पुण्यतोया गंगा उनकी प्रेरणा स्रोत बनी

August 1990

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गोमुख तक की यात्रा अब बड़ी सरल एवं सुगम हो गयी है। यात्रा के महीनों में हजारों व्यक्ति वहाँ तक होकर आते हैं। मात्र एक पहाड़ से निकलते उद्गम को देखने नहीं, पूज्य गुरुदेव ने अपनी हिमालय यात्रा जिस उद्देश्य से की थी, उसका अपनी लेखनी से ऐसा भाव भरा चित्रण अपनी निम्न लिखित इन पंक्तियों में किया है, जो सुनसान के सहचर, पुस्तक में उन दिनों छपी थीं, कि बार बार जाने व उस नयनाभिराम दृश्य का अवलोकन कर पुण्यतोया भागीरथी में कई डुबकियाँ लगाने की मन में हूक सी उठने लगती है।

“आज माता गंगा के मूल उद्गम को देखने की चिर अभिलाषा पूरी हुई। गंगोत्री तक पहुँचने में जितना कठिन मार्ग मिला था, उससे कहीं अधिक दुर्गम यह गंगोत्री से गोमुख तक का अठारह मील का टुकड़ा है। गंगोत्री तक के रास्ते में तो जब टूट-फूट होती है, तो सरकारी सड़क विभाग के कर्मचारी ठीक करते रहते हैं, पर उपेक्षित मार्ग को जिसमें बहुत कम लोग ही कभी-कभी जाते हैं कौन सुधारे। पर्वतीय मार्गों को हर साल बिगड़ना ही ठहरा। यदि एक दो वर्ष उनकी उपेक्षा रहे तो वे काफी जटिल हो जाते हैं। कई जगह तो रास्ते ऐसे टूट गये थे, कि वहाँ से गुजरना जीवन के साथ जुआ खेलने के समान था। एक पैर फिसलने की देर थी कि जीवन का अन्त ही समझना चाहिए।

जिस हिमस्तूप(ग्लेशियर) से गंगा की छोटी सी धारा निकलती है, वह नीले रंग की है। गंगा माता का यह उद्गम हिमाच्छादित गिरिश्रृंगों से बहुत ही शोभनीय प्रतीत होता है। धारा का दर्शन एक साधारण से झरने के रूप में होता है। वह है तो पतली सी ही, पर वेग बहुत है। कहते हैं कि यह धारा कैलाश से-शिवजी की जटाओं से आती है। कैलाश से गंगोत्री तक का सैकड़ों मील का रास्ता गंगा भीतर ही भीतर पार करती है और उसे करोड़ों टन ग्लेशियर का दबाव सहन करना पड़ता है। इसी से धारा इतनी तीव्र निकलती है। जो हो भावुक हृदय के लिए यह धारा ऐसी ही लगती है, मानों माता की छाती से दूध की धारा निकलती है, उसे पान करके इसी में निमग्न हो जाने की ऐसी ही हूक उठती है, जैसे गंगा-लहरी के रचयिता जगन्नाथ मिश्र के मन में उठी थी और स्वरचित गंगा-लहरी का एक-एक श्लोक का गान करते हुए एक-एक कदम उठाते गंगा और अन्तिम श्लोक गति हुए भावावेश में माता गंगा की गोद में ही विलीन हो गये। वे कहते हैं कि स्वामी रामतीर्थ भी ऐसे ही भावावेश में माता की गोद में कूद पड़े थे और जल-समाधि ले गये थे।

अपनी हूक मैंने पान और स्नान से ही शान्त की। रास्ते भर उमंगें और भावनाएँ भी गंगा जल की भाँति हिलोरें लेती रहीं। अनेक विचार आते और जाते रहे। इस समय एक महत्वपूर्ण विचार मन में आया, उसे लिपिबद्ध करने का लोभ संवरण न कर सका, इसलिए उसे लिख ही रहा हूँ।

सोचता हूँ कि यहाँ गोमुख में गंगा एक नन्हीं-सी पतली धारा मात्र है। रास्ते में हजारों झरने, नाले, नदी उससे मिलते गये हैं। उनमें से कई तो इस गंगा की मूल धारा से कइयों गुने अधिक बड़े हैं। उन सब के संयोग से ही गंगा इतनी बड़ी और चौड़ी हुई है, जितनी हरिद्वार, कानपुर प्रयाग आदि में दिखाई पड़ती है। उन में से बड़ी-बड़ी नहरें निकाली गई हैं। गोमुख के उद्गम का पानी तो उनमें से एक नहर कि लिए भी पर्याप्त नहीं हो सकता। यदि कोई नहर-नाले रास्ते में उसे न मिले तो संभवतः सौ-पचास मील की मिट्टी ही उसे सोख ले और आगे बढ़ने का अवसर ही न रहे। गंगा महान है- अवश्य ही महान है, क्योंकि वह नदी-नाले को अपने स्नेह बन्धन से बाँध सकने में समर्थ हुई। उसने अपनी उदारता का अंचल फैलाया और छोटे-छोटे झरनों-नालों का भी अपने बाहुपाश से आबद्ध करके छाती से चिपटाती चली गई। उसने गुण-दोषों की परवाह किये बिना सभी को अपने उदर-अंचल में स्थान दिया। जिसके अन्तर में आत्मीयता की स्नेह-सौजन्य की अगाध मात्रा भरी पड़ी है, उस जल राशि की कमी कैसे पड़ सकती है। दीपक जब स्वयं जलता है, तो पतंगे भी उस पर जलने को तैयार हो जाते हैं। गंगा जब परमार्थ के उद्देश्य से संसार में शीतलता फैलाने निकली है, तो क्यों न नदी-नाले भी उसकी आत्मा में अपनी आत्मा की आहुति देंगे? गाँधी, बुद्धि, ईसा की गंगाओं में कितनी आत्माएँ आज अपने को आत्मसात् करा चुकी हैं, यह सभी को स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहा है।

गंगा की सतह सबसे नीची है, इसलिए नदी-नालों का गिर सकना संभव हुआ। यदि उसने अपने को नीचा न बनाया होता, सबसे ऊपर उठ कर चलती, अपना स्तर ऊँचा रखती तो फिर नदी-नाले तुच्छ होते हुए भी उसके अहंकार को सहन न करते, उससे ईर्ष्या करते और अपना मुख दूसरी ओर मोड़ लेते। नदी-नालों की उदारता है सही-उनका त्याग प्रशंसनीय है सही, पर उन्हें उस उदारता और त्याग को चरितार्थ करने का अवसर गंगा ने अपने को नम्र बनाकर, नीचे स्तर पर रखकर ही दिया है। अन्य अनेकों महत्तायें गंगा कह हैं, पर यह एक महत्ता ही उसकी इतनी बड़ी है कि जितना भी अभिवादन किया जाय कम है।

नदी-नालों ने झरने-स्रोतों ने भी अपना अलग अस्तित्व कायम न रखने की, अपनी व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षाओं और कीर्ति स्थापित करने की लालसा को दमन करने की जो दूरदर्शिता की है, वह भी सर्वथा अभिनन्दनीय है। उन्होंने अपने को खोकर गंगा की क्षमता, महत्ता, और कीर्ति बढ़ाई। सामूहिकता का, एकत्रीकरण का, मिलजुल कर काम करने का महत्व समझा, इस के लिए उनकी जितनी प्रशंसा की जाय कम है। संगठन में ही शक्ति है, यह उन्होंने वाणी से नहीं, मन से नहीं प्रत्यक्ष क्रिया से कर दिखाया। कर्मवीरता इसे ही कहते हैं। आत्म त्याग के इस अनुपम आदर्श में जितनी महानता है, उतनी ही दूरदर्शिता भी है। यदि वे अपना अलग अस्तित्व बनाये रहने पर अड़े रहते, सोचते जो मेरी क्षमता है, उसका यश मुझे ही मिलना चाहिए और गंगा में मिलने से इन्कार कर देते, अवश्य ही उनका अपना अस्तित्व भी अलग रहता और नाम भी। पर वह होता इतना छोटा कि उसे उपेक्षणीय और नगण्य ही माना जाता उस दशा में उस जल को गंगा जल कोई नहीं कहता और उसका चरणामृत सिर पर चढ़ाने को कोई लालायित न रहता।

गोमुख पर आज जिस पुनीत जल धारा में माता गंगा का दर्शन मज्जन मैंने किया, वह तो उद्गम मात्र था। पुरी गंगा तो सहस्रों नदी-नालों के संगठन से सामूहिकता का कार्यक्रम लेकर चलने पर बनी है। गंगा सागर ने उसी का स्वागत किया है। सारी दुनिया उसी को पूजती है। गोमुख की तलाश में तो मुझ जैसे चन्द आदमी ही पहुँच पाते हैं।

गंगा और नदी-नालों के सम्मिश्रण का महान परिणाम यदि सर्वसाधारण की, नेता और अनुयायियों की समझ में आ जाये लोग सामूहिकता के, सामाजिकता के महत्व को हृदयंगम कर सकें, तो एक ऐसी ही पवित्र पापनाशिनी, लोकतारिणी संघशक्ति का प्रादुर्भाव हो सकता है, जैसा गंगा का हुआ है।


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