मैंने जीवन त्याग, तितीक्षा, तप में सतत् गलाया। तब जीवन के ‘ब्रह्मकमल’ को, पूरी तरह खिलाया॥1॥
ब्रह्मकमल में ‘ब्रह्मतेज’ का, जादू बोल रहा है। और ब्राह्मणोचित जीवन की, महिमा खोल रहा है॥ ब्रह्मकमल की हर पंखुरि में, ब्राह्मण का परिचय है। ब्रह्म और ब्राह्मण का, युग-युग से अटूट परिणय है॥ मैंने खिलकर, ब्रह्मबीज का है अंबार लगाया। मैंने जीवन त्याग, तितीक्षा, तप में सतत् गलाया॥2॥
पड़े न रह जायें, मेरे में ‘ब्रह्मबीज’ बिन बोये। मैंने इन्हें कलेजे में रख, हैं जीवन भर ढ़ोये॥ मेरे हो तो, मेरे इन बीजों को तुम बो देना। कुछ तो मेरा भार घटाने को, तुम भी ढो देना॥ कहीं न ऐसा हो, पछताऊं क्यों कर कमल खिलाया। मैंने जीवन त्याग, तितीक्षा, तप में सतत् गलाया॥3॥
ब्रह्मबीज बोये जाते, धरती तप से तपती पर। और ब्राह्मणोचित जीवन की, उपजाऊ धरती पर॥ भोगवाद के चक्कर में फंस, ब्राह्मणवंश घटा है। त्याग, तितीक्षा, संयम, तप से ही संबंध कटा है॥ भटक गया है स्वयं ब्राह्मण, जग को भी भटकाया। मैंने जीवन त्याग, तितीक्षा, तप में सतत् गलाया॥4॥
आवश्यक है, ब्रह्मबीज की, फसल उगाई जाये। और ब्राह्मण वृत्ति, देश में, पुनः जगाई जाये॥ मार्गदर्शकों के अभाव में, सब ही भटक रहे हैं। मानव की बहुमुखी प्रगति के, पहिये अटक रहे हैं॥ इसी वेदना से मेरा मन, द्रवित हुआ, अकुलाया। मैंने जीवन त्याग, तितीक्षा, तप में सतत् गलाया॥5॥
उठो! राष्ट्र के ‘पुरोहित’ जागो! सोया राष्ट्र जगाओ। ब्रह्मकमल की ब्रह्मबीज की गरिमा को दर्शाओ॥ ब्रह्मतेज से चमक उठे फिर, भारत देश हमारा। और विश्व को ‘आत्मज्ञान’ का फिर से मिले उजाला॥ मेरे ब्रह्मकमल ने खिलकर, यह उद्घोष लगाया। मैंने जीवन त्याग, तितीक्षा, तप में सतत् गलाया॥6॥