बालकृष्ण गंगाधर तिलक (Kahani)

August 1990

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

प्रकृति से पूज्य गुरुदेव को अगाध प्रेम था। हिमालय की आत्मा तो उनके कण-कण में समाई हुई थी। “सुनसान के सहचर” पुस्तक उसी आत्मभाव की अभिव्यक्ति है। शांतिकुंज में उनके कक्ष व लगी हुई छत से गढ़वाल हिमालय,शिवालिक पर्वत की श्रृंखलायें सामने ही दिखाई देती है। शीतऋतु में हिमाच्छादित चोटियाँ भी साफ दृष्टिगोचर होती हैं तथा वर्षा ऋतु में तो यहाँ का सौंदर्य देखते ही बनता है। अपने साथ कार्य करने वाले सहयोगी कार्यकर्ताओं व वंदनीया माता जी को भी वे मेघमालाओं से घिरे पर्वत शिखर, उनकी गोद में खेल रही माँ गंगा व हिमशिखरों को दिखा-दिखा कर अपने आनन्द की अभिव्यक्ति करते। संभवतः शांतिकुंज निर्माण का मूल कारण उस भूमि का सुसंस्कारित रहना हो किन्तु एक प्रमुख कारण प्रकृति का साहचर्य भी हो सकता है। दूर उत्तर दिशा व पूर्व में आज भी मात्र हरे-भरे वृक्ष हैं,पर्वत श्रृंखलाएँ है, व प्राकृतिक सौंदर्य अपनी छटा बिखेरे हुए है। यदि सब देखने वे सतत् बाहर आते व इनका अवलोकन कर समष्टि से अपना तादात्म्य स्थापित करते थे।

उन दिनों गुरुदेव नित्य प्रवचन देने नीचे जाते थे। “ शांतिकुंज नाम उस आश्रम का इसलिए था कि स्थान-स्थान पर कुँज थे, लता मण्डप थे, जड़ी बूटियाँ लगी थी। सभी की साज-सज्जा, कटाई-छँटाई कुछ ज्यादा ही निर्ममता से कर ऊपर से दिखाने भर के लिए बेलों को बाँध दिया है ताकि वे बिखरें नहीं पर उसके इस प्रकार बाँधने व नीचे से कट जाने से ऊपर की शाखाएँ व पत्तियाँ सूख गई है। लौटकर उनने व्यवस्था में जुड़े लोगों को बुलाया व उसका उदाहरण देते हुए आक्रोश में बोले-”तुम समझते हो इन निरीह पौधों में प्राण नहीं होते। कैसा हो यदि तुम्हारे हाथ-पाँव बांधकर कोई ऐसा तुम्हें खड़ा कर दे। “ ऐसा लगा प्रकृति से तादात्म्य स्थापित करने वाला यह महामानव वह दृश्य देखकर अंदर से तिल-मिला गया है। उस दिन सबने एक तथ्य समझा कि प्रकृति मात्र में वही परमसत्ता विद्यमान है व महापुरुषों की करुणा सहज ही ऐसे में उभर आती है जब उसके किसी भी अंग के साथ खिलवाड़ किया जाता है।

उन दिनों वह कार्यक्रम के सिलसिले में बाहर थे। आयोजन में उनके प्रवचन को कुछ ही देर रह गई थी कि खबर आई कि एक कार्यकर्ता मथुरा से अभी आए हैं और आपसे तुरन्त मिलना चाहते है। सुनकर आगन्तुक कार्यकर्ता को बुलाने का आदेश दिया। कार्यकर्ता ने पास पहुँचने पर बताया कि पू. ताई जी (पू. गुरुदेव की माता जी) की दशा बहुत चिन्ताजनक है, तुरन्त चलना होगा। सुनकर वह बोले- “तुम चलो, उनके शरीर छोड़ देने पर उचित व्यवस्था जुटाना, मैं कार्यक्रम के समाप्त हो जाने पर आ जाऊँगा।

समाचार आयोजकों ने भी सुना-उन्होंने भी प्रार्थना की आपको चले जाना चाहिए आयोजन बाद में हो जायगा।” सुनकर वह बोले- “सवाल आयोजन का नहीं है, सवाल मेरे कर्तव्य का है। इतने लोग जो मुझसे कुछ पाने आए हैं, खाली हाथ लौटेंगे। यह मैं देख नहीं सकता। मानवमात्र के हृदय में भगवान का निवास होता है। ऐसे भगवान की पूजा छोड़कर मैं नहीं जा सकता।” तत्पश्चात् उन्होंने स्वस्थ चित्त हो प्रवचन किया। कार्यक्रम भली प्रकार समाप्त हुआ। कहना न होगा कि उनके पहुँचने के काफी पहले ताई जी संसार छोड़ चुकी थीं। पहुँचने पर सारा उत्तर कार्य निपटाया। महामानव मोह से परे होते हैं उन्हें निर्मम नहीं, कर्तव्य मानवता का पुजारी मानना चाहिए। महानता मालवीय जी एवं बालकृष्ण गंगाधर तिलक के साथ भी ऐसा ही हुआ था।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118