देख दुर्दशा माता की, जल आँखों में भर आया। सिंहासन पर लात मार कर, भिक्षा-पात्र उठाया॥
छोड़ राज प्रासाद पिता का, घर-घर अलख जगाया। समझाया “स्वाधीन बनो” जो तेरे पथ पर आया॥
ओ, इस युग के बुद्ध-तपस्वी, मौन, साधनाकारी। ‘बंधन से निर्वाण’ सिखाती, वाणी वीर तुम्हारी॥
हुई एक से एक बड़ी तेरी अनुपम कुर्बानी। आज और क्या देने आया ओ दधीचि से दानी॥
-श्रीराम ‘मत्त’