सिद्धान्त और साधना को शब्द मिलें

August 1990

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अखण्ड ज्योति पत्रिका में प्रारंभिक वर्ष में अन्दर के टाइटिल पृष्ठ पर दो पंक्तियाँ निकलती थी जिनका हवाला इस विशेषाँक के प्रारंभ में दिया गया था

सुधा बीज बोने से पहिले, कालकूट पीना होगा। पहिन मौत का मुकुट, विश्वहित मानव को जीना होगा।

ये पंक्तियाँ नहीं, सूत्र संचालक की संकल्पशक्ति की परिचायक सूक्ति है जो बताती है कि वे किस लक्ष्य को लेकर लेखन क्षेत्र में कूदे थे। श्रद्धासिक्त भाव क्षेत्र में अमृत बीज बोने के लिए वे आए थे किन्तु इसके लिए अनिवार्य सावधानियाँ भी बताते है कि शिव की तरह गरल विषपान (गूढ़ मान्यताओं, अंधविश्वासों प्रतिगामी विचारधाराओं का) उन्हें व उनके पाठक गणों को करना होगा। विश्व हितार्थाय जीने के लिए सिर पर मौत का मुकुट पहन कर, खतरा उठा कर भी चलना होगा। यह अध्यात्म क्षेत्र में उतरने वालों के लिए एक चेतावनी भी थी व दुस्साहसी साधकों को आमंत्रण भी। गुरुदेव कहते थे-”मिट्टी का है देह-दीप जलना मेरा इतिहास है “यह उनकी ही लिखी उन दिनों की कविताओं की एक पंक्ति है। कितना प्रचण्ड आत्मबल सम्पन्न रहा होगा, यह व्यक्ति जो प्रचलनों के विपरीत चलने का साहस स्वयं ही नहीं कर रहा था, अपनी नाव पर औरों को भी बैठने का आमंत्रण सतत् दे रहा था।

अगले ही वर्ष जब वे आगरा से मथुरा चले आए तो कागज के अभाव में हाथ से बने कागज व हैण्डप्रेस से स्वयं छाप कर पत्रिका जन जन तक पहुँचानी आरंभ की साथ ही अपनी वे प्रथम पंक्तियाँ इस प्रकार कर दी-

“सन्देश नहीं मैं स्वर्ग लोक का लाई। इस भूतल को ही स्वर्ग बनाने आई॥”

अखण्ड ज्योति के आह्वान को इस रूप में बदलने का क्या मर्म हो सकता है, यह गहन विश्लेषण का विषय है पर इसमें कोई सन्देह नहीं कि देवत्व से अभिपूरित विचार जो इस पत्रिका द्वारा जन-जन तक पहुँचते थे, वे धरती पर स्वर्ग जैसी परिस्थिति का ही निर्माण कर रहे थे। पाठकों को न केवल आन्तरिक उल्लास की अनुभूति होती थी वरन् वे औरों से चर्चा कर उसका विस्तार ही करते थे। संभवतः पहले निमंत्रण को बड़ा चुनौती भरा मानकर विश्व युद्ध की विभीषिका का इल समीप आते देख उनने पहले ही इसकी भविष्यवाणी कर दी थी कि नवयुग का आगमन सन्निकट है जिसमें सब की मनःस्थिति बदली हुई होगी व परिस्थितियाँ भी स्वयं तब बदल जायेगी। आगे वर्षों तक यही आह्वान पत्रिका पर आता रहा।

प्रगति यात्रा चल रही थी। क्रमशः परिजनों का समुदाय एकत्र होता जा रहा था। फरवरी 1947 के अंक में उनने लिखा कि साधु बाबाओं, ताँत्रिकों, मांत्रिकों और चमत्कारी फकीरों की पोल खोलने का समय अब समीप आ गया है। नोट दूने करने वाले, ताम्बे से सोना बनाने वाले, मन की बात जान कर आशीर्वाद देकर माला ड़ड़ड़ड़ कर देने वाले धूर्त आज भी अपना उल्लू सीधा करते देखे जाते है। लोग उन के हाथों लुट कर शर्म के कारण या उनके चंगुल में फँसे रहने के कारण सही बात नहीं बताते। इन सबकी पोल खोलते हुए इस विशेषाँक में उनने सबको सतर्क किया था कि यह अध्यात्म नहीं है। इस प्रवृत्ति से सतर्क रहें व औरों को भी सावधान करें।

अपनी पत्रिका में उनने लिखा कि “पूरे भारत वर्ष की यात्रा करने के बाद खरे खोटे का अन्तर हमारी समझ में आ गया है। उचित यही है कि धूर्त लोग जिन हथकण्डों को अपनाते है, उनका रहस्योद्घाटन सार्वजनिक रूप से कर दिया जाय ताकि सर्वसाधारण ठगी के इस जंजाल से बचे। एक दो व्यक्तियों को बताने से तो वे संभवतः इसकी आड़ में धन्धा कर सकते थे, पर सार्वजनिक रूप से बताने पर ऐसा नहीं होगा।” इन्हीं दिनों योग के नाम पर मायाचार नामक पुस्तक उनने प्रकाशित की। सद्ज्ञान ग्रन्थ माला के इस सड़सठवें पुष्प के 1947 में प्रकाशित होने के साथ ही जादूगरी का छल” “जीवन की गूढ़ गुत्थियों पर ताँत्रिक प्रकाश” “वैज्ञानिक अध्यात्मवाद” “गायत्री की दिव्य सिद्धियाँ” “श्री समृद्धि-शक्ति के अनुदान” “गायत्री ही कामधेनु है” जैसी पुस्तकें भी प्रकाशित हुई। स्पष्ट था कि सिद्धि चमत्कारों को लेकर आमतौर पर लोगों के मन मस्तिष्क में बैठी दुर्बलता को मिटाने व उसके स्थान पर अध्यात्म के सशक्त पक्ष को उभारने में लगे थे। गायत्री का तत्वज्ञान लिखने के पहले उनने उस कूड़े की सफाई की जो मन मस्तिष्क में संव्याप्त था।

अध्यात्म दर्शन पर आधारित इस पत्रिका में मात्र आत्मा परमात्मा, परलोक पुनर्जन्म का ही विवेचन नहीं था अपितु उनने शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवार निर्माण मनोविज्ञान, राजनीति, समाज शास्त्र सभी को अध्यात्म के घेरे में लेकर उसकी ऐसी सटीक व्याख्या प्रस्तुत करना आरंभ कर दी थी कि वह सुग्राह्य शैली सहज ही सबके गले उतरती चली गई। वर्ष में एक पूरा अंक मनोविज्ञान को समर्पित रहता था जिसमें मनोवैज्ञानिक विधियों द्वारा व्यक्तित्व विकास के रहस्य समझाए गए थे। स्वास्थ्य विशेषाँक में आहार विहार के संयम से लेकर रोगों का घरेलू उपचार, जीवनीशक्ति संवर्धन सब शामिल था। शिक्षा और परिवार निर्माण के भी गहराई तक प्रवेश कर अध्यात्म की परिधि में समझाया गया। जिन दिनों “वैज्ञानिक अध्यात्मवाद” शब्द लेखकों की लेखनी के नीचे आया भी नहीं था, उन दिनों वे योग साधना के वैज्ञानिक पक्ष को उद्घाटित करते हुए 64 पृष्ठ की एक किताब सन 1946 में ही प्रकाशित कर चुके थे। आज तो परिजन उसका बड़ा परिवर्धित स्वरूप पढ़ते व पाते हैं किन्तु उस जमाने के हिसाब से वह प्रस्तुतीकरण अनूठा था।

अपने अंग अवयव बने परिजनों को परिमार्जित करने के उनके प्रयास क्रमशः उत्तरोत्तर सघन होते चले गए। अध्यात्म साधना के प्राथमिक पाठों में आत्मशुद्धि व पात्रता संवर्धन की महत्ता समझाने के बाद उनने भारतीय धर्म और संस्कृति के प्रतीकों का मर्म समझाना आरम्भ किया। इस क्रम में शिखा और सूत्र की उपयोगिता, उन्हें धारण करने का विनम्र अनुरोध, उनका वैज्ञानिक आधार, गंगा-गौ गायत्री-गुरु गीता का महत्व स्वास्तिक, तुलसी, प्रतिमा, देवालय, तीर्थ, पर्व-संस्कार आदि सभी पक्षों पर महत्वपूर्ण विवेचन करते हुए शिक्षण संस्कार की प्रक्रिया चलाई।

अपनी इस पत्राचार साधना में वे क्रमशः आगे के पाठ, नया परामर्श पहले बताई गई दिशा धारा से आगे का निर्देशन ऐसे करते चले गए जैसे वे स्वयं सामने बैठ कर समझा रहे हों। पत्रकारिता की इस पत्राचार विद्या को अनूठा, अभूतपूर्व ही कहा जाएगा क्योंकि यह साधना जैसे गूढ़ तत्व पर आधारित थी।

दस वर्ष बाद ही पूज्य गुरुदेव ने “गायत्री चर्चा” शीर्षक से एक अलग स्तम्भ शुरू कर दिया था, जिसमें सामान्य गायत्री उपासना, संध्यावन्दन के उपचार, गायत्री जप की विधि, भावनाओं के परिष्कार परिमार्जन को प्राथमिकता जैसे विषयों से शुरुआत की। क्रमशः उच्चस्तर की ओर प्रेरित करते हुए गुरुदेव ने गायत्री के पाँच मुखों की प्रेरणा स्वरूप पाँच कोषों की साधना, तीन शरीरों के परिष्कार-उन्नयन की साधना, सावित्री तथा कुण्डलिनी साधना और आत्मा-परमात्मा के मेल-मिलन की साधना की विभिन्न दिशाओं में परिजनों को अग्रसर कर दिया। अब यह आश्चर्य का ही विषय है कि एक ही पत्रिका में सभी परिजनों को उनकी मनःस्थिति, प्रकृति, रुचि के अनुरूप साधना की सामग्री भी मिली और प्रेरणा थी। जो जिस पथ पर अग्रसर हो गया, उसे वही मार्ग प्रकाशित होता दिखाई देने लगा। सामान्य सी शैली में सामान्य ढंग से कोई बात कहकर हजारों भिन्न प्रकृति के व्यक्तियों का समाधान करने की क्षमता अलौकिक और दिव्य ही कहीं जाएगी।

“गायत्री चर्चा” के पन्नों पर प्रेरणा देते हुए उनने गायत्री महाशक्ति का जो तत्वज्ञान अपनी पत्रिका के पृष्ठों पर दिया था, उसे क्रमबद्ध कर उनने “गायत्री महाविज्ञान” पाठकों के समक्ष रखा। इसके पहले पाँच खण्ड लिखे गए फिर इसे परिवर्धित कर तीन खण्डों में प्रकाशित किया गया। गायत्री महाविद्या के ऊपर एक प्रामाणिक ग्रन्थ विश्वकोष यदि आज विश्व में कहीं है तो इस महाविज्ञान के रूप में विद्यमान है। इसके पूज्य गुरुदेव के महाप्रयाण तक 21 संस्करण निकल चुके थे एवं अंग्रेजी अनुवाद के भी, जो पिछले वर्ष ही छपा था, दो संस्करण पाठकों तक पहुँच चुके है। यह एक अमूल्य निधि के रूप पाठक समुदाय में पहुँचा क्योंकि अब तक आद्यशक्ति के सिद्धान्त एवं व्यवहार, साधना एवं तत्वज्ञान का समन्वित रूप कही देखने को नहीं मिला था।

महाविज्ञान के सृजन के साथ साथ ही पचासवें दशक के अंत में गुरुदेव संगठन पक्ष की नींव रखना प्रारंभ कर चुके थे। अतः उनने सामूहिक साधना पर विशेष ध्यान देने की चर्चा अपने विशेष स्तम्भ में करना आरंभ कर दी थी। अब तक उनकी स्वयं की कोई प्रशिक्षण स्थली भी मथुरा में नहीं थी, जिसमें वे आगन्तुक जिज्ञासुओं को ठहराते एवं संगठन की महत्ता समझाते, उनकी शंकाओं का समाधान करते अथवा परामर्श द्वारा प्रेरणा देते। जो भी परिजन आते वे घीयामण्डी मथुरा वाले घर में ही मिलने आते थे। स्थान छोटा था पर हर व्यक्ति उनका आतिथ्य पाकर जाता। न्यूनतम में अपना निर्वाह कर वे औरों का आतिथ्य कैसे कर पाते होंगे एवं साथ ही अपनी साधना का क्रम भी निर्बाध गति से चला कर पत्र परामर्श एवं सम्पादन कार्य भी करते रहे यह एक रहस्यमय प्रसंग है। जो भी उनके पास आया, वह उनके पास आया वह उनके एवं वन्दनीय माताजी के भाव भरे सत्कार एवं सत्परामर्श में निहाल हो कर उनका हो कर गया। अब वे आगन्तुकों की बढ़ती संख्या देखकर एक ऐसा सुसंस्कारित स्थान ढूँढ़ रहे थे जहाँ वे अपने लम्बे महापुरश्चरण की पूर्णाहुति कर सकें, साथ ही सुनियोजित सामूहिक साधना व शिक्षण क्रम भी चला सकें। यहीं से गायत्री तपोभूमि का शुभारम्भ माना जाना चाहिए। यह एक सहज संयोग नहीं है कि जिस वर्ष गायत्री महाविज्ञान खण्डों में प्रकाशित हुआ, उस वर्ष देश को स्वतंत्रता मिली एवं जब गणतंत्र बनने के बाद प्रथम अखिल भारतीय चुनाव प्रक्रिया की ओर बढ़ा तपोभूमि की स्थापना हुई।


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