किशोरावस्था के कुछ हृदयस्पर्शी प्रसंग

August 1990

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बाल्यकाल व युवावस्था के दिनों में कोई धूनी रमाकर घंटों जप करता बैठा रहे तो ऐसा जीवन असामान्य ही कहा जायेगा। हमारे देश में ऐसी असामान्यताओं की या तो जमकर पूजा की जाती है या खुलकर उपहास उड़ाया जाता है। पूज्य गुरुदेव जिस मिट्टी के बने थे, उसमें उनने अपने कठोर तप की बाहर वाले को खबर तक नहीं लगने दी व एक सेवाभावी विनम्र, औरों के प्रति सदाशयी पण्डित जी के पुत्र के रूप में शीघ्र ही अपने गाँव व आस-पा के इलाके में प्रख्यात हो गये। आँवलखेड़ा में बिताये उनके तीरे दशक के उत्तरार्ध व चौथे के पूर्वार्ध के दिन बहुरंगी गतिविधियों से भरे पड़े है। जो कुछ जानकारी समकालीन व्यक्तियों से मिली है वह यहाँ प्रस्तुत की जा रही हैं इस अवधि में वे आँवलखेड़ा आगरा व आस-पास के गाँवों में सक्रिय रहे। सन 1936 तक स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी के नाते बड़ी समर्पित क्रान्तिकारी भूमिका निभाते रहे।

ग्रामीण किसानों की उन दिनों स्थिति बड़ी दयनीय थी। सिंचाई के धनों व कीटनाशक दवाओं के अभाव में खेतों की पैदावार बहुत ही कम होती थी। पूज्य गुरुदेव ने अपने ग्रामीण अनुभव व अध्ययन के आधार पर अनेक फसलों को उगाने, रखरखाव, अधिक उपज लेने का महत्व दर्शाने वाली एक पैसा मूल्य की सोलह पुस्तकें प्रकाशित की। फसली बुखार, पशुओं को रोग से कैसे बचायें? इन सब पुस्तकों को वे नगण्य से मूल्य पर हाट-बाजार में जाकर बाँटा करते। यह बात अलग है कि घर से कोई मदद न मिलने के कारण उनने अपनी प्रथम पत्नी श्रीमती सरस्वती देवी की सोने की हँसली ही गिरवी रखकर यह काम किया।

खड़ी हिन्दी में से सब किताबें लिखी जाती तो शायद जनता प्रभावित नहीं होती। देहाती ब्रजभाषा में उनने जातिभेद, मृतकभोज, खर्चीली शादी, पण्डावाद एवं अन्यान्य अंधविश्वासों पर पाँच पुस्तकें बड़ी व्यंग्यात्मक शैली में लिखी जो बड़ी लोकप्रिय हुई। एक पुस्तक “बेटा की तेरहवीं” में वे लिखते है कि पंडित जी दही-बूरा कुल्हड़ पर कुल्हड़ पिये जा रहे है व कंगाल हो गये घरवालों को उलाहना सुना रहे है-”चौं पोहे के खाजे में मोह मार रह्यौ ऐ।” समाज की मूढ़ मान्यताओं के प्रति क्रान्तिकारी अभियान उनका तब से ही आरम्भ हो चुका था।

इसी अवधि में उनने देशभक्ति की ओजपूर्ण कविताएं लिखी। ये सभी कानपुर के “विद्यार्थी” (संपादक गणेश शंकर विद्यार्थी ) कलकत्ता के “विश्वमित्र” तथा आगरा के दैनिक “सैनिक” में प्रकाशित होती रही। किस्मत, मस्ताना जैसी प्रसिद्ध पत्रिकाओं में भी वे कविताएं भेजते रहे। दुर्भाग्यवश इन कविताओं का संकलन अब उपलब्ध नहीं है, नहीं तो पाठकों को उनके शोर लेखक स्वरूप की जानकारी मिलती। 1940 की “अखण्ड ज्योति” प्रकाशित करने से पूर्व तो वे “सैनिक’ पत्र में ही मत्त जी नाम से कार्य भी करते रहे थे तथा स्वतंत्रता संग्राम के लिए क्रान्तिकारी स्तर का संघर्ष भी करते रहे। मत्त नाम उनका पड़ने के दो कारण बताये जाते हैं एक तो वे देशभक्ति के लिए उन्मत्त थे जिसमें अंग्रेजों के कुशासन से देश को मुक्त कराने के लिए प्राणपण से लगना उन्हें पसंद था। दूसरे एक घटना जिसकी चर्चा आगे की गई है, में पुलिस पिटाई से इतना बेहोश होकर कीचड़ में रात्रि भर पड़े रहे थे कि अगले दिन लोग यह सोचकर ढूंढ़ने निकले कि शायद अब मर-मरा गये होंगे। देखा तो बेहोश थे, दाँत में झण्डा अभी भी था। उनकी यह लगन, चाहे मर जाएं देखकर मतुआ या मत्त नाम उनका सन् 1928-29 में ही पड़ गया था।

आर्थिक दृष्टि से कड़की के दिन थे। क्योंकि इनके स्वतंत्रता सेनानी होने के नाते कई बार पुलिस छापा मार चुकी थी। कुर्की भी हो चुकी थी। डर के मारे कोई फसल भी नहीं उठा रहा था। डर के मारे कोई फसल भी नहीं उठा रहा था। वे घर वालों को समझाते कि थोड़े दिन कष्ट सहना है, फिर सब ठीक हो जायेगा पर सब वस्तुतः उनकी इस देशनिष्ठा से परेशान थे। इन्हीं दिनों के जीवन का एक विचित्र प्रसंग है। इन्हीं दिनों के जीवन का एक विचित्र प्रसंग हैं जिनसे उनकी गौ माता के प्रति भक्ति व परदुःखकातरता की अनुभूति होती है। “सिया राम मय सब जग जानी” वाले नवनीत अंतःकरण वाले युवा श्रीराम ने देखा कि गाँव के कुछ मुसलमान कसाई दो गायों को जो अभी भी पर्याप्त दूध दे सकती थीं, मात्र लंगड़ी थीं, काटने के लिए ले जा रहे थे। पूछा कि उनने कितने में खरीदी हैं। पता चला 25 रुपये में खरीदी हैं। क्या किया जाय? कहाँ से आयें ये पैसे? तुरंत गाँव के साहूकार गुलजारी के पास जाकर 35 रुपये उधार लिए। बैलगाड़ी किराये पर ली, घास के दो बड़े-बड़े. गट्ठर खरीदे व गायों को उठवाकर बैलगाड़ी पर दोनों गायों को रखवाया। दोनों बैलों के साथ स्वयं भी लगे व सुबह के चले रात देर तक हाथरस पहुंच कर वहां की गौशाला में गायों को पहुँचा दिया। अगले दिन बैलगाड़ी प्रातः तक लौटकर लौटा दी, किराया चुकाया व एक हफ्ते में सूद सहित कर्जा भी। अपना सब कुछ लगाकर भी जिसने दो गायों को बचाया, उसके भविष्य को संभवतः सूक्ष्मजगत से देखने वाले देवतागण ही समझते थे। तत्कालीन नरतनधारी व्यक्तियों ने तो इसका कोई मूल्याँकन किया ही नहीं।

वे जानते थे जब तक देश की आधी जनशक्ति नारी को ऊँचा नहीं उठाया गया, देश प्रगति नहीं कर सकता। इसके लिए नारी जागृति अभियान का शुभारंभ उनने अपने घर से ही कर दिया था। अपनी माताजी को अक्षरज्ञान का महत्व बताया, सुलेख कैसे लिखा जाय यह समझाया, धीरे-धीरे वह अच्छा लिखने लगीं। दूसरे नंबर पर उनने अपनी धर्मपत्नी अर्धांगिनी को साक्षर बनाने का जिम्मा लिया। उनने भी बड़े प्रतिरोध के बाद लिखना सीखना चालू किया व क्रमशः दो-तीन बार तख्ती लिख-लिख कर बताने लगीं। वे इन सबका महत्व दोनों को बराबर समझाते। माँ को बताते कि आप रामायण पढ़ सकेंगी, पत्नी को बताते कि घर से चिट्ठी आयेगी या वे लिखेंगे तो किससे पढ़वायेंगी? बात छोटी सी है पर तीस के दशक में एक किशोर नारी साक्षरता की दिशा में इस सीमा तक सोच रहा था व जग का सुधार अपने से ही करने का बीड़ा भी उठा चुका था। बाद में उनने घर में एक प्रौढ़ पाठशाला आरंभ कर दी जिसमें हिंदू, मुस्लिम दोनों ही धर्म की महिलाएं आती व अक्षरज्ञान तथा फिर लोक व्यवहार का ज्ञान सीखती। बाद में मथुरा पहुंचने पर “स्त्रियों का गायत्री अधिकार” पुस्तक लिखने तक उनने नारी जागरण की पूरे भारत में धूम मचा दी।

एक बार गाँव के साहूकार जी के घर में आग लग गई व पूरे घर में फैल गई। लोग बाल्टी भरके पानी तो डालने लगें पर किसी को उनकी युवा बहू की चिन्ता नहीं थी जो अंदर फँसी बैठी थी। छप्पर से एक नसेनी लटक कर आँगन में जाती थी। मत्त जी ने आव देखा न ताव, चढ़कर तुरंत आँगन में पहुँचे व जब तक छप्पर नीचे गिरे, उसे लेकर बाहर आ गये व प्राथमिक चिकित्सा दी। जब तक साहूकार जी धन्यवाद देते, वे रवाना हो चुके थे। ऐसी थी उनकी सेवा-साधना।

आँवलखेड़ा की ही एक और घटना नारी मुक्ति से जुड़ी है। उस गाँव की एक ब्राह्मण विधवा युवती किसी मुसलमान से गर्भवती हो गई। माँ-बाप पूरे गाँव में निंदाभाजक बन गये। उसे घर से बाहर न निकलने देते थे। कोई गर्भपात सलाह देता था तो कोई युवती को जहर देने की। पूज्य गुरुदेव ने साहस किया व उसके घरवालों से बात की कि इसका पुनर्विवाह कराने की जिम्मेदारी मैं लेता हूँ। जो इसे विवाह करेगा, वह इसके बच्चे की भी देख-रेख करेगा। वे उसे मथुरा आर्य समाज ले गये जहाँ की चौक शाखा के बाद में प्रधान बने तथा उचित वर ढूँढ़ कर उसका विवाह एक विधुर से करा दिया। उसने बड़ी उदारतापूर्वक उसकी संतान को अपने पास रखा। इन दिनों अभी भी वह

महिला कानपुर के एक मोहल्ले में अपने जीवन का उत्तरार्ध बिता रही है व हर पल धन्यवाद देती है उस देवदूत को जिसने उसे कुरीतियों की बेड़ी से मुक्त कराया। “एक गर्भवती विधवा का पुनर्विवाह?” क्या कोई सोच सकता था, उन दिनों जबकि जातिवाद और आड़े आ रही थी, साम्प्रदायिकता भी। समाज सुधारक श्रीराम की लगन देखकर सब दंग तो रह गए, पर किसी ने कल्पना न की होगी कि यह व्यक्ति आदर्श विवाहों की धूम आने वाले वर्षों में पूरे भारत में मचा देगा, पतितों-शोषितों का उद्धार एक मसीहा ही कर सकता है व ईसा जैसी ही करुणा-आत्मवत् सर्वभूतेषु की भावनाएं उनमें कूट-कूट कर भरी थीं।

अगस्त 1930 का एक प्रसंग है। उनकी हवेली के फाटक की सफाई तथा ताऊजी की घोड़ी पर खरहरा करने को एक सफाई कर्मचारी आता था-गिरवर। सहज भाव से उसने कहा-”श्रीराम जी, हमें भी अपने यहाँ सत्यनारायण भगवान की कथा करानी है, पर हम अछूतों के यहाँ कोई कैसे आएगा?”उसकी करुण वाणी पूज्यवर को स्पर्श कर गई। वे बोले-”कल तुम सब नहा-धोकर तैयार रहना। हम तुम्हारे घर आयेंगे।” उसे विश्वास नहीं हुआ, पर वे पहुँच गए पोथी, हवन कुण्ड, सामग्री, शंख, झालर व सजावट का सामान लेकर पूरे टोले के हरिजन एकत्र हो गये थे। पहले हवन हुआ, फिर सत्यनारायण कथा तथा फिर शंखनाद फिर प्रसाद बाँटा गया। शंखनाद सुनकर गाँव के ब्राह्मण व ठाकुर लट्ठ लेकर हरिजनों के टोले की ओर दौड़ पड़े पर तब तक श्रीराम जी सारा सामान समेट कर बाजरे के खेतों में होते हुए भाग चुके थे। बाद घर में अच्छी-खासी डाँट पड़ी। विनम्रतापूर्वक सब सुनकर उनने कह दिया कि उनने तो मात्र हवन किया व कथा पढ़ी, ब्राह्मण का कार्य किया। इसमें गलत क्या है? कोई आखिर समझ कैसे पाता कि एक अवतारी, क्राँतिकारी समाज सुधारक अगले दिनों सारी जाति, वर्ण लिंग के व्यक्तियों को एकत्र कर विचार क्रांति के बीज बो रहा है, उसका यह भूमिका का एक अध्याय भर है।

वस्तुतः छोटे-छोटे बाल्यकाल के घटनाक्रम ही महामानवों की प्रौढ़ावस्था की नींव के पत्थर बनते हैं। उस समय भले ही उन्हें समझा न जा रहा हो, पर समयानुसार कालान्तर में जब बीज परिपक्व होकर उर्वर भूमि पाकर अंकुरित, पुष्पित पल्लवित होते हैं तब तक उस वृक्ष को देखकर सभी हर्षोन्मत हो उठते हैं। विराट व्यक्तित्वों के साथ काल्पनिक गलत कथानक जोड़ने वालों की कोई कमी नहीं है पर जो वास्तविक घटनाएँ होती हैं, स्मरणीय बन जाती हैं जब यह गौरवपूर्ण इतिहास सारी मानवजाति के समक्ष आता है तब सब कहते हैं कि हमें तो पहले ही लगता था कि वे ऐसा कुछ बनेंगे। मूल्याँकन वस्तुतः समय पर व जीवित रहते नहीं हो पाता, बाद में इनकी महत्ता समझ में आती है।


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