दधीचि से दानी (Kavita)

August 1990

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देख दुर्दशा माता की, जल आँखों में भर आया। सिंहासन पर लात मार कर, भिक्षा-पात्र उठाया॥

छोड़ राज प्रासाद पिता का, घर-घर अलख जगाया। समझाया “स्वाधीन बनो” जो तेरे पथ पर आया॥

ओ, इस युग के बुद्ध-तपस्वी, मौन, साधनाकारी। ‘बंधन से निर्वाण’ सिखाती, वाणी वीर तुम्हारी॥

हुई एक से एक बड़ी तेरी अनुपम कुर्बानी। आज और क्या देने आया ओ दधीचि से दानी॥

-श्रीराम ‘मत्त’


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