेप हो गया है, प्राणों का महाप्राण में विसर्जन हो चुका है किन्तु उनकी परोक्ष सामर्थ्य शीघ्र ही शोध निर्धारणों को विश्वमानस के समक्ष प्रतिष्ठित करेगी।


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