तीन देवता, तीन संरक्षक

August 1990

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

जीवन के प्रारंभिक दिनों में ही जिसे साधना का पोषक आहार उपलब्ध हो जाय तथा सुसंस्कारिता के बीज पूर्व से ही विद्यमान हों, उसका भावी जीवन क्रम कैसा होगा, इसकी पूर्व कल्पना की जा सकती है। पूज्य गुरुदेव की बहुमुखी जीवन साधना के चमत्कारी प्रसंगों का प्राकट्य अन्यान्य महापुरुषों की तरह शैशवकाल से ही होने लगा था। ऐसे महापुरुष की जीवनी को, विभिन्न संस्करणों को लिपिबद्ध करना कितना पुष्कर कार्य हो सकता है, इसकी कल्पना सामान्य पाठक नहीं कर सकते। संभव है कुछ अविज्ञात घटनाक्रम ऐसे उनके शैशवकाल से संबंधित इस स्मारक अंक से छूट जाएँ जिनकी फलश्रुतियाँ आगे चल कर देखने को मिली तो इसे संकलनकर्ताओं का-संपादकों का प्रमाद माना जाए।

शरीर के अवतरण की दृष्टि से देखा जाय तो पूज्य गुरुदेव का जन्म आश्विन कृष्ण 13 संवत् 1968 में आगरा जिले के आंवलखेड़ा ग्राम में हुआ। यह यमुना पार, आगरा-जलेसर मार्ग पर 12 मील दूर अवस्थित है। आज तो यहाँ पूज्य गुरुदेव की माताजी की स्मृति में स्थापित लड़कों का इण्टर कॉलेज एवं पूज्यवर द्वारा अपनी जन्म भूमि में स्थापित लड़कियों का इण्टर कॉलेज, एक चिकित्सालय तथा शक्ति पीठ स्थापित हो जाने से अच्छी-खासी कस्बे स्तर की जनसंख्या है। पर कभी यह छोटा सा गाँव मात्र था। जिस घर में वे जन्मे वह एक सम्पन्न घर था। 2000 बीघा जमीन थी,किसी बात की कमी नहीं थी। संभवतः उनके पिता पंडित रूपकिशोर शर्मा एवं माता दानकुँवरि जी स्वयंभू मनु-शतरूपा की तरह तप साधना कर साक्षात भगवान को अपने घर जन्म लेने के लिए विवश कर दिया था। तप की अवधि में एक ही प्रार्थना रही होगी कि वे एक ऐसी सुसन्तति को जन्म दें जो अपने सत्कार्यों से विश्व वसुधा को धन्य कर दे। यही हुआ भी।

उनकी प्राथमिक स्तर तक की तथा संस्कृत व अंग्रेजी की शिक्षा घर रह कर ही एक उच्च संस्कारवान आत्मा पण्डित रूपराम जी के माध्यम से पूरी हो गई। मास्टरजी उन्हें नैसर्गिक परिकर में ले जाते व वहाँ व्यावहारिक अनौपचारिक शिक्षा का महत्व समझाते। प्रतिभा के धनी वे इतने थे कि वजीफे के साथ प्राइमरी बोर्ड की परीक्षा आगरा मण्डल से उत्तीर्ण की किन्तु इसके बाद स्वयं ही इस बाबू बनाने बाली शिक्षा पर विराम लगा दिया। जब समय मिलता अपने कुछ सखाओं को बैठकर गायत्री व अध्यात्म साधना की चर्चा करते।

जितना कुछ पढ़ा था, उससे विद्या ऋण चुकाने के लिए उनने दलित,शोषित से लेकर हर उस बालक को जिसे विद्यार्जन का अवसर नहीं मिल पाया था, अक्षर ज्ञान कराते थे ताकि इसके बाद वे व्यावहारिक जीवन की साधना सीखकर स्वयं को गढ़ सके। विद्या विस्तार का उनका यह क्रम स्वयं के लिए भी, औरों को वितरित करने के रूप में भी आजीवन चलता रहा।

गायत्री संबंधी दिया गया पण्डित मदन मोहन मालवीय का मूल मंत्र तथा पिता द्वारा की गयी व्याख्या हमेशा याद बनी रही। इसे उनने गाँठ बाँध कर रख लिया। जब भी अवसर मिलता, घर से निकल भागते व किसी वृक्ष के नीचे गायत्री जप तक, कि घर वाले ढूँढ़ न लें। क्रमबद्ध अनुष्ठान न भले ही पंद्रह वर्ष की आयु में हिमालयवासी अपने गुरु रूपी परोक्ष सत्ता से मार्गदर्शन के बाद आरंभ हुए हों, उनने अपने ब्राह्मणत्व को वेदमाता गायत्री की नियमित उपासना के माध्यम से उपनयन संस्कार के बाद ही जगाना आरंभ कर दिया।

दस वर्ष की ही आयु में एक दिन हुड़क उठी व वे घर से पैदल उत्तर की ओर चल पड़े। गंतव्य था हिमालय। बालक को यह भी पता नहीं कि वह कितना दूर है पर ऐसा लगा जैसा हिमालय में विद्यमान दिव्य चेतना, ऋषिसत्ता उन्हें बुला रही है, कुछ सन्देश देना चाह रही है। घर वालों ने ढूँढ़-खोज की तो घर से सात-आठ मील देर के एक रेलवे स्टेशन पर मिले जहाँ बरेली जाने वाली रेल की प्रतीक्षा वे कर रहे थे। पकड़े जाने पर भागने का कारण पूछा गया तो इतना ही कहा-”हम तो हिमालय जा रहे थे। वही हमारा घर है। हवेली में रहकर क्या करेगी”। बड़ी कठिनाई से समझा-बुझाकर लाया गया। यज्ञोपवीत संस्कार उसी घटना के बाद दिव्यात्मा द्वारा सम्पन्न कराया गया ताकि योगी आत्मा को सही मार्गदर्शन मिले।

यहाँ संकेत मिलते हैं एक ऐसी प्राणवान सत्ता के जो शुरू से ही हिमालय जाने के ललक मन में लगाये हुए थी, लौ प्रदीप्त किये हुए थी। परमहंस योगानन्द जी भी तो इसी तरह बाल्यकाल में अपने घर से भाग खड़े हुए थे व हरिद्वार से पकड़ कर लाये गये थे। महामानवों के जीवन की यही कुछ प्रारंभिक झलकियाँ उनके भविष्य की संभावनाओं की ओर पूर्व संकेत कर देती हैं। संभवतः कुछ परिवारीजनों ने घटना को महत्वहीन मान बालक को प्रताड़ित भी किया होगा पर किसे मालूम था कि इसी महाप्राण को ढूँढ़ने स्वयं ऋषिसत्ता उनके समक्ष कुछ ही वर्षों बाद आएगी व चार बार हिमालय अपने पास बुलाएगी। इस उम्र में बालकों की रुचि सामान्यतः मेला, खेल-कूद, मिठाई आदि में रहती है, किन्तु यह बालक तो किसी ओर मिट्टी का बना था। स्वयं उपासना तो करता ही, अपने साथियों को भी अमराई के कुँजों में ले जाकर अध्यात्म तत्वज्ञान के गूढ़ उपदेश व्यावहारिक रूप में ग्रामीण भाषा में समझाता। संभवतः वह अध्यात्म क्षेत्र का लोक शिक्षक बनने की तैयारी अभी से कर रहा था। एक सज्जन जो उनसे आयु में एक वर्ष बड़े हैं, अभी भी जीवित हैं व अपने रोचक संस्मरण बालक श्रीराम की अध्यात्म क्षेत्र में प्रगति के सुनाते हैं। उन संस्मरणों को इसी अंक में अन्यत्र स्थान दिया गया है।

बाल्यकाल से ही गुरुदेव तीन देवता, तीन संरक्षकों की छाया स्वयं पर अनुभूत करते रहे। माता के रूप में पण्डित प्रवर श्री मालवीय जी ने उन्हें गायत्री माता-कामधेनु का पयपान करते रहने का मार्गदर्शन दिया था। यह वे जीवन भर करते रहे व उसी माता की गोद में गायत्री जयंती के दिन ही महाप्रयाण कर गए। इसी दिन स्वर्ग लोक से भगवन् सत्ता का अवतरण हुआ था तथा इसी दिन ब्रह्माजी की वाणी ज्ञान गंगा गायत्री के रूप में प्रकट हुई थी। तरणतारिणी अंतरंग को पवित्र बनाने वाली व सद्बुद्धि-सद्भावनाओं को जगाने वाली गायत्री का अवतरण दिवस इसी दिन मनाया जाता है।

हिमालय को वे अपना पिता मानते थे तथा पारस की उपमा देते थे, जिसका स्पर्श करके वे उतना ही ऊँचा उठे जितना विराट दिव्यशीलता से अभिपूरित देवात्मा हिमालय है एवं जिसकी शरण में वे मार्गदर्शन हेतु बार-बार जाते रहे। माता, पिता के अतिरिक्त तीसरी सत्ता थी गुरुसत्ता की, उस अदृश्य सिद्ध पुरुष की जिसका दर्शन मात्र वे ही कर पाये थे, जिसने स्वयं उनकी पूजा की कोठरी में आकर उन्हें दैवी चेतना से साक्षात्कार करा अपने पिछले जन्मों के इतिहास की झाँकी दिखाई थी। इस जीवन संबंधी भावी क्रिया-कलापों का मार्गदर्शन किया था तथा जीवन भर परोक्ष रूप से उनका मार्गदर्शन किया व अब उन्हीं के साथ वे एकाकार हो गये हैं। उन्हें वे “मार्गदर्शक” भी कहते थे, मौज में आने पर “मास्टर भी।

तीनों की उपमा पूज्य गुरुदेव अमृत, पारस कल्पवृक्ष के रूप में दिया करते थे। पूज्यवर अखण्ड-ज्योति (जनवरी 1972) में वंदनीया माता जी के माध्यम से कहते हैं कि गायत्री मंत्र अमृत है जिसे पीकर हमारी सत्ता अजर-अमर, देवतुल्य हो गई। हिमालय वह पारस है जिसने हमें मानव से देवमानव, अवतारी पुरुष बना दिया, दूसरों को लोहे से स्वर्ण में परिणत करने की सिद्धि प्रदान कर दी। इस हिमाच्छादित धवल ऊँचाई को पाकर ही हम दूसरों की जलन को, तपन को मिटाने योग्य सिद्धि अर्जित कर पाए। कल्पवृक्ष हैं-उनके मार्गदर्शक जिनने स्वयं तो कई शतकों का जीवन जिया है, स्वयं अजर अमर है, देव तुल्य हो गई। हिमालय वह पारस है जिसने हमें मानव से देवमानव, अवतार पुरुष बना दिया, दूसरों को लोहे से स्वर्ण में परिणत करने की सिद्धि प्रदान कर दी। इस हिमाच्छादित धवल ऊँचाई को पारकर ही हम दूसरों की जलन को, तपन को मिटाने योग्य सिद्धि अर्जित कर पाए। कल्पवृक्ष हैं-उनके मार्गदर्शक जिनने स्वयं तो कई शतकों का जीवन जिया है, स्वयं अजर-अमर हैं, दुर्गम हिमालय में सूक्ष्म ऋषिसत्ता के रूप में विद्यमान हैं, पर जिनने अपने सुपात्र को चुनकर अपनी छाया में बैठकर साधना शक्ति द्वारा बीसवीं व इक्कीसवीं शताब्दी में सारे महत्वपूर्ण परिवर्तन का सरंजाम जुटा कर, धरित्री का कायाकल्प करने का आश्वासन दिया। उनकी सारी आध्यात्मिक मनोकामनाएँ पूरी कीं तथा जो कुछ भी गुरुदेव ने “मास्टर” से माँगा वह कल्पवृक्ष के माध्यम से मिलता चला गया। उपरोक्त तीनों दिव्य सत्ताओं का त्रिवेणी संगम उनके जीवन के प्रारंभिक कुछ वर्षों में ही फलीभूत होता दिखाई पड़ता है।

कहते हैं कि गुरु को खोजने निकलना पड़ता है व विरलों को ही सद्गुरु हाथ लगते हैं। यों तो सब कुछ हड़प लेने वाले, मूंड़ लेने वाले वेशधारी अधिकाँश को मिल जाते हैं जो अध्यात्म के नाम पर बट्टा और लगाते हैं। सच्चा पथप्रदर्शक तो जन्म-जन्मान्तरों में किसी विरले को ही हाथ लगता है। शिष्य सुपात्र होने के कारण उसे ढूँढ़ने नहीं जाता, स्वयं गुरु आकर उपस्थित हो जाता है और अपने शिष्य के नेत्रों में अज्ञान के अंधकार से निकलने वाली शलाका डालकर उसे दिव्य प्रकाश दिखाता है, उसके हाथ में दीपक थमा देता है। संत कबीर दास ने कहा है-

पाछे लागा जाइ था लोक वेद के साथ। आगे ते गुरु मिल्या दीपक दीया हाथ॥

पूज्य गुरुदेव के जीवन प्रसंग पर उपरोक्त दोहा बिल्कुल सही बैठता है जिन्हें प्रकाश दिखाने, मार्गदर्शन देने स्वयं गुरुसत्ता परोक्ष चेतना के रूप में उनके पास आई। यह सौभाग्य सूर्योदय उनके आध्यात्मिक जन्मदिवस वसंतपर्व के दिन हुआ जहाँ से वे जीवन की शुरुआत होती मानते आये हैं। शारीरिक आयु पंद्रह वर्ष पूराकर सोलहवें में पदार्पण किये 2-3 माह ही हुए थे कि प्रातः की उपासना में वसंत पंचमी के दिन बालक श्रीराम के उपासना ग्रह में एक दिव्य प्रकाश का अवतरण हुआ जो बाहर से घनीभूत होता हुआ उसके शरीर, मन, अन्तःकरण में समा गया और उसे साधारण बालक से अवतारी महापुरुष बना कर निहाल कर गया। इसे आत्मबोध कहा जाय या परोक्ष सत्ता द्वारा शक्तिपात स्तर का अनुग्रह., जो भी कुछ यह था, उनके जीवन का एक महत्वपूर्ण था।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118