सीखने की अद्भुत लगन

August 1990

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वातावरण में काफी उमस थी। बंगाल प्रान्त वैसे भी अपनी गर्मी के लिए प्रसिद्ध है। उस पर जेल, जिसका निर्माण ही तकलीफों में लगातार बढ़ोत्तरी करते जाने के लिए होता हैं। आसनसोल जेल की एक छोटी-सी कोठरी में मत जी उन दिनों अपने साथियों के साथ थे। मित्र-गण गर्मी की अकुलाहट कम करने के लिए विभिन्न चर्चाओं में मशगूल थे। कभी राजनीति की बातें होती, कभी व्यक्तिगत जीवन पर। बीच बीच में गर्मी को भी कोस लिया जाता।

सीखने की अद्भुत लगन

वह इन सबसे बेखबर हो एक कोने में बैठे तसले पर कंकड़ के सहारे कुछ लिख रहे थे। पास में ‘लीडर’ का एक पुराना अंक पड़ा था, जिसे कभी-कभी उलट-पुलट लेते। चर्चा में से उकताकर मित्रों में से एक का ध्यान उनकी ओर गया-”अरे! मत्त जी क्या करने में जुटे हैं।” “कुछ आड़ी-तिरछी रेखाएँ खींच रहे होंगे।” “देखो तो तनिक।” दूसरे का स्वर था। कथन के साथ ही एक सज्जन उठकर गए। पास पहुंचकर कंधा हिलाते हुए पूछा-”तसले पर क्या लिख रहे हैं। भाई!”

अंग्रेजी सीखने की कोशिश में लगा हूँ। चिर-परिचित मुसकान के साथ जवाब था।

अँग्रेजी! सुनकर सभी को आश्चर्य हुआ। यहाँ पर भला क्या तुक है, सीखने की। न तो कोई मास्टर है और न अनिवार्य पुस्तकें। स्याही कलम कागज कुछ भी तो नहीं है। तसले और कंकड़ के सहारे कहीं भाषा ज्ञान होता है। उनमें से एक ने पूरा लेक्चर झाड़ दिया।

“लगता है 1936 में ही लन्दन जाने वाले हैं।” एक ने व्यंग किया “शायद शेक्सपियर, मिल्टन बनने का इरादा हो।” दूसरे ने समर्थन दिया। जितने मुँह उतनी बातें। ठीक भी है प्रगति पथ पर बढ़ रहे कदमों के सहायक तो विरले महामानव होते हैं। बहुसंख्यक तो ऐसे ही हैं, जो निराशा जगाएँ। पर लगनशीलों के लिए तो अवरोध भी गन्तव्य का सोपान बनते हैं।

न न आप लोग ऐसी बातें मत कीजिए। अब तक की चर्चा में सर्वथा विरत रहे एक अन्य बन्दी ने अपनी बात कही। वह पहले भी कई जेलों में राजबन्दी के रूप में रह चुका था।

सब का ध्यान उसकी ओर मुड़ गया। वह कह रहा था-’उन दिनों मैं बिनोवा जी के साथ तेलंगाना की एक जेल में था। एक दिन सुबह-सुबह सब ने सुना विनोबा जी बड़े जोर-जोर से वर्णमाला के अक्षर रट रहे हैं। कभी-कभी दो अक्षरों को मिलाकर पढ़ने का प्रयास भी चलता। स्लेट पर खड़िया के सहारे कुछ लिखते भी थे। जिसने सुना वही हँसा, बहुतों को आश्चर्य भी हुआ। किसी की समझ में नहीं आ रहा था, आखिर विनोबा को यह क्यों सूझी। बाद में पूछने पर पता चला कि वह तमिल सीख रहे हैं। “उन्होंने सीखने सीख ली तमिल।” सुनने वालों में से किसी ने अपना आश्चर्य प्रकट किया। तमिल ही क्यों इस तरह विश्व की तेईस भाषाएँ सीखी हैं। अभी तुम लोग इस तरह की बातें करते हो-देख लेना एक दिन यह व्यक्ति भी विश्व के गिने-चुने विद्वानों में अग्रणी होगा।

विनोबा जी का सादृश्य उपस्थित हो जाने पर सभी की बोलती बन्द हो गई। उन्हें अपनी भूल समझ में आ रही थी। अब उनको तसला, कंकड़, लीडर की पुरानी प्रति उपेक्षणीय न लगकर लगन निष्ठा के प्रतीक लगने लगे थे। “माफ करना भाई! हम तुम्हारी सीखने के प्रति अद्भुत निष्ठा को पहचान न सके थे।” व्यंग करने वाले ने क्षमा-याचना के स्वर में कहा।

अरे, नहीं-नहीं। उनके एक ठहाके ने वातावरण को पुनः सामान्य कर दिया। सीखने के प्रति अपनी इसी अनोखी निष्ठा के कारण उस समय के मत जी को कालान्तर में सभी ने वेदमूर्ति (मूर्तमान ज्ञान) के रूप में जाना।


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