दिव्य गुरुसत्ता के अनुपम अनुदान

August 1990

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आग का स्वभाव हैं गर्मी देना और रोशनी पैदा करना। जो वस्तु उसके निकट आती है वह परिस्थिति के अनुरूप संपर्क के कारण जलने लगती है। आग बुझ जाय तो ईंधन कितना ही क्यों न हो, ज्वलन जैसा उपक्रम दिख नहीं पड़ता। लकड़ी गीलेपन समेत जलायी जाय तो उसमें से धुँधला धुंआ भर निकलता रहेगा, आग नहीं लगेगी, न ही ईंधन जलते अंगारे की तरह प्रदीप्त हो सकेगा।

आग यदि डायनामाइट के संपर्क में आये तो पहाड़ की चट्टानों को क्षण मात्र में उड़ा देती है। मुर्दा जब आग के संपर्क में आता है तो चारों ओर की परिधि विषैले धुएं से भर जाती है। इसके विपरीत यदि चन्दन या कपूर का अग्नि से स्पर्श कराया जाय तो मन को अच्छी लगने वाली सुगंधि उठती है। आग के अपने गुण हैं, ईंधन के अपने। पर पदार्थों और परिस्थितियों के अनुरूप उस ज्वलनशीलता में, सुगंधि व रोशनी, ध्वनि जैसी प्रतिक्रिया में असाधारण स्तर का अन्तर पाया जाता है।

परब्रह्म की परोक्ष सत्ता को आग एवं व्यक्तिगत चेतना को ईंधन स्तर का माना जा सकता है। दोनों का संपर्क जब अनुकूल परिस्थितियों में होता है तो चेतना प्रखर परिमार्जित होने लगती है एवं व्यक्ति का स्तर सामान्य से उठकर असामान्य देवमानव स्तर का हो जाता है। यों ऊँचा उठने की अभीप्सा व प्रगति के स्फुल्लिंग सभी में न्यूनाधिक मात्रा में विद्यमान होते है पर इसकी विशेष मात्रा योगी, तपस्वी गणों में अपनी पूर्वजन्मों की अर्जित सुसंस्कारिता के बल-बूते पायी जाती हैं। थोड़ा सा भी अतिरिक्त प्रयास करने पर दोनों के बीच व्यष्टि व समष्टि, प्रत्यक्ष व परोक्ष, भक्त व भगवान के बीच घनिष्ठता भी उत्पन्न हो जाती है तथा परस्पर आदान-प्रदान का क्रम भी चल पड़ता है।

जैसे मनुष्यों की अपनी-अपनी इच्छाएँ होती हैं, परब्रह्म सत्ता की भी समय-समय पर अपनी इच्छाएँ, आकाँक्षाएँ एवं योजनाएं उभरती हैं। सृष्टि का संतुलन बनाये रखना ही उसका प्रधान लक्ष्य होता है। समष्टिगत विराट सत्ता का कोई आकार तो हो ही नहीं सकता, अंग अवयव भी नहीं होते, उपकरणों से भी वह सिद्ध नहीं हो सकती अतः दृश्यमान क्रिया-प्रक्रिया बनाने के लिए उसे भी मनुष्य शरीर का आश्रय लेना पड़ता है। इस विशाल विश्व में मात्र मनुष्य शरीर ही एक ऐसा है जो देवी चेतना के अनुरूप शरीर ही एक ऐसा है जो दैवी चेतना के अनुरूप कोई क्रिया-प्रक्रिया कर सकने में समर्थ है। मात्र मानवी काया व चेतना ही स्थूल व सूक्ष्म जगत का संचालन करने वाली परब्रह्म सत्ता की किसी इच्छा या अपेक्षा में योगदान दे सकती है, उसकी इच्छानुसार कुछ निर्माण या परिवर्तन कर सकने में समर्थ हो सकती है।

इस स्तर के मनुष्य जिन्हें दैवी सत्ता चुनती है देवात्मा कहलाते हैं। इनमें मानवी संरचना का समावेश तो होता ही है। इसके-अतिरिक्त परब्रह्म की आशा अपेक्षा एवं योजना के अनुरूप आवश्यक प्रयोजन पूरा करने में भी वे समर्थ होते हैं इनमें भी उच्चकोटि के विलक्षण क्षमता सम्पन्न मनुष्यों को देवमानव, दिव्य मानव, सिद्धपुरुष, अवतार, देवदूत, पैगम्बर नामों से पुकारा जाता है। परोक्ष जगत में सक्रिय दैवी सत्ताएँ ईश्वरीय इच्छाओं की पूर्ति के लिए ऐसे ही देवमानवों के शरीर व मानस का प्रयोग करती है व उनके माध्यम से युग परिवर्तन का प्राकट्य कर विश्व वसुधा को धन्य कर देती हैं।

उपरोक्त प्रसंग जिस संदर्भ में चल रहा है, उसे परिजन भली-भाँति समझ रहे होंगे। परोक्ष जगत से उभरी प्रेरणा पूज्य गुरुदेव की मार्गदर्शक सत्ता के रूप में प्रकट हुई व उसने संस्कारवान देवात्मा के रूप में उचित शरीर व मन, उदात्त अंतःकरण वाले शिष्य का चयन कर लिया ताकि बीसवीं सदी का उत्तरार्द्ध व इक्कीसवीं सदी का पूर्वार्द्ध नवसृजन की आधारभूत पृष्ठभूमि बना सकें। परमसत्ता ने अपने सामयिक अभीष्ट प्रयोजन सदैव इसी प्रकार पूरे किये है। जब मानव की सृष्टि नहीं हुई थीं तब यह कार्य मत्स्य, कच्छप आदि अवतारों ने किया, फिर बाद में विकास क्रम की पूर्णता प्राप्त होने पर श्रीराम, कृष्ण, बुद्ध जैसे व्यक्तियों द्वारा ही अवतार प्रकरण पूरे किए हैं। अवतारों की तरह ही ऋषिसत्तायें भी यही प्रयोजन पूरा करती हैं। पृथ्वी पर सतयुगी वातावरण, सृष्टि संतुलन स्थापित करने के अनेकानेक महत्वपूर्ण, सृष्टि संतुलन स्थापित करने के अनेकानेक महत्वपूर्ण प्रयोजन ऋषि स्तर के समर्थ व्यक्तियों द्वारा सम्पन्न होते रहे है।

समय-समय पर दैवी चेतना आत्मिक प्रगति के पथ पर चलने के जिज्ञासुओं को विश्वहितार्थाय जीवन जीने हेतु प्रेरणा देने के लिए, उनसे कुछ महत्वपूर्ण कार्य कराने के लिए ऋषियों को, श्रेष्ठ व्यक्तियों को मार्गदर्शक या माध्यम बनाकर अपना कार्य करती रही है। गुरु-शिष्य परम्परा के ऐसे ढेरों उदाहरण है जिनमें गुरु ने शिष्य की तलाश की क्योंकि वह सुपात्र था तथा उसे समुचित आध्यात्मिक सम्बल व पूँजी देकर उससे वह कार्य करा लिया। शिष्य तो निमित्त मात्र होता है किंतु चूँकि मार्गदर्शक सत्ता के समर्पित मन वाले पुरुषार्थी की नरतनधारी के रूप में आवश्यकता पड़ती ही है, उसका चयन भी उच्चस्तरीय निर्धारण के बाद ही होता है एवं फिर वह कठपुतली की तरह वह सब कुछ करता चला जाता है जो पर्दे के पीछे से बाजीगर की अंगुलियाँ कराती है। जब शिष्य प्रामाणिकता की कसौटी पर खरा उतरने लगता है तो उसी आधार पर क्रमशः उसे अधिकाधिक बड़े अनुदान मिलते चले जाते हैं। वरदान जिसे भी मिले है, दैवी अनुग्रह जिसे भी प्राप्त हुआ है, तप करने, अपनी पात्रता सिद्ध करने के उपरान्त ही मिले हैं।

सामान्यतया लोगों की दृष्टि बड़ी संकीर्ण होती है। जब भी वे किसी को लौकिक दृष्टि से घाटे में जाते व कड़ी तपश्चर्या में नियोजित होते देखते हैं तो परिवारी जनों से लेकर शुभचिन्तकों व अन्यान्य व्यक्तियों को पहली दृष्टि में यह एक सनक, समय की बरबादी, मूर्खता ही जान पड़ती है। पर इसमें इनका क्या दोष? बाद की संभावनाओं का आभास उन्हें कहाँ हो पाता है जो वे सामने उठाये जो रहे कदम को सराहें।

नारदजी ने ध्रुव, प्रहलाद, बाल्मीकि, पार्वती, सावित्री और सुकन्या को ऐसा ही उपदेश दिया था जो तत्काल उनके परिवार वालों को, हितैषियों को नहीं सुहाया, पर जो सत्परामर्श मिला उसने इन सभी को धन्य बना दिया। ब्रह्मर्षि विश्वामित्र द्वारा भी अपने शिष्य हरिश्चन्द्र को परीक्षा जब ली गयी तो उनके हर क्रिया−कलाप की किसने स्तुति की होगी। सत्य की कसौटी पर खरा उतरने के लिए नरमेध स्तर का जीवन यज्ञ रचाना पड़ सकता है, यह उन्हें ज्ञान था व यही उनने किया।

गुरु गोविन्द सिंह के पंचप्यारों को पहले तो बलिदान हेतु अग्रगमन का साहस दिखाना ही पड़ा, बाद में ही श्रेय-सम्मान के भागीदार बन गए।

ठाकुर रामकृष्ण अपने शिष्य नरेन को ढूँढ़ने उनके घर तक गये थे व बार-बार उससे यही कहा था कि “दुनिया भर को विद्या का पाठ पढ़ाने का जो काम मैं तुझे सौंपना चाहता हूँ वह छोड़कर, मेरी अवहेलना करके क्यों लौकिक शिक्षा के प्रपंचों में फँसा है।” बार-बार का बुलावा नरेन के अंतःकरण को हिला गया व न जाने कौन सी शक्ति उसे ठाकुर के पास, परमहंस के पास ले जाती रही व अंततः उसे विवेकानन्द बना कर छोड़ा। नरेन के घर वालों को परमहंस की राय भला अच्छी लगी थी? हर दृष्टि से घाटा ही घाटा था।

योगीराज अरविन्द को प्रत्यक्षतः किन-किन ने प्रेरणा दी, यह उनकी जीवन लीला से जुड़ा प्रसंग है पर परोक्ष सत्ता का, दिव्यचेतना का अवतरण निश्चित ही उनके अंतःकरण में हुआ व आई. सी .एस. उत्तीर्ण, आजादी का दीवाना नेशनल कॉलेज का प्राध्यापक, बड़ौदा स्टेट का दीवान वह व्यक्ति सब कुछ छोड़कर फक्कड़ बनकर सूक्ष्म वातावरण को प्रचण्ड तप ऊर्जा द्वारा गर्म करने के लिए वेदपुरी (महर्षि अगस्त्य की तपस्थली-पांडिचेरी) जा बसा एवं नूतन सृष्टि की ही संरचना कर डाली। समर्थ गुरु रामदास ने सह्याद्रि की पर्वत श्रृंखलाओं में लुका–छिपी की युद्ध-लीला रचने वाले, अनीति के पक्षधर आक्रांताओं से जूझने वाले शिवा के प्रसुप्त संस्कारों को पहचाना व उसके पास जा पहुँचे। अपनी भवानी तलवार उसे सौंपी व उसके माध्यम से एक सुरक्षित धर्मरक्षक समाज की संस्थापना की। यह सुनिश्चित तथ्य है कि गुरुसत्ता ही अपने योग्य शिष्य को ढूंढ़ने निकलती है व उसे श्रेयाधिकारी बना देती है।

भर्तृहरि ने तो अपने भांजे गोपीचन्द को ही बैरागी बना दिया था और मदालसा ने गुरु की तरह ही अपने बच्चों में वाँछित संस्कार डालकर उन्हें तत्वज्ञानी ऋषि बनाया। जब पति ने आपत्ति प्रकट की कि एक बालक तो कम से कम राज्य चलाने योग्य बने तो उसने एक को राजा बनने योग्य गुणों से विभूषित कर दिया। बुद्ध का अनुग्रह जब अम्बपाली पर, अशोक पर, राहुल पर, आनन्द पर बरसा तो उनको ऐश्वर्य की अभिवृद्धि तो दूर, भिक्षुक बनना तक स्वीकार कर जीवन जीना शानदार लगा। दिव्य सत्ताओं का अनुग्रह इसी स्तर का होता है।

थ्वव के चूड़ामणि में एक सूत्र आता है

दुर्लभ त्रयमेतत् देवानुग्रह हैतुकम्। मनुष्यत्वं मुमुक्षत्वं महापुरुष संश्रयः॥

अर्थात्-मनुष्य जीवन पाने के बाद तीन बातें दैवी अनुग्रह की प्रगति हेतु बड़ी दुर्लभता से प्राप्त होती हैं-मनुष्यत्व-मानवी गरिमा के अनुरूप जीवन जीने की योग्यता, मुमुक्षत्व-उच्च जीवन जीने की अभीप्सा एवं तीसरा महापुरुष संश्रयः अर्थात् महापुरुषों का सान्निध्य, उनका संरक्षण। प्रथम दो गुण अपने शिष्य में पाकर गुरुसत्ता धन्य हो गई एवं शिष्य श्रीराम पर अपना सारा अनुग्रह उड़ेलकर चली गई। उन्हीं श्रीराम ने इस युग के निष्कलंक अवतार ने अपने परोक्ष मार्गदर्शक द्वारा दी गई विभूति को असंख्यों शिष्यों में बाँटकर उन्हें निहाल कर दिया। अपने अस्सी वर्ष के जीवन में जितना उनने वितरित कर दिया, अपना आपा तक उड़ेल दिया है कि उस अनुदान को, कर्ज के एक शताँश को भी चुकाया जा सका तो हम सबका उनके समय में आना सार्थक हो जाएगा।


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