प्रतिबंध रहित गायत्री एवं मुक्त यज्ञ

August 1990

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महाकुम्भ 1977 का प्रसंग है प्रयाग में काँची कामकोटि पीठ के शंकराचार्य स्वामी जयेन्द्र सरस्वती ने पूज्य गुरुदेव के विषय में अपने उद्गार व्यक्त करते हुए कहा था, “आचार्य जी ने गायत्री को जन-जन तक पहुँचाने के लिए भागीरथी प्रयत्न किया है। उनका एकाँकी पुरुषार्थ सारे संत समाज की सम्मिलित शक्ति के स्तर का है। “शंकराचार्य की इस सम्मति पर वहाँ उपस्थित संतजन विस्मित हुए क्योंकि अब तक तो चारों मठों के शंकराचार्य गुरुदेव की आलोचना ही करते आए है। वह भी मात्र इसलिए कि उनकी राय में गायत्री मंत्र की दीक्षा द्विजों को ही दी जानी चाहिए। अन्य वर्ण लोगों को यह अधिकार दिए जाने पर वे सभी बड़ा कट्टरपंथी रुख रखते आये है।

स्त्रियों के गायत्री अधिकार के विषय में भी अन्य संत-महात्मा-महामण्डलेश्वर एक तरफ हैं एवं पूज्य गुरुदेव एक तरफ। पूज्यवर की प्रारम्भ से ही यह मान्यता रही कि गायत्री व यज्ञ भारतीय संस्कृति के मानव मात्र को दो दिव्य अनुदान-वरदान है। किसी को भी जाति व लिंग, वर्ण का भेद किए गायत्री को जपने व यज्ञ कार्य करने का पूरा अधिकार है। अपने विरोध में क्या कहा जा रहा है, इसकी उनने जीवन भर परवाह नहीं की। जब काँची के शंकराचार्य की उपरोक्त अभिव्यक्त व पं श्रीराम शर्मा आचार्य की प्रशंसा कुम्भ में पधारे पण्डितगणों ने सुनी तो सुनने वालों को चौंकना स्वाभाविक था। पूछने वालों ने प्रश्न किया-” आचार्य जी ने क्या शास्त्रों की अवहेलना कर जिस तिस को गायत्री दीक्षा नहीं दी? क्या यह उचित है? “ इस पर संत श्री का कहना था कि “शास्त्र विधि शास्त्र के अनुशीलन से निर्धारित होती है, शास्त्र को शस्. बना लेने से नहीं। आचार्य जी ने जो भी किया, वह शास्त्र सम्मत ही था”,

बात अपनी जगह बिल्कुल सही थी। जिन लोगों ने गायत्री और यज्ञ को जन सुलभ बनाने के लिए गुरुदेव को पानी पी पीकर कोसा, वे शास्त्रों का उपयोग हथियार बनाकर ही कर रहे थे। अन्यथा पाँचवे दशक में ही गायत्री महाविज्ञान, गायत्री ही कामधेनु है, स्त्रियों का गायत्री अधिकार आदि पुस्तकों में शास्त्रीय उद्धरणों एवं प्रमाणों से यह सिद्ध कर दिया गया था कि गायत्री और यज्ञ सबके लिए है। इसके लिए किसी भी संस्तुति की गुरुदेव ने कभी अपेक्षा नहीं की, न ही अपनी प्रगति यात्रा में इन व्यवधानों से कभी रुके।

यह बात सही है कि द्विजों को ही गायत्री का अधिकार है। लेकिन द्विज कौन से? शास्त्रीय प्रमाणों से पूज्य गुरुदेव ने समझाया कि द्विज वह जिसका दूसरा जन्म हुआ हो। जन्म से तो सभी शूद्र होते हैं, द्विजत्व तो अर्जित किया जाता है। एक जन्म माता-पिता द्वारा होता है। यह काया का जन्म है। दूसरा जन्म आत्मिक है और यह गायत्री और यज्ञ रूपी सद्ज्ञान व सत्कर्म के समन्वय से सम्भव होता हैं गायत्री माता है व यज्ञ पिता। यह भारतीय संस्कृति का निर्धारण है। जिसने इस दोनों की सन्निथि में आत्मिक प्रगति की स्फुरणा होती और दिशा मिलती अनुभव की, वह द्विज है। यही शास्त्रोक्त व तथ्य सम्मत प्रतिपादन है। इन प्रतिपादनों से प्रतिगामियों व विरोध के लिए विरोध करने वालों, स्वार्थ पर जिनकी चोट पड़ती हों, उन्हें क्या लेना-देना। ऐसे लोगों ने तरह तरह की अफवाहें व प्रत्यक्ष विघ्न भी उत्पन्न किया लेकिन?

गुरुदेव इन अवरोधों से बिना प्रभावित हुए कभी रुके नहीं, चलते रहे।

गायत्री तपोभूमि की स्थापना के बाद पहली बार जब उनने दीक्षा देना आरम्भ किया, वे दीक्षार्थियों से कुछ व्रत-नियमों का पालन करने के लिए कहने लगे। नियमित गायत्री जप, सात्विक रहन सहन, अभक्ष्य भक्षण त्याग के मूल में जो उद्देश्य था, वह यही कि दीक्षा लेने वाला आचार शुद्धि, आत्मशोधन के महत्व को समझ कर अपने को दिनों दिन परिष्कृत करता चले। जो भी इन नियमों का पालन करने को तत्पर दीखता, वह चाहे जिस जाति या लिंग का हो, उसे वे बेरोक-टोक दीक्षा देते। दीक्षा की यह प्रक्रिया जब गति पकड़ती गई तो लाखों लोगों गायत्री मंत्र की प्रेरणा को, सद्बुद्धि को अपने अंदर धारण कर लिया और ब्रह्मलोक से अवतरित हंस कामधेनु का पयपान कर भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों ही क्षेत्रों में प्रगति का लाभ लेने लगे। ऐसे व्यक्तियों जिनने प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से गुरुदेव से मंत्र दीक्षा ग्रहण की व इन दिनों गायत्री मंत्र की प्रेरणाओं को अपने जीवन में उतार कर जीवन जी रहे है, संख्या लगभग पाँच करोड़ से अधिक है। कितनी बड़ी सेवा मानव समुदाय की वे अपने जीवित रहते कर गए व अब सौ गुना अधिक व्यक्तियों को सद्बुद्धि की प्रेरणा देने का संकल्प लेकर गए हैं, वह पूरी होने पर निश्चित ही नव युग की संभावनाओं को साकार देखा जा सकेगा, इसके कोई सन्देह नहीं है।

उनने समाज की जो सेवा की, उनका मूल्याँकन लोग प्रशस्ति से नहीं, ऐसे ब्राह्मणत्व सम्पन्न व्यक्तियों के उद्गारों से किया जाना चाहिए जिनने स्वयं वैसा जीवन जिया है। काँची के शंकराचार्य की चर्चा ऊपर हो चुकी। आर्य समाज के प्रधान रहे महात्मा आनन्द स्वामी गुरुदेव को अत्यधिक स्नेह भी करते थे एवं सम्मान भी। वे जब गायत्री की प्रतिभा की प्रतिष्ठा करने वाले ऐ आर्य समाजी पूज्य गुरुदेव के संस्थान गायत्री तपोभूमि के पधारे तो उनने उपस्थित जनसमुदाय को खरी-खोटी सुनाते हुए गायत्री को सार्वभौम बनाने के उनके प्रयासों की भूरि-भूरि सराहना की थी। अपने ही प्रमुख व सम्माननीय महात्मा के उद्गार संभवतः उपस्थित कट्टर पंथियों को कड़ुए लगे होंगे पर उनमें वास्तविकता थी क्योंकि वे दुष्टा की नजरों में जो महामानव का मूल्याँकन होता है, उसी की अभिव्यक्ति कर रहे थे। बाद में अपने महानिर्वाण से कुछ वर्ष पूर्व जब महात्मा आनन्द स्वामी हरिद्वार पधारे तो स्वयं गायत्री माँ की मूर्ति को नमन कर अपने प्रतीक पूजा की। एकपक्षीय व्याख्या करने वालों को चुनौती दे डाली। उनने उपस्थित सभी श्रोताओं को बताया कि सृष्टि का नवसृजन जिस सत्ता ने किया है, उसी ने गायत्री परिवार व युग निर्माण योजना के सूत्रधार के रूप में जन्म लिया है। पूज्य गुरुदेव ने बड़ी विनम्रतापूर्वक मंच से कहा कि वे महाकाल के प्रतिनिधि मात्र है, किन्तु उपस्थित श्रोता मुग्ध थे, यह जानकर कि वे कैसी सत्ता के सान्निध्य में है।

यज्ञों के लिए यजन कर्ताओं की कभी जाति-पाँति नहीं, पूछी गयी। जहाँ भी आयोजन होता वहाँ निर्धारण के समय ही निर्देश दे दिये जाते कि यज्ञ में सम्मिलित होने वाले पहले कुछ साधनात्मक उपचार कर लें। गायत्री का लघु अनुष्ठान, चौबीस हजार मंत्रों का जाप नौ दिन तक संयम नियम से रहना। यदि लघु अनुष्ठान संभव न हो तो गायत्री चालीसा का चौबीस सौ पाठ। इतना भी न हो सके तो मंत्र लेखन ही पर्याप्त है। पंचाक्षरी ॐ भूर्भुवः स्वः का जप भी जो कर ले उसे भी वे यज्ञ की पात्रता दे देते थे। मात्र वनौषधियों से होने वाले इन यज्ञों में पहले दिन कलश यात्रा इसी तथ्य की घोषणा करती थी कि सभी स्त्री पुरुषों को यज्ञ में सम्मिलित होने का अधिकार है। ब्राह्मण व्यक्ति अपने कर्मों से बनता है, जन्म से नहीं होता।

यह एक क्रान्तिकारी आँदोलन था, संभवतः पिछले सभी समाज सुधारकों से भी अधिक प्रचण्ड स्तर का क्रान्तिकारी, युगान्तरकारी।

मथुरा का 107 कुण्डी महायज्ञ जब 1956 में सम्पन्न होने जा रहा था तब मथुरा के कई पण्डों ब्राह्मणों ने विरोध किया। उनने सभी तरह की तरकीबों से विघ्न पहुँचाने का प्रयास कर लिया। जब इनका एक प्रतिनिधि मण्डल पूज्य गुरुदेव से मिलने आया तो उनने उनका सम्मानपूर्वक स्वागत कर बिठाया, प्रत्येक को दुशाला, दक्षिणा दी व उनकी बात को बिना किसी प्रतिरोध के सुना। उनके इस व्यवहार से ही अपनी बात कहकर जाने वाले उन्हीं ब्राह्मणों में से कुछ कभी बिगाड़ नहीं पाया व इसके बाद अभूतपूर्व स्तर का 1007 कुण्डी महायज्ञ भी उनने सम्पन्न किया व लाखों ने उसमें भाग लिया। यह एक योद्धा, युग परिवर्तन को कृत संकल्प व्यक्ति का ही कर्तृत्व हो सकता था कि उसने यज्ञ जैसे पुनीत कार्य को जनसुलभ, सब के लिए बना दिया। अध्यात्म में गतिशील साम्यवाद लाने का श्रेय किसी को जाता है तो पूज्य गुरुदेव को।

मथुरा से बाहर सुदूर क्षेत्रों में भी उनका कम विरोध नहीं हुआ। कई व्यक्ति भ्रान्तियाँ फैला देते कि जहाँ आचार्य जी यज्ञ करने जा रहे हैं, वहाँ अनिष्ट ही अनिष्ट होने वाला है क्योंकि गायत्री मंत्र कीलित है। इसे कोई सिद्ध ब्राह्मण ही जप सकता है। ऐसे विघ्नों को कोई प्रभाव जनसमुदाय पर नहीं पड़ा क्योंकि वे उनका साहित्य पढ़कर पहले ही अपने अज्ञान के स्थान पर सद्ज्ञान की प्रतिष्ठापना कर चुके थे। कुछ व्यक्ति जो सभा में विघ्न फैलाने या शास्त्रार्थ करने की धमकी से आते उन्हें वे पहले सुनने को कहते व अपने प्रवचन में ही कुछ ऐसा कह देते कि न केवल उस का समाधान हो जाता, उनका आध्यात्मिक कायाकल्प भी हो चुका होता था। वे कहते कि “गायत्री तो वेदमाता है, जगज्जननी है, ज्ञान स्रोत है, मातृ स्वरूप है, सद्बुद्धि की अधिष्ठात्री देवी है। वह कैसे अपनी संतान का अहित कर सकती है। वह कुपित भी नहीं होती व अपना आँचल पकड़ने वाले को कभी मझधार में भी नहीं छोड़ती।” लाखों व्यक्ति उन्हें सुनकर उनके होते चले गये।

अब तो परम्परावादी आचार्य, महामण्डलेश्वर तक गुरुदेव के गायत्री व यज्ञ की दिशा में किये गये कार्य की महत्ता को स्वीकारते व सराहते हैं। इस संदर्भ में स्वामी करपात्री जी की सम्मति उल्लेखनीय है। वे बड़े कट्टर पंथी माने जाते है पर अपनी मान्यताओं के प्रति हठी इन्हीं करपात्री जी ने 1974 में हरिद्वार में कुम्भ में कहा था कि “श्रीराम शर्मा आचार्य जी ने गायत्री को सब की बना दिया। मेरी अपनी दृष्टि में यह बात मैं आज भी मानता व कहता हूँ कि यह ठीक नहीं है। लेकिन इतना तो मानना ही पड़ेगा कि गायत्री सबकी होने के बाद लुप्त होने से बच गयी। यदि इसे ब्राह्मणों के भरोसे छोड़ दिया जाता तो कौन इसे याद रखता?”

स्वामी अखण्डानन्द जी जो करपात्री जी के गुरु भाई थे, ने दिल्ली के लक्ष्मीनारायण मन्दिर में अक्टूबर 1978 में चली प्रवचन माला में कहा था कि “जो गायत्री का गंगाजल की तरह सेवन करना चाहते हों, वे आचार्य जी का मार्ग अपनाएँ। वह आसान है और निरापद भी। आचार्य जी ने तो यज्ञ को भी देवदर्शन की तरह सुलभ कर दिया।”

क्या इसके बाद भी किन्हीं और की सम्मति आवश्यक है?


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