गायत्री की पंचकोशी साधना एवं उपलब्धियां

स्पर्श- साधना

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१- बर्फ या कोई अन्य शीतल वस्तु शरीर पर एक  मिनट लगा कर फिर उसे उठावें और दो मिनट तक  अनुभव करें कि वह ठण्डक मिल रही है। सह्य उष्णता  का गरम किया हुआ पत्थर का टुकड़ा शरीर से स्पर्श  कराकर उसकी अनुभूति कायम रहने की भावना करनी  चाहिए। पंखा झलकर हवा करना, चिकना काँच का  ध्यान रखना भी इस प्रकार का अभ्यास है। ब्रुश से  रगड़ना, लोहे का गोला उठाना, जैसे अभ्यासों से इसी  प्रकार की जान भावना की जा सकती है।

२- किसी समतल भूमि पर एक बहुत ही मुलायम  गद्दा बिछाकर उस पर चित्त लेटे रहिये, कुछ देर तक  उसकी कोमलता का स्पर्श सुख अनुभव करते रहिये,  इसके बाद बिना गद्दा की कठोर जमीन या तख्त पर  लेट जाइये। कठोर भूमि पर पड़े रहकर कोमल गद्दे के  स्पर्श की भावना कीजिए फिर पलटकर गद्दे पर आ  जाइये और कठोर भूमि की कल्पना कीजिए। इस प्रकार  भिन्न परिस्थिति में भिन्न वातावरण की भावना से  तितिक्षा की सिद्धि मिलती है। स्पर्श- साधना की सफलता  से शारीरिक कष्टों को हँसते-हँसते सहने की शक्ति पैदा होती है।

स्पर्श-साधना से तितिक्षा की सिद्धि मिलती है। सर्दी  गर्मी, वर्षा, चोट, फोड़ा, दर्द आदि से जो शरीर को कष्ट  होते हैं। उनका कारण त्वचा में जल की तरह फैले हुए  ज्ञान- तन्तु ही हैं यह ज्ञान तन्तु छोटे से आघात, कष्ट या  अनुभव को मस्तिष्क तक पहुँचाते हैं, तद्नुसार मस्तिष्क  को पीड़ा का भान होने लगता है। कोकीन का इन्जेक्शन  लगाकर इन ज्ञान तन्तुओं को शिथिल कर दिया जाय तो  ऑपरेशन करने में भी उस स्थान पर पीड़ा नहीं होती।  कोकीन इन्जेक्शन तो शरीर को पीछे से हानि भी  पहुँचाता है पर स्पर्श साधना द्वारा प्राप्त हुई ज्ञान- तन्तु  नियन्त्रण शक्ति किसी प्रकार की हानि पहुँचाना तो दूर  उल्टी नाड़ी संस्थान के अनेक विकारों को दूर करने में  सफल होती है, साथ ही शारीरिक पीड़ाओं का भान भी  नहीं होने देती।

भीष्म पितामह उत्तरायण सूर्य आने की प्रतीक्षा में  कई महीने वाणों से छिदे हुए पड़े रहे थे। तिल-तिल शरीर में बाण लगे थे फिर भी कष्ट से चिल्लाना तो दूर  वे उपस्थित लोगों को बड़े ही गढ़ विषयों का उपदेश देते  रहे। ऐसा करना उनके लिए तभी सम्भव हो सका जब  उन्हें तितिक्षा की सिद्धि थी अन्यथा हजारों बाणों में छिदा  होना तो दूर एक सुई या काँटा लग जाने पर लोग होश  हवास भूल जाते हैं

स्पर्श- साधना से चित्त की वृत्तियाँ एकाग्र होती हैं  मन को वश में करने से जो लाभ मिलते हैं उनके  अतिरिक्त तितिक्षा की सिद्धि भी साथ में हो जाती है जिससे  कर्मयोग एवं प्रकृति प्रवाह से शरीर को होने वाले कष्टों  को भोगने से साधक बच जाता है।

मन को आज्ञानुवर्ती नियन्त्रित अनुशासित बनाना  जीवन को सफल बनाने की अत्यन्त महत्वपूर्ण समस्या  है। अपना दृष्टिकोण चाहे आध्यात्मिक हो, चाहे भौतिक,  चाहे अपनी प्रवृत्तियों परमार्थ की ओर हों या स्वार्थ की  ओर, मन का नियन्त्रण हर स्थिति में आवश्यक है।  उच्छ्रंखल चंचल या अव्यवस्थित मन से न लोक न  परलोक, कुछ भी नहीं मिल सकता। मनोनिग्रह प्रत्येक  व्यक्ति के लिए आवश्यक है।

मानसिक अव्यवस्था दूर करके मनोबल प्राप्त  करने के लिए इस प्रकार जो साधनायें बताई गई हैं, वे  बड़ी उपयोगी सरल एवं सर्व- सुलभ हैं। ध्यान त्राटक जप  एवं तन्मात्रा साधना से मन की चढ़ता दूर होती है साथ  ही चमत्कारी सिद्धियाँ भी मिलती हैं। इस प्रकार पाश्चात्य  योगियों की मैस्मरेजम के तरीके से की गई मन साधनाओं  की अपेक्षा भारतीय विधि की योग पद्धति से की गई  साधना, द्विगुणित लाभदायक होती है।  वश में किया हुआ मन सबसे बड़ा मित्र है वह  सांसारिक और आत्मिक दोनों ही प्रकार के अनेक ऐसे  अद्भुत उपहार निरन्तर प्रदान करता रहता है जिन्हें  पाकर मानव- जीवन धन्य हो जाता है। सुरलोक में ऐसा  कल्पवृक्ष बताया जाता है जिसके नीचे बैठकर मनचाही  कामनायें पूरी हो जाती हैं। मृत्युलोक में, वश में किया  मन ही कल्पवृक्ष है। यह परम सौभाग्य जिसे प्राप्त  हो गया अनन्त ऐश्वर्य का आधिपत्य ही प्राप्त हो गया  समझिये।

अनियन्त्रित मन अनेक विपत्तियों की जड़ है।  अग्नि जहाँ रखी जायेगी उसी स्थान को जलावेगी। जिस  देह में असंयत मन रहेगा उसमें नित नई विपत्तियों,  कठिनाइयाँ, आपदायें, बुराइयाँ बरसती रहेंगी। इसलिए  अध्यात्म विद्या के विद्वानों ने मन को वश में करने की  साधना को बहुत ही महत्त्वपूर्ण माना है। गायत्री का तृतीय  मुख मनोमय कोश है। इस कोश को सुव्यवस्थित कर  लेना मानो तीसरे बन्धन को खोल लेना है, आत्मोन्नति  की तीसरी कक्षा पार कर लेना है।

स्पर्श योग के साधक को चाहिए कि वह  साधना के कमरे में एक तख्ते पर अच्छा कोमल गद्दा  लगा ले और दूसरे तख्ते को नंगा रहने दे। पहले कोमल  गद्दे पर एकान्त में चित्त लेट रहे। सारे ध्यान को गद्दे के  स्पर्श कर एकत्र कर दे। चाहें तो किसी भी मन्त्र का जप  कर सकता है। बिना हिले गद्दे पर उतनी देर पड़ा रहे  जितनी देर में शरीर करवट बदलने के लिए आकुल हो  उठे। उस समय गद्दे का स्पर्श अप्रिय प्रतीत होगा। वहाँ  से उठकर तख्ते पर जाकर लेट रहे और संकल्प के द्वारा  अनुभव करने का प्रयत्न करें कि तख्ते का स्पर्श भी गद्दे  के समान कोमल है। तख्ते से थकने पर पुन: गद्दे पर  आ जाना चहिए और उसमें तख्ते की कठोरता की भावना  करनी चहिए। धीरे-धीरे इस अभ्यास को बढ़ाना चाहिये।

थोड़े दिनों में अभ्यास हो जाने पर गद्दे और तख्ते  के स्पर्श का अनुभव इच्छानुसार विनियमित हो जाया  करेगा। जब ऐसा ही हो जावे तो गद्दे के ऊपर अच्छी  बुनी हुई रुई या पुष्प बिछालों और तख्ते को हटाकर  पृथ्वी पर छोटी-छोटी कंकडि़या डाल लो। पूर्वोक्त रीति से  दोनों में एक-दूसरे के स्पर्श का अनुभव करने का प्रयत्न  करो। इसका परिणाम यह होगा कि साधक के लिये पुष्पों  पर या काँटों पर शयन करना समान हो जावेगा।

स्पर्श योग के साधक को फाल्गुन के महीने से  केवल कौपीन धारण कर लेना चाहिए। दूसरा कोई वस्त्र  न रखे। वृक्षो के नीचे ही रात्रि दिन रहे। गर्मी में धूप  और वर्षा में जल का सहन करे। ऐसा करने से जाड़े में  शीत का भी सहन हो जायेगा। रहने के लिए गुफा  कुटी, छप्पर कुछ न बनावे। शरीर में तेल न लगावे।   केश कटावे नहीं। मिट्टी मलकर स्वच्छ कर लिया करे।  स्पर्श योग का साधन तपस्या है। शीतोष्ण एवं मृदु कठिन  सब प्रकार के विषय स्पर्शों को बदलते हुए त्वक् पर  विजय प्राप्त करना है निरन्तर अभ्यास से जब त्वगेन्द्रिय  पर विजय हो जायेगी तो कोई भी स्पर्श ज्ञात न होगा।  इच्छा करने पर शीत भी उष्ण एवं उष्ण भी शीत का  अनुभव देगा। इस तितिक्षा और भावना के फल स्वरूप  अद्भुव एवं दिव्य स्पर्शों की जागृति होगी। अकस्मात्  सुखकर स्पर्शों का अनुभव होने लगेगा। साधक को  प्रलुब्ध होकर उन्हीं में स्थित रहने का प्रयत्न नहीं  करना चाहिए। निरपेक्ष रहकर अपनी तितिक्षा को प्रबल  करते जाना चाहिए। फलत: मन की शक्ति क्षीण हो  जायेगी और साधक को अन्त:स्पर्श प्राप्त होगा। यहाँ वह  परमानन्द का अनुभव करेगा।
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