पवित्र जीवन

गायत्री मंत्र का बारहवाँ अक्षर 'व' मनुष्य को पवित्र जीवन व्यतीत

करने की शिक्षा देता है-
वसतां ना पवित्र: सन् बाह्यतोSभ्यन्तरस्तथा ।
यत: पवित्रताया हि रिजतेSति प्रसन्नता ।।

अर्थात्- ''मनुष्य को बाहर और भीतर से पवित्र रहना चाहिए
क्योंकि पवित्रता में ही प्रसन्नता रहती है ।''
पवित्रता में चित्त की प्रसन्नता शीतलता शान्ति निश्चिन्तता प्रतिष्ठा 
और सचाई छिपी रहती है । कूड़ा-करकट मैल-विकार, पाप, गन्दगी,
दुर्गन्ध सड़न अव्यवस्था और घिचपिच से मनुष्य की आन्तरिक निकृष्टता
प्रकट होती है ।

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