बहुमुखी व्यक्तित्व के, भंडार थे तुम। और सबका, श्रेष्ठतम श्रृंगार थे तुम॥ 1॥
और जो थे, थाह तक पाते नहीं हैं। क्या नहीं थे, यह समझ पाते नहीं हैं॥
आपका जिस क्षेत्र में भी, आगमन था। झाँकता उस क्षेत्र में ही बाँकपन था॥
व्यक्ति क्या थे, शक्ति का आगार थे तुम। बहु मुखी व्यक्तित्व के, भंडार थे तुम॥ 2॥
जब चलाई ‘लेखनी’, अद्भुत चलाई। व्यास! तुम ने गणपति बन कर उठाई॥
बेलने में वेद चारों ही मुखर थे। वाक्य क्या ये ऋचाओं जैसे प्रखर थे॥
ज्ञान के विज्ञान के आधार थे तुम। बहुमुखी व्यक्तित्व के भंडार थे तुम॥3॥
“साधना” करने तुले, तो की अनूठी। फिर अछूती साधना, कोई न छूटी॥
और गायत्री-उपासक, जग बनाया। भेद कोई भी, कभी आड़े न आया॥
मुक्ति का, सबके लिये ही द्वार थे तुम। बहु मुखी व्यक्तित्व के भंडार थे तुम॥4॥
“संगठन” ऐसे, किया परिवार निर्मित। जो न था कुल, जाति, धर्म, समाज सीमित॥
सृष्टि कर डाली, वसुधैव कुटुम्बकम् की। तोड़ दी दीवार, सारे भेद भ्रम की॥
भेद भावों से परे थे, प्यार थे तुम। बहु मुखी व्यक्तित्व, के भंडार थे तुम॥5॥
‘शिल्प’ करने जब, अनूठी साधना की। स्वर्ग से कम की, नहीं कुछ कल्पना की॥
अनूठे शिल्पी। तराशा मानवों को। गढ़, दिया तुमने सुगढ़, युग साधकों को।
देव परिकर को लिये, अवतार थे तुम। बहु मुखी व्यक्तित्व के, भंडार थे तुम॥6॥