महात्मा गाँधी ने स्वतंत्रता आँदोलन के लिए आरम्भ किये गये अनेकानेक कार्यक्रमों के साथ एक प्रौढ़ शिक्षा का कार्यक्रम भी चलाया था। देशभर में उन दिनों स्थान-स्थान पर ये पाठशालाएं चल पड़ी थीं और कहीं स्थायित्व रहा कि नहीं, जानकारी नहीं किंतु पूज्य गुरुदेव ने न केवल उसे अपने घर से आरम्भ कर दिया, इस योजना को अपनी शतसूत्री युग निर्माण योजना में स्थान दिया तथा प्रज्ञा संस्थानों में बालसंस्कारशालायें व प्रौढ़ पाठशालाएँ चलवायीं। जब वे मात्र बाईस वर्ष के थे, अपने घर में अपनी माँ व उनकी उम्र की अन्य महिलाओं, जिनमें मुस्लिम भी थीं, को अक्षरज्ञान व हिंदी, उर्दू, संस्कृत की जानकारी देने लगे थे। उनके गाँव में यह चर्चा का विषय था कि पण्डित जी के घर स्कूल चलता है जिसमें श्रीराम मत्त जी बड़े-बूढ़ों को पढ़ाते हैं। हिंदू, मुस्लिम सद्भाव बनाये रख साक्षरता का समान भाव से शिक्षण उनकी विद्या विस्तार की भावी योजना का ही एक अंग था।
इतनी लम्बी जीवन यात्रा में पूज्य गुरुदेव की न जाने कितनों से मित्रता हुई व स्वाभाविक है कि अध्यात्म क्षेत्र में मिली लोकप्रियता व कीर्ति को देखते हुए कुछ विरोधी भी बने। जब चौक आर्य समाज मथुरा के प्रधान से त्यागपत्र देकर वे गायत्री तत्वज्ञान प्रतिपादन करते हुए मंदिर की स्थापना करने के लिए उद्यत हुए तो स्वाभाविक था कि आर्यसमाजी उनका विरोध करें। गुरुकुल काँगड़ी हरिद्वार के तत्कालीन कुलपति रामनाथ वेदालंकार उनसे मिलने आए व कहा कि -”आपने आर्य समाज को क्यों छोड़ दिया? सभी आपके मूर्तिपूजा पक्ष की आलोचना करते हैं।” गुरुदेव ने कहा कि-”आर्य समाज मेरे रोम-रोम में बसा है। मैंने तो सनातन धर्म एवं आर्य समाज का समन्वय कर स्वामी दयानन्द जी के काम को आगे ही बढ़ाया है। जबकि उधर आर्य समाज परस्पर विवादों, अंतः संघर्षों से घिरा हुआ है। हिंदू धर्म को आज समन्वित स्वरूप की आवश्यकता है। इस भूख को आप मुझे मिले जन-सहयोग को देखकर समझ सकते हैं।” वे निरुत्तर थे।
वस्तुतः एक ब्रह्मास्त्र उनके पास था-”उपेक्षा” लड़कर विवाद कर अपनी बात का प्रतिपादन करने की अपेक्षा जो आलोचना करता है, उसकी उपेक्षा करने पर वह स्वतः समाप्त हो जाता या पुनः उनका अपना बन जाता।
सर्वाधिक दुष्कर काम यदि कोई है तो स्वयंसेवक बनना। कारण कि इस साधना में अपने अहं को पूर्णतया गला डालना जो अनिवार्य है। इस अनिवार्यता को उन जैसे कोई विरले ही निभा पाते हैं। आगरा में काँग्रेसी कार्यकर्ताओं का बृहद् सम्मेलन था। स्वर्गीय बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ आए हुए थे। सम्मेलन में कार्यक्रम की समाप्ति पर श्री कृष्णदत्त पालीवाल जी ने ‘नवीन’ जी को सभी का परिचय देना शुरू किया। एक के बाद अनेक लोगों का परिचय देते हुए तरुण श्रीराम की बारी आयी। उनके सामने रुककर तनिक गौरवपूर्ण स्वर में पालीवाल जी ने कहा- यह है हमारे यहाँ के स्वयं सेवक श्रीराम मत्त। “बाकी सब” नवीन जी ने पूछा। “वे कार्यकर्ता है।” उनका जवाब था। स्वयंसेवक शब्द में छुपे पदार्थ और गरिमा को समय प्रौढ़ वय के नवीन जी तरुण श्रीराम के चरणों में झुक पड़े। उनके द्वारा किया गया यह सम्मान अहं विसर्जन करने वाले साधक का सम्मान था।