युगचेतना के निर्झर-शक्ति केंद्र प्रज्ञा संस्थान

August 1990

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यह एक संयोग मात्र नहीं है जिस वर्ष ब्रह्मवर्चस के रूप में चौबीस गायत्री प्रतिमाओं से सज्जित केन्द्रीय शक्ति-पीठ का उद्घाटन शोध ग्रन्थालय जुड़े थे, ठीक इस वर्ष गुरुदेव के चिन्तन क्षेत्र में एक नया चक्रवात घूम रहा था। वह था केन्द्र में प्रशिक्षित किये जा रहे समयदानी परिव्राजकों के माध्यम से पूरे भारत में फैले सत्प्रवृत्ति संवर्धन के कार्य का, धर्मतंत्र से लोकशिक्षण रूपी महत्वपूर्ण कार्यक्रम का सुनियोजित विकेंद्रीकरण। इस के लिए बसंत पंचमी, उनके अध्यात्मिक जन्म दिवस पर एक महत्वपूर्ण संदेश आया-वह था नवचेतना के निर्झर केंद्रों के रूप में प्रज्ञा संस्थापना का। यह वर्ष था सन् 1979 का व युग निर्माण योजना को प्रारंभ हुए पच्चीस वर्ष हो चुके थे अतः उसका यह रजत जयन्ती वर्ष था। मात्र प्रतिपादन ही नहीं, अंतराल में सद्भावों को जगाने के लिए एक विशाल ज्ञानयज्ञ की आवश्यकता को समझते हुए गुरुदेव द्वारा पहले चौबीस एवं फिर आवश्यकता को देखते हुए चौबीस सौ स्थानों पर प्रज्ञा संस्थान, शक्ति पीठ या गायत्री तीर्थ स्थापित करने का निश्चय का लिया गया

पूज्यवर चाहते थे कि गायत्री का तत्वज्ञान जन-जन तक पहुँचे। इसी उद्देश्य से ‘युग शक्ति गायत्री पत्रिका का प्रकाशन भी कुछ वर्ष पूर्व आरंभ कर सद्बुद्धि विस्तार की प्रक्रिया आरंभ हो गई थी। यही निष्कलंक प्रज्ञावतार का संकल्प भी रहा है। ऋतम्भरा प्रज्ञा को ही उनने दूसरे शब्दों में ब्रह्मविद्या कहा जिसके अवधारण मात्र से आस्था संकट के मिटने की संभावनाएं बतायी गयीं। उनने आद्यशक्ति गायत्री की सामयिक भूमिका को युगशक्ति के संघशक्ति के अवतरण के रूप में प्रतिपादित किया जो लाखों करोड़ों बदले हुए अन्तःकरणों के रूप में अपना विराट रूप दिखाने जा रही थी। युगशक्ति के विस्तार हेतु आरम्भ किया गया प्रव्रज्या अभियान गति पकड़ चुका था, स्थान स्थान से परिजन आकर इस परम्परा में दीक्षित हो रहें थे, अब समय आ गया था कि प्रज्ञावतार का आलोक उनके माध्यम से भारत भूमि के कोने तक पहुंचे।

गायत्री तीर्थ अथवा शक्तिपीठ इसी उद्देश्य को पूरा करने वाले मूल रूप में जन-जाग्रति के केन्द्र बनने जा रहे थे। ठीक उसी तरह जैसे कि कभी आद्य शंकराचार्य ने चार स्थानों पर चार धामों की स्थापना कर विराट भारत को एक सूत्र में आबद्ध करने का प्रयास किया था एवं समर्थ रामदास ने स्थान स्थान पर हनुमान मन्दिर के रूप में जाग्रति केन्द्र व्यायामशालाएँ प्रतीक रूप में स्थापित की थीं। निर्माण कहाँ कहाँ हो व किस रूप में हो, यह जिज्ञासा शान्त करते हुए उनने लिखा कि “हमारी कभी यह इच्छा नहीं रही कि विशाल मन्दिरों की संख्या अनावश्यक रूप से बढ़ाई जाय। स्थापनाएँ जहाँ हों वहाँ वे गायत्री तीर्थ के रूप में विनिर्मित हों, जहाँ देव प्रतिष्ठा से लेकर धर्मधारणा को सुस्थिर एवं प्रगतिशील बनाने की रचनात्मक गतिविधियाँ चलें यदि यह पहले से स्थापित देवालयों में भी चल पड़े तो इसे नयी स्थापना-नवजागरण मानना चाहिए।”

इस प्रकार एक क्रान्तिकारी प्रतिपादन सामने आया कि जहाँ साधन हों, पुरुषार्थ हों, उमंगें हों वहाँ नूतन निर्माण किया जाय जो केन्द्रीय निर्धारणों के अनुरूप हो तथा जहाँ पुराने देवालयों का जीर्णोद्धार संभव हो, वहाँ मन्दिर का स्वरूप दे दिया जाय। वैसे प्रथम चरण में चौबीस स्थानों का निर्धारण किया गया था किन्तु लक्ष्य चौबीस से बढ़ा कर चौबीस सौ कर दिया गया व पहले दस वर्ष में उत्तर भारत के हिन्दी भाषी प्रान्तों व उनसे जुड़े प्रांतों में निर्माण की बात सोची गयी। दक्षिण भारत व शेष भारत को 90 के दशक के बाद अन्यान्य भाषाओं में साहित्य के अनुवाद व प्रकाशन के बाद स्पर्श करने की बात सोची गयी।

मत्स्यावतार की तरह से शक्तिपीठ संकल्प ने विस्तार लिया। पहले जिन परिजनों ने आ कर निर्माण के संकल्प लिए उन्हें स्थापना हेतु प्रतीक रूप में पहली राशि केन्द्र की ओर से गुरुदेव माताजी के हाथों से दी गयी ताकि बीजारोपण प्राणवान हो। प्रत्येक शक्तिपीठ के निर्माण का इतिहास अनेकानेक चमत्कारी प्रसंगों से जुड़ा हुआ है। जो व्यक्ति कभी अपने लिए एक कमरे के निर्माण के लिए भी सोच नहीं सकते थे, उनने इतने विशाल निर्माण एकाकी अथवा संघशक्ति के बलबूते कर दिखाए। मूल स्रोत था वह प्रेरक बल जो पूज्य गुरुदेव की वाणी एवं लेखनी से प्रकट हो कर अर्धमृतकों निष्क्रियों में भी प्राण फूँक कर उन्हें खड़ा कर रहा था।

प्रत्येक तीर्थ को, शक्तिपीठ को एक या अधिक ब्रह्मवर्चस् की शक्ति-धाराओं का प्रतिनिधित्व करने वाली गायत्री प्रतिमाओं की स्थापना हेतु कहा गया तथा सत्साहित्य का एक प्रचार केन्द्र व सत्संग हेतु एक एक कक्ष विनिर्मित करने के लिए प्रेरित किया गया जहाँ व्यवस्था बन पड़े वहाँ परिव्राजकों के लिए एक निवास भी बनाने को कहा गया। परिव्राजकों को स्थायी महन्त बनने के लिए नहीं बल्कि गायत्री यज्ञ का प्रचार विस्तार इस पूरे क्षेत्र में कर एक विनम्र लोकसेवी के रूप में सबका श्रद्धाभाजन बनने की प्रेरणा दी गयी। इन्हें तीन माह से लेकर एक वर्ष तक एक स्थान पर रहकर फिर बुद्ध के प्रचारकों की तरह आगे बढ़ कर नया कार्यक्षेत्र सँभालने की प्रेरणा दी गयी। केन्द्रीय शिक्षण तंत्र भी इसी स्तर का बनाया गया।

धर्म चेतना के इस पुनर्जीवन के इस देव प्रयास ने गहरी जड़े पकड़ीं व स्थान स्थान पर छोटे बड़े प्रज्ञा केन्द्र प्रज्ञा संस्थान, प्रज्ञा मण्डल तथा छोटे स्वाध्याय मण्डल स्थापित होते चले गए। पहले जिन्हें गायत्री परिवार की शाखाएं कहा जाता था व जिनने 1958 के सहस्रकुंडीय महायज्ञ से साधना स्वर्ण जयन्ती समारोह तक महत्वपूर्ण भूमिकाएँ निभाई थी, उन्हीं को प्रकारान्तर से इन्हें स्थापित करने का श्रेय मिला। कुछ ऐसे नये प्राणवान व्यक्ति भी उभर कर आए जिन्हें आगे चलकर महत्वपूर्ण भूमिका निभानी थी।

उनने शक्ति पीठ संचालकों को निर्माण हेतु बधाई, धन्यवाद व आशीर्वाद भी दिया स्वयं वहाँ जा कर कइयों का शिलान्यास व उद्घाटन भी किया। 1981-82 में यही क्रम चला। साथ ही वे सबको सचेत भी करते चले गए कि निर्माण तब तक प्राणहीन है जब तक वहाँ क्रिया−कलाप नहीं चलते। वे लोक भर्त्सना व निन्दा के पात्र बनेंगे यदि वे सफेद हाथी मात्र बनकर रह गए। उनने कहा कि हमने ब्रह्म विद्यालय की स्थापना की है, मन्दिरों की नहीं। नियुक्त परिव्राजक इसके उपाध्याय हैं, अध्यापक हैं। समय समय पर वे यह इशारा करते रहे कि 1980-1990 के बीच हम स्थूल रूप से तो तंत्र का विकेन्द्रीकरण कर भवनों की, कार्यालयों की, संगठन शाखाओं की स्थापना कर जायेंगे पर इनमें प्राण सतत् फूँकते रहेंगे व सन् 2000 के आते आते मात्र सक्रिय, श्रद्धावान, संवेदनाशील युग नेतृत्व कर सकने में सक्षम प्रतिभाशाली ही इन स्थापनाओं से जुड़े रहेंगे। धनाध्यक्ष एवं जड़ निर्माण से चिपके रहने वाले लोकेषणाग्रस्त व्यक्ति हमारे संगठन का अंग नहीं बन सकते। सूक्ष्म व कारण शरीर से हम 1990 के बाद वह काम करेंगे जो स्थूल शरीर से नहीं कर पाए। संकेत स्पष्ट था व अभी भी सब के लिए एक चेतावनी है कि जन-जन से संचित धनराशि से विनिर्मित ज्ञान विस्तार को समर्पित प्रज्ञाकेंद्र यदि सक्रिय न रहे, गतिविधियों का विस्तार न कर सके तो परोक्ष जगत से महाकाल की शक्ति सब को झकझोर कर नये तंत्र को आगे ला खड़ा करेगी व उनसे सारा कार्य करा लेगी।

गतिविधियां क्या-क्या चलें, इस का संकेत वे “अपनों से अपनी बात” स्तम्भ के अंतर्गत अखण्ड ज्योति व युग शक्ति गायत्री युग निर्माण योजना में तथा प्रज्ञा अभियान पाक्षिक पत्रों में सतत् करते रहें। प्रतिमाओं के दर्शन के माध्यम से आगंतुकों को ऋतम्भरा प्रज्ञा का दर्शन समझाना, जिज्ञासुओं की गायत्री यज्ञ अध्यात्म संबंधी जिज्ञासाओं की गायत्री यज्ञ अध्यात्म संबंधी जिज्ञासाओं का समाधान करना, नियमित साधना-उपासना का क्रम शक्ति पीठों में चलाना, युग संगीत के माध्यम से जन चेतना को झकझोरना का विस्तार करना, रामायण गीता प्रज्ञापुराण की कथा द्वारा प्रगतिशील अध्यात्म का प्रतिपादन करना, अपने मण्डल की तीर्थ यात्रा-धर्म प्रचार की पदयात्रा-साइकिल यात्रा सतत् चलाना, जन-जन को युग साहित्य के संजीवनी से परिचित कराना, इस के लिए चल पुस्तकालयों की व्यवस्था करना, स्वाध्याय मण्डलों की स्थापना व उनका संचालन बाल संस्कार शालाओं तथा प्रौढ़ पुरुषों व महिलाओं की साक्षरता हेतु नियमित कक्षाएँ चलाना, वृक्षारोपण द्वारा हरीतिमा विस्तार करना तथा नशा निवारण आँदोलन चलाना-थे अनेकों कार्यों में से कुछ थे जिन पर पूज्यवर सतत् जोर देते रहे।

दृश्य-श्रव्य साधनों, स्लाइड प्रोजेक्टर व टेपरिकार्डर तथा झोल पुस्तकालय, ज्ञानरथ के माध्यम से ये सभी गतिविधियाँ परिव्राजक प्रशिक्षण प्राप्त युग शिल्पियों द्वारा जोर पकड़ने लगी। एक स्वस्थ प्रतिस्पर्धा परिजनों में चल पड़ी कि किस का केन्द्र सत्प्रवृत्ति संवर्धन के क्षेत्र में आगे रहता है। इसी बीच राष्ट्रीय अखण्डता-एकता के निमित्त विशाल महायज्ञों का संदेश पूज्यवर ने परिजनों तक पहुँचाया व 1986-1987 में विशाल राष्ट्रीय एकता सम्मेलनों की धूम मच गई। साँप्रदायिक सद्भाव हेतु आयोजित इन कार्यक्रमों में यज्ञों से जुड़ी दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन प्रतिज्ञाओं के अलावा राष्ट्रीय अखण्डता हेतु सभी धर्म-संप्रदायों की विभूतियों से एक जुट होकर धर्मधारणा के विस्तार का आह्वान किया गया था। इनका प्रतिफल यह निकला कि लाखों नये व्यक्ति इस युग के ब्रह्मर्षि की सार्वभौम विचार धारा से जुड़ गए। लगभग एक हजार स्थानों पर ऐसे बड़े-बड़े यज्ञ व सम्मेलन दो वर्ष की अवधि में सम्पन्न हो गए।

मिशन के विस्तार को देखते हुए वसंत पर्व 1988 पर उनने एक नया निर्धारण किया कि अब यज्ञ कुण्डों के स्थान पर ज्ञान के प्रतीक दीप प्रज्ज्वलित किये जायें व ऐसे दीपयज्ञ स्थान-स्थान पर हों। जन्म दिवसोत्सव से लेकर हर शुभ कार्य का शुभारंभ व महासम्मेलन का स्वरूप दीपयज्ञमय बना दिया गया। इन दीपयज्ञों में पदार्थों की आहुति नाममात्र की होने से वे सर्व सुलभ बन गए व लोककल्याण की प्रखर भावना एवं विचारणा साथ जुड़ जाने से सूक्ष्मजगत को व्यापक स्तर पर प्रभावित करते चले गए।

नीति पुरुष वे होते हैं जो स्वयं जो निर्धारण महाकाल के निर्देश पर करते हैं, वह लोक प्रचलन बन जाता है। पूज्य गुरुदेव के कर्त्तृत्व के बहुमुखी पक्षों में एक संगठन को विशाल रूप देने वाला वह पक्ष भी है जो ऊपर दिया गया। इस सब के मूल में जो संकल्प शक्ति काम करती रही है वह मानव स्तर की नहीं, अवतारी स्तर के महापुरुष की थी, यह कार्य के परिमाण को देख कर सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है।


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