देश को स्वाधीनता मिल जाने के बाद, स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने वाले सैनिकों को पुरस्कृत, सम्मानित करने की बारी आयी। एक-एक करके सभी को पेन्शन, पदक, यात्रा भत्ता आदि सुविधाओं की व्यवस्था होने लगी। पू. गुरुदेव के पास भी एक अधिकारी पेन्शन आदि का प्रस्ताव लेकर आए। उनने कड़ाई से मना कर दिया। बाद में आज से ढाई वर्ष पूर्व शासन के उच्चाधिकारियों ने आकर स्वीकार करने का अत्यधिक आग्रह किया तो गुरुदेव बोले-”राष्ट्र के सम्मान चिह्न के रूप में मैं पदक तो रखे लेता हूँ पर किन्हीं सुविधाओं का उपयोग नहीं करूंगा। पेन्शन को आप राष्ट्रीय सुरक्षा निधि को देदें।” अधिकारी निस्पृहता के इस प्रतीक को कुछ देर ताकता रहा, फिर उनका निर्देश पालन कर वापस चला गया।