उभरता उत्साह इसका प्रत्यक्ष साक्षी (Kahani)

August 1990

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महायोगियों की संपर्क डोर स्थूल से परे सूक्ष्म और कारण की गहराइयों में उन्हें परस्पर जोड़ती हैं। बाह्य रूप से अपरिचित दिखते हुए वे एक दूसरे से कितना घनिष्ठ होते हैं यह उस समय स्पष्ट हुआ जब एक कार्यकर्ता प्राँत के तत्कालीन पी.डब्लू.डी. मिनिस्टर के साथ देवरहा बाबा के दर्शन हेतु गय। बाबा उन दिनों वृन्दावन में मचान बनाकर रह रहे थे पूज्य गुरुदेव उस समय अपनी मार्गदर्शक सत्ता के बुलावे पर सन् 1971) में हिमालय प्रवास पर गये हुए थे।

कार्यकर्ता जैसे ही मचान के पास पहुँचा देखा दो मंत्री और खड़े हैं। बाबा थोड़ी देर बाद अन्दर से निकले और एक सेवक से उसे बुलाने को कहा। सेवक ने समझा किसी मंत्री को बुलाना हैं। उसके इस तरह भ्रमित होने पर दूसरे सेवक को भेज कर उसे बुलाया। पास पहुँचने पर बड़े प्रेम से आश्वासन देते हुए पूछा आचार्य जी हिमालय गये। उसके हाँ कहने पर समझने लगे उनके काम में पूरी तरह तन मन न्यौछावर करना। तुम अभी नहीं जानते वह कौन हैं समय पर जानोगे। फिर हँसने लगे हँसी थमने पर मुस्कराते हुए बोले उनके काम तो अपने आप होते हैं तुम लोग तो कठपुतलियाँ हो। कार्यकर्ता चकित भाव से महायोगियों की पारस्परिक घनिष्ठता अनुभव करता रहा।

अपनापन जहाँ पर जितना अधिक विस्तार करता है, लोक श्रद्धा वहाँ उतनी ही अधिक पल्लवित होती है। अहमदाबाद शक्ति पीठ के उद्घाटन अवसर पर पूज्य गुरुदेव के स्वयं के ये भाव साकार हो रहे थे जनसमूह उमड़ पड़ा था। आयोजन में क्षेत्र विभिन्न गणमान्य व्यक्तियों के अतिरिक्त गुजरात सरकार के तीन मंत्री भी उपस्थित थे। गुरुदेव ने अपने प्रवचन के दौरान हंसते हुए कहा ‘मेरे पास बहुत पैसा है। कहाँ? यह नहीं बताऊंगा”। फिर विनोद भरे स्वर में बोले “बता दूँगा तो इनकम टैक्स वाले छापा नहीं मारेंगे? कहो तो बता दूँ।” थोड़ा रुक कर कहा “मेरा पैसा है आप लोगों की जेब में है जब चाहता हूँ निकाल लेता हूँ।”

प्रवचन की समाप्ति पर विनोद पूर्ण माहौल में एक मंत्री महोदय हंसते हुए बोल पड़े “आज एक बात समझ में आयी आचार्य जी कहो तो बोलूँ। कहिए-गुरुजी ने मुसकराते हुए कहा। “देश की जनता के प्रशासन का केन्द्र भले दिल्ली हो पर उसके दिलों का केन्द्र आप है मंत्री जी ने कहा हंसी में कही गई यह बात न केवल उनके जीवन काल में प्रत्यक्ष होती रही, बल्कि अब और भविष्य में प्रत्यक्ष होती रहेगी। यह और कुछ नहीं उनके अपनेपन से उपजी लोक श्रद्धा की परिणति।

अगले दिनों जब शांतिकुंज से सम्बंधित नवनिर्माण में योगदान करने वालों का इतिहास लिखा जायेगा, तो हो सकता है कि उस प्रकाशन में मात्र पहली पीढ़ी की ही नहीं, वरन् उन पद चिह्नों पर चलने वाली दूसरी-तीसरी पीढ़ी भी अपने को गौरवान्वित अनुभव करे।

.शान्तिकुँज एक शक्ति केन्द्र के रूप में उभरा है। यह किसी व्यक्ति विशेष की योजना, क्षमता एवं प्रयत्नशीलता भर की प्रतिक्रिया नहीं हैं। इसका सूत्र संचालन वह दैवी सत्ता कर ही है जिसने असंतुलन को संतुलन में बदलने के लिए आदि काल में ही प्रतिज्ञा की थी और अब तक वह आश्वासन ठीक प्रकार निभता चला आया है। शान्तिकुँज-उद्भव में उसी की भावना एवं संरचना अीरती हुई देखी जा सकती है और दृष्टिवानों को आश्वासन दिलाती है कि पूर्व दिशा में उदय हुआ स्वर्णिम सूर्य संसार भर को अगले दिनों प्रकाश प्रदान करेगा। शान्तिकुँज की योजनाओं को निरंतर अग्रगामी एवं सफल-द्रुतगामी सफलताएँ अर्जित करके भी ऐसा ही अनुमान लगाया और विश्वास किया जाता सकता है। समय दान के लिए उभरता उत्साह इसका प्रत्यक्ष साक्षी है।


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