गायत्री की पंचकोशी साधना एवं उपलब्धियां

प्राणायाम से प्राणमय कोश का परिष्कार

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उच्चस्तरीय योग साधना में प्राणायाम साधना का अपना महत्व है। दैनिक कृत्यों में उसे ऐसे ही रेचक, कुम्भक, पूरक के नित्य कर्म में संयुक्त रखा जा सकता है। फेफड़ों के व्यायाम के लिए-डीप ब्रीदिंग-लम्बी साँस लेने की कई पद्धतियाँ देश-विदेश में इन दिनों बहुत लोकप्रिय और लाभप्रद सिद्ध हो रही हैं। शिथिलासन के साथ किया जाने वाला प्राणाकर्षण प्राणायाम अपनी उपयोगिता के लिए प्रख्यात है। चौरासी सामान्य और उनमें से चुने हुए आठ विशिष्टों की चर्चा साधना ग्रन्थों में मिलती है। नाड़ी शोधन, लोम विलोम, सूर्यभेदन साधनाएँ भी प्राण विद्या के अन्तर्गत ही आती हैं। इनमें से पंचकोशी साधना के अन्तर्गत प्राणमय कोश के परिष्कार के लिए किसे कौन सा प्राणायाम करना चाहिए उसका विधान साधकों की शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक स्थिति को परख करके ही बताया जा सकता है। कोश साधना में सभी को एक लाठी से नहीं हाँका जा सकता।

इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना तीन प्राण नाड़ियाँ प्रधान हैं। इसके अतिरिक्त दश विशिष्ट हैं। सामान्यों की संख्या बहुत अधिक है। इन्हें किस प्रयोजन के लिए किस प्रकार उपयोग में लाकर प्राणमय कोश का कौन-सा पक्ष तीव्र एवं मन्द किया जाना चाहिये, इसका उल्लेख यहाँ न करके इन पंक्तियों में इतना ही कहा जा सकता है कि प्राण विद्या के अन्तर्गत प्राणायाम प्रक्रिया का सहारा लेकर प्राणमय कोश की समग्र एवं आंशिक साधना की जा सकती है। प्राणायाम दीखने में ही सामान्य लगता है, पर यदि उच्चस्तरीय विधान के आधार पर साधा जाए तो शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक प्रगति के लिए उससे महत्वपूर्ण लाभ उठाया जा सकता है।

प्राण तत्व का मनःसंस्थान से घनिष्ट सम्बन्ध है। साहसिकता के अभाव में मन दुर्बल पड़ता है, उसकी चिंतनशीलता व सक्रियता शिथिल पड़ जाती है। शरीर से दुर्बल होने पर भी मनस्वी व्यक्ति सुदृढ़ होता है। इसके विपरीत काया की दृष्टि सें सुदृढ़ व्यक्ति भी मनोबल के अभाव में दीन-हीन, अकर्मण्य निराश भयभीत बना रहता है। प्राण-शक्ति ही साहस बनकर उभरती और मनोबल का आधार बनती है।

मन पर नियन्त्रण कर सकने वाला अंकुश उसके-साथी प्राण के ही हाथ में है। मन की चंचलता प्रसिद्ध हैं, वह क्षण-क्षण में अस्त-व्यस्त बना इतस्ततः उड़ता रहता है। एक स्थान पर न टिक पाने से किसी महत्वपूर्ण दिशा में गम्भीरतापूर्वक सोच सकना और तन्मयतापूर्वक प्रस्तुत कार्य कर सकना संभव नहीं होता। एकाग्रता और तत्परता बिना किसी भी कार्य में सफलता नहीं मिल सकती। जीवन के सभी महत्वपूर्ण कार्य दत्त-चित्त होकर करने से ही सम्पन्न होते हैं। चंचलता प्रगति पथ की सबसे बड़ी बाधा है। इसके रहते हुए सुयोग्य व्यक्ति भी पग-पग पर ठोकरें खाते और असफल रहते देखे जाते हैं। भौतिक क्षेत्र की भाँति आत्मिक क्षेत्र की सफलताएँ भी चंचलता के निरोध पर निर्भर हैं। योग की परिभाषा करते हुए महर्षि पातंजलि ने उसे चित्त-वृत्तियों का निरोध बताया है। इस चित्त-प्रवृत्ति को दो रूपों में देखा जाता है-एक तो अस्थिर चंचलता दूसरे पाशविक कुसंस्कारों की ओर रुझान। इन दोनों ही अवांछनीयताओं पर नियन्त्रण स्थापित करने से चित्त-वृत्ति निरोध की योग-साधना सम्भव होती है।

मन पर नियन्त्रण करने के लिए शास्त्रकारों ने प्राणायाम साधना पर बहुत बल दिया है। दोनों की परस्पर घनिष्टता बताते हुए कहा गया है कि यदि प्राण पर नियन्त्रण स्थापित किया जा सके तो मनोनिग्रह जैसा कठिन कार्य सरल बन जायेगा।
पवनो बध्यते येन मनस्तेनैव बध्यते।
 मनश्च बध्यते येन पवनस्तेन बध्यते ॥
हेतुद्वयं तु चित्तस्य वासना च समीरणः।
                          तयोर्विनष्ट एकस्मिस्तौ द्वावपि विनश्यतः ॥                  
                                              -हठयोग प्रदीपिका ४।२१

जिसने प्राण वायु को जीता उसने मन जीत लिया। जिसने मन जीता उसने प्राण जीत लिया। चित्त की चंचलता के दो ही कारण हैं-एक वासना का दूसरा प्राण वायु का चञ्चल होना। इनमें से एक के नष्ट हो जाने पर दोनों का नाश हो जाता है

चले वाले चलो विन्दुर्निश्चले निश्चलो भवेत्।
                            योगी स्थाणुत्वमाप्नोति ततो वायुं निरुधयेत् ॥                       
                                                        -गोरक्ष प० १।९
प्राण वायु चलायमान रहने से बिन्दु चलायमान रहता है। प्राण निश्चल हो जाने से वीर्य भी निश्चल हो जाता है समर्थ स्थिरता प्राप्त करने के लिए योगी प्राणायाम करे।

मनो यत्न विलीयते पवनस्तभ लीयते।
                              पवनो लीयते यत्र मनस्तभ विलीयते ॥                          
                                            -ह० प्र० ४।२३

अर्थ-जिस जगह मन विलीन हो जाता है उस जगह प्राण वायु लीन हो जाती है और जहाँ वायु विलीन हो जाती है वहा मन लीन हो जाता है।
 
दुग्धाम्बुवत्स मिलितावुभौ तौ तुल्य
क्रियोमानस मारुतो हि।
यतो मरुचत्र मनः प्रवृत्तिर्यतो
मनस्तत्र-मरुत्प्रवृत्तिः ॥
               -हठ० प्रदी० ४।२४

अर्थ-एक क्रिया वाले दोनों मन एवं वायु, दूध और पानी के समान मिले हुए हैं, इसी से जहाँ वायु है वहाँ मन की प्रवृत्ति होती है और जहाँ मन है वहा वायु की प्रवृत्ति होती हैं।

याव द्वायुः स्थिरो देहे तावज्जीवन मुच्यते।
                       मरण तस्यनिष्क्रांतिस्ततो वायुं निरोधयेत् ॥                         
                                     -ह० प्र० २।३

अर्थ-जब तक शरीर में प्राण वायु विद्यमान है, तब तक ही वह जीवित है और शरीर से प्राण वायु का निकलना ही मृत्यु है। इसलिए प्राण वायु का निरोध करना चाहिये।

स यथा शकुनिः सूत्रे प्रबद्धो दिशं दिशं
पतित्वान्यत्रायतनमलब्ध्वा बन्धनमेवोपश्रयते,
एवमेव खलु सोम्येत्तन्मनो दिशं दिशं
पतित्वान्यत्रायतनमलब्ध्वा प्राणमेवोपश्रयते
                प्राणबन्धनं हि सोम्य मन इति।     
                                                        छान्दो. ६।८।२
जिस प्रकार डोरी से बँधा हुआ पक्षी घूमघाम कर अपने मूल आश्रय पर ही आ जाता है, उसी तरह हे सौम्य मन कहीं दूसरी जगह आश्रय न पाने पर घूमघाम कर प्राण का ही आश्रय लेता है। क्योंकि मन प्राण से ही बँधा हुआ है।

नानाविधैर्विचारैस्तु न साध्यं जायते मनः।
                           तस्मात्तस्य जयः प्राणः प्राणस्य जय एव हि ॥                          
                                             -योग बीज
अनेकों प्रकार के विचारों से मन साध्य नहीं होता है। इससे प्राप्त वायु के जीतने से ही मन जीता जाता है।

चित्तं न साध्यं विविधैर्विचारै-
र्वितर्कवादैरपि वेदवादिभिः।
तस्मात्तु तस्यैव हि केवलं जयः-
                              प्राणो हि विद्येत न कश्चिदन्यः ॥                          
                                     -योग रहस्य

विविध विचारों, तर्को और अध्ययन श्रवण आदि से चित्त का समाधान नहीं होता, मनोनिग्रह तो प्राणायाम से ही सम्भव है।

हठिनामधिकस्त्वेकः प्राणायाम परिश्रमः।
                          प्राणायामे मनः स्थैर्यं स तु कस्य न सम्मतः ॥                           
                                                      -बोधसार
हठयोगियों का मुख्य साधन श्रम-साध्य प्राणायाम है। यह अन्यान्य योगियों की साधना से अधिक है। परन्तु वह प्राणायाम सिद्ध हो जाने पर मन स्थिर हो जाता है, यह कौन स्वीकार नही करेगा।

इन्द्रिय विकार-अनियन्त्रित वासना प्रवाह का कारण शारीरिक नहीं मानसिक ही होता है। इन्द्रियों पर मन का नियन्त्रण है। मन विकारग्रस्त होगा तो इन्द्रियों की चंचलता भी उभरेगी और वे कुकृत्य कर सकेंगी। यदि मन पर नियन्त्रण स्थापित किया जा सके तो वासना पर अंकुश स्वयमेव लग जाता है। प्राणायाम से मनोनिग्रह-मनोनिग्रह से वासनाजन्य विकारों की रोक थाम सम्भव होती है। असंयम के लिए उत्तेजित करने वाले विकृत मन को कुमार्ग त्यागने के लिए सहमत करना प्राणायाम की सुनियोजित साधना-पद्धति अपनाने से सम्भव हो सकता है। इस सम्बन्ध में साधना विज्ञान का मन्तव्य इस प्रकार है-

प्राणायामो भवेदेवं पातकेन्धनपावकः।
                      भवोद्धिमहासेतुः प्रोच्यते योगिभि सदा ॥                 
                               -योग चूड़ामणि उप० १०८।१०९
प्राणायाम की अग्नि पाप रूपी ईंधन को जलाकर राख कर देती है और वह सेतु के समान संसार सागर से पार होने का मार्ग खोलती है।

रसस्य मनसश्चैव चंचलत्व स्वभावतः।
रसो वद्धो मनो बद्धं किं न सिद्धयति भूतले ॥
मूर्च्छितो हरते व्याधीन् मृतो जीवयति स्वयम्।
बद्धः रवेचरतां धत्ते रसो वायुश्य पार्वति ॥
मनःस्थैर्ये स्थिरो वायुस्ततो बिन्दुः स्थिरो भवेत्।
         बिन्दुस्थैर्यात्सदा सत्वं पिण्डस्थैर्यं प्रजायते ॥          
                                         -हठ० यो० प्रदी ४।२६ से २८

रस और मन यह दोनों ही स्वभावतः चंचल हैं। रस के बँध जाने से मन बँध जाता है। इनके बँध जाने पर भला क्या सिद्धि नहीं मिल सकती।२६।

 यह रस और प्राण मूर्च्छित होने पर समस्त रोगों को हर लेते हैं, मरने पर दूसरों को जला देते हैं, बँधने पर आकाश में गमन करने लगते हैं।२७।

मन के स्थिर हो जाने पर प्राण स्थिर हो जाता है, और प्राण के स्थिर होने से वीर्य स्थिर होता है। वीर्य के स्थिर होने से शरीर में सदा सत्व स्थिर रहता है।२८।

इन्द्रियाणां मनो नाथो मनोनाथस्तु मारुतः।
                           मारुतस्य लयो नाथः स लयो नादमाश्रितः ॥                        
                                            -ह० प्र० ४।२९
अर्थ- इन्द्रियों का प्रवर्तक मन है और मन का प्रवर्तक वायु है और प्राण का नाथ मन का लय है और वह मन का लय नाद के आश्रित है।

हेतु द्वयं तु चित्तस्य वासना च समीरणः।
                           तपोर्विनष्ट एकस्मिंस्तौ द्वावपि विनश्यतः ॥                           
                                               -ह० प्र० ४।२२
अर्थ- चित्त की प्रवृत्ति में दो कारण हैं- एक वासना दूसरी प्राण वायु। उन दोनों में से एक के नष्ट हो जाने पर दोनों ही नष्ट हो जाते हैं।

अध्यात्म साधना में प्राणायाम को योगाभ्यास का महत्वपूर्ण अंग माना गया है। उससे मात्र मनोनिग्रह का लाभ ही नहीं मिलता अन्य सूक्ष्म संस्थानों का भी परिशोधन होता है। शारीरिक आरोग्य का लाभ सर्वविदित है। फेफड़े सुदृढ़ होने से अधिक मात्रा में प्राण वायु के शरीर में प्रवेश करने से जीवन तत्व भी अधिक मिलते हैं और परिशोधन की गति भी तीव्र होती है। स्थूल और सूक्ष्म शरीरों पर-स्वास्थ्य सम्बर्धन और मानसिक परिष्कार का प्राणायाम का प्रत्यक्ष प्रभाव होता है। कारण शरीर के भाव संस्थान पर भी इस साधना की उपयुक्त प्रतिक्रिया होती है कुसंस्कारों, दोष-दुर्गुणों का निराकरण होता है। आत्मिक पवित्रता बढ़ती है। अन्तःकरण में श्रेष्ठ संस्कारों का उभार होने लगता है। ऐसी स्थिति बनती चले तो आत्मिक प्रगति में किसी प्रकार का सन्देह न रह जायेगा। कहा भी है-
दह्यन्ते ध्यायमानानां धातूनां हि यथा मलाः।
                           तथेन्द्रियाणां दह्यन्ते दोषाः प्राणस्य निग्रहात् ॥                                                                         -मनु
जैसे अग्नि में डालने से धातुओं के मल जल जाते हैं वैसे ही प्राणायाम करने से इन्द्रियों के विकार दूर हो जाते हैं।

यथा पर्वतधातूनां दह्यन्ते धर्मनान्मला।
                    तथेन्द्रियकृता दोषः दह्यन्ते प्राणधारणात् ॥                 
                                            -अमृतनादोपनिषद्
जिस प्रकार सोने को तपाने से उसके खोट जल जाते हैं, उसी प्रकार इन्द्रियों के विकार प्राणायाम से जल कर नष्ट होते हैं।

प्राणायामेन युक्तस्य विप्रस्य नियतात्मनः।
सर्वे दोषाः प्रवश्यन्ति सत्वस्यश्चैव जायते ॥
तपांसि यानि तप्यन्ते व्रतानि नियमाश्च ये।
                         सर्वयज्ञफलश्चैव प्राणायामश्च तत्समः ॥                      
                                        -वायु पुराण
प्राणायाम से युक्त नियत आत्मा वाले विप्र के समस्त दोष नष्ट हो जाया करते हैं और फिर वह केवल सत्वगुण में ही स्थित रहा करता है। जो भी तपस्यायें तपी जाती हैं, व्रत लिए जाते हैं और नियम ग्रहण किये जाते हैं तथा समस्त यज्ञों के करने का जो भी कुछ फल होता है वह सब प्राणायाम के समान होता है।
 
तस्मायुक्तः सदा योगी प्राणायामपरो भवेत्।
                            सर्व पापविशुद्धात्मा परं ब्रह्माधिगच्छति ॥                        
                                            -वायु पुराण
इसलिए योगी को सर्वदा युक्त होकर प्राणायाम में परायण होना चाहिये। वह फिर समस्त पापों से विशुद्ध आत्मा वाला होकर परब्रह्म को प्राप्त कर लिया करता है।

प्राणायामो भवत्येवं पातकेन्धनपावकः।
                          भवोदधिमहासेतुः प्रोच्यते योगिभिः सदा ॥                      
                                                            -योग सन्ध्या
प्राणायाम करने से जैसे पातक रूपी काष्ठ को भस्म करने वाला अग्नि होता है तैसे ही संसार रूपी समुद्र से तारने वाला बड़ा पुल योगियों ने प्राणायाम को कहा है।

तपो न परं प्राणायामात् ततो विशुद्धिर्मलानां दीप्तिश्च ज्ञानस्य।                     
                                                                -पञ्च शिखाचार्य
प्राणायाम से बढ़कर और कोई तप नहीं। उससे मलों की शुद्धि होती है और ज्ञान का प्रकाश प्रदीप्त होता है।

सुषुम्नायां सदेवायं बहेत् प्राणसमीरणः।
                          एतद् विज्ञान मात्रेण सर्व पापैः प्रमुच्यते ॥                       
                                          -गोरखनाथ       
यह प्राण वायु सुषुम्ना नाड़ी में सर्वदा ही प्रवाहित होता है। परन्तु जो योगी इसे जान जाते हैं वे समस्त पापों से मुक्त हो जाते हैं।

प्राणायामेन चित्तं शुद्धं भवति सुव्रत।
चित्ते शुद्धे शुचिः साक्षात्प्रत्यग्ज्योतिव्यवस्थितः ॥
सर्वपापविनिर्मुक्तः सम्यग्ज्ञानमवाप्नुयात्
         मनोजवत्वमाप्नोति पलितादि च नश्यति ॥        
                                                          -जावाल दर्शनोपनिषद् ६।१६।१९

प्राणायाम से चित्त की शुद्धि होती है। चित्त शुद्ध होने से अन्तःकरण में प्रकाश होता है और उस प्रकाश में आत्म साक्षात्कार होता है।
प्राणायाम का साधक श्रेष्ठ ज्ञान प्राप्त करता है। मनस्वी और मनोजयी बनता है।

मारकण्डेय पुराण में प्राणायाम के चार स्तर बताये गये हैं और उनके द्वारा उच्चस्तरीय उद्देश्यों की
पूर्ति होने का प्रतिपादन किया गया है-
तस्माद्युक्तः सदा योगी प्राणायाम परो भवेत्।
श्रूयतां मुक्ति फलद तस्यावस्था चतुष्टयम् ॥
 ध्वस्तिः प्राप्ति स्तथा संवित् प्रसादश्च महीयते।
स्वरूपं श्रृणुचेतषां कथ्यमान मनु क्रमात् ॥
कर्म्मणाभिष्टदुष्टानांजायतेफलसंक्षयः।
चेतसोऽपकषायत्वंयत्रसाध्वस्तिरुच्यते ॥
 ऐहिकामुष्मिकान्कामांल्लोभोहात्मकान्स्वयम्।
निरुध्यास्तेसदायोगी प्राप्तिःसासार्वकालिकी ॥
अतीतानागतानर्थान्विप्रकृष्टतिरोहितान्।
 विजानातीन्दुसूर्य्यर्क्षग्रहाणांज्ञानसम्पदा ॥
तुल्यप्रभावस्तुयदायोगी प्राप्नोतिसंविदम्।
तदासम्विदितिख्याताप्राणायामस्यसास्थितिः ॥
यान्तिप्रसादंयेनास्यमनःपंचचवायवः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थाश्चसप्रसादइतिस्मृतः ॥
जैसे सिंह, व्याघ्र और हाथी को सिखा सधा कर नम्र बना लिया जाता है, वैसे ही प्राणायाम से प्राण वश में होते हैं
जैसे महावत हाथी को अंकुश के बल पर इच्छानुसार चलाता है, वैसे ही योगीजन प्राण से इच्छानुसार काम लेते हैं। जैसे पाला हुआ चीता मृगों को ही मारता है, पालने वाले को नहीं। उसी प्रकार प्राणायाम से सँभाला हुआ प्राण पापों को नष्ट करता है, जीवन को नहीं।

प्राणायाम की चार स्थिति हैं- (१) ध्वस्ति (२) प्राप्ति (३) संवित् (४) प्रसाद।

 जिससे दूषित कर्मों और मनोविकारों का शमन होता है, उसे ध्वस्ति कहते हैं।

जिससे लोभ, मोह आदि से भरी कामनाएँ समाप्त हो जाती हैं, उसे प्राप्ति कहते हैं।

जिससे ग्रह-नक्षत्र और सूक्ष्म लोकों से सम्बन्ध जुड़ जाता है तथा दिव्य ज्ञान की ज्योति दीप्तिमान होती है। अतीत अनागत और तिरोहित जान लिया जाता है उसे संवित् कहते हैं।

जिस स्थिति में पाँचों प्राण तथा दशों इन्द्रियाँ वश में हो जाती हैं, चित्त में आनन्द, उल्लास अनुभव होता है उसे प्रसाद कहतें हैं।

प्राणायाम की पहुँच अध्यात्म क्षेत्र के अति महत्वपूर्ण परतों तक है। उसे शारीरिक, मानसिक, व्यायामों का उपचार मात्र नहीं समझना चाहिये। वरन् उसे उच्च-स्तरीय योग साधन ही मानकर चलना चाहिये। पुरश्चरण अनुष्ठानों की सफलता के लिए पूर्व भूमिका के रूप में प्राणायाम विज्ञान की विशेष साधनाएँ कराई जाती हैं। कहा गया है-
विना प्राण यथा देहः सर्व कर्मसु न क्षमः।
 विना प्राणं तथा मंत्रः पुरश्चर्याशतैरपि ॥
प्राण रहित होने पर जैसे शरीर में काम करने की कुछ भी क्षमता नहीं रहती, उसी तरह मंत्र की प्राण शक्ति को जब तक जागृत नहीं कर लिया जाता तब तक सैकड़ों पुरश्चरण करने पर भी मंत्र शक्ति से अभीष्ट लाभ की आशा नहीं की जा सकती।

या से तनूर्वाचि प्रतिष्ठिता या श्रोत्रे या च चक्षुषि।
 या च मनसि सन्तता शिवा तां कुरु मोत्क्रमीः ॥
प्राणस्येदं वशे सर्वं त्रिदिवे यत्प्रतिष्ठितम्।
                     मातेव पुत्रान् रक्षस्त श्रीश्च प्रज्ञां च विधेहि न इति।                 
                                             -प्रश्नोपनिषद् २।१२।१३
हे प्राण, तेरा ही रूप वाणी में निहित है तू ही श्रोत, नेत्र मन में विद्यमान है। तू उन्हें कल्याणकारी बना। इस शरीर में ही विद्यमान रह। इस ब्रह्माण्ड में जो कुछ है सो सब तुझ प्राण के ही आश्रित है। तू माता-पिता के समान हमारी रक्षा कर और हमें सम्पदाओं तथा विभूतियों से सम्पन्न कर।

प्राणमय कोष का प्राणायाम द्वारा जब परिमार्जन किया जाता है तो प्राण शक्ति की अजस्र धारा उसमें फूट निकलती है। प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान, यह पाँच प्राण और नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त, धनञ्जय, यह पाँच उपप्राण ऐसे विद्युत-प्रवाह हैं जिनका सम्बन्ध प्रकृति की सूक्ष्म शक्तियों से है। इन दशों द्वारा प्रकृतिगत प्राण तत्व में से मनुष्य बहुत कुछ अपने लिए खींच सकता है। मूलबन्ध, जालन्धर बन्ध और उड्डियान बन्ध से श्वाँस और नाड़ी तन्तुओं पर अधिकार प्राप्त होता है। महामुद्रा, खेचरी मुद्रा, विपरीत करणी मुद्रा, शांभवी मुद्रा, अगोचरी मुद्रा, भ्रुवरी मुद्रा मन को वश में करने और चित्त को स्थिर करने में अचूक हैं। लोम-विलोम, प्राणाकर्षण, सूर्यभेदी प्राणायाम, मूर्छाप्राणायाम, भ्रामरी प्राणायाम तथा प्लावनी प्राणायाम यह अपने-अपने क्षेत्र में बड़े ही महत्वपूर्ण हैं। इनसे मृत्यु तक पर विजय प्राप्त की जा सकती है।



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