सहस्र कुण्डीय यज्ञ के समय की बात है। मथुरा के ही एक (पण्डा) समुदाय की अड़ंगेबाजियाँ विरोध जारी था। इसे प्रायः हर दिन किसी न किसी बदले रूप में प्रस्तुत होना अनिवार्य था। एक दिन गुरूजी वंदनीया माता जी के साथ रिक्शे पर जा रहे थे। इसी समय इन्हीं विरोध करने वालों में से एक व्यक्ति ने छपा हुआ एक पर्चा माता जी के हाथों में थमा दिया। उन्होंने भड़काने वाली विरोधी बातों से लिखे इस पत्रक को बिना पढ़े ही फाड़ दिया।
उनका इस तरह पर्चा फाड़ना देखकर वह बोले-”अरे! आपने यह क्या किया? आपको मालूम नहीं उसमें क्या था?” हाँ बकवास थी” वंदनीया माताजी का उत्तर था। पर इससे क्या। माना कि उसमें बेकार बातें थी पर इस तरह तो देने वाले का अपमान हो गया। विरोधियों एवं सतत् अपमान की ही सोचने वालों के भी सम्मान का इतना ख्याल! माताजी उनका चेहरा देखने लगी।
तपोभूमि मथुरा में उस रोज सत्र की समाप्ति पर गुरुदेव का विदाई प्रवचन हो रहा था। सभी शान्तचित्त एकाग्र मन हो उनकी अमृत वाणी का पान कर रहे थे। भाव विह्वल स्वर में वह कह रहे थे “अब तुम लोग जाओगे यह तपोभूमि मुझे काटेगी। वह मुझसे पूछेगी तुम जिनके लिए आते थे वह कहाँ हैं? मैं क्या जवाब दूँगा।” शब्दों की मार्मिकता पर सभी फफक कर रो पड़े। उनकी भी आंखों से आँसू झर रहे थे। जिस किसी तरह अपने भाव को थामते हुए बोले” यह आंसुओं की धारा ही अपने संगठन को सींचेगी। उसे हरा-भरा बनाएगी। उनकी हर विदाई ऐसी ही करुण होती थी।
आज उनके न रहने पर लाखों नेत्रों से आंसुओं का सागर उमड़ पड़ा है। भले ही वह सूक्ष्म में हो, अनुभूतियाँ भी पूर्व की अपेक्षा गहन ही पर जिन आंखों ने उनकी एक झलक भी पायी है। वे क्या रोए बिना मानेगी। रोने दो नेत्रों को झरने दो प्रेमाश्रुओं की धारा जिससे सींच कर संगठन की हरियाली बढ़े। पर ध्यान रहे कर्मरत हाथ शिथिल न पड़ने पाएँ। ऊपर से हमें देख रहा है वह प्रेम का अगाध सागर। उसका सिर्फ एक ही नाम है-”रसौ वै सः”|