गायत्री की पंचकोशी साधना एवं उपलब्धियां

गायत्री साधना के दो स्तर

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गायत्री की दैनिक साधना को नित्यकर्म को स्कूलों की प्राथमिक और अनुष्ठानों तथा पुरश्चरणों को माध्यमिक शिक्षा कहा जा सकता है। जूनियर, हाईस्कूल, मैट्रिक- हायर सेकेण्ड्रि का प्रशिक्षण माध्यमिक स्तर का समझा जाता है। इसके उपरान्त कॉलेज की विश्वविद्यालय की पढ़ाई का क्रम आरम्भ होता है। इसे उच्चस्तरीय साधना कह सकते हैं। योग और तप इस स्तर के साधनों में ही क्रियान्वित होते हैं। योग में जीव चेतना को ब्रह्म चेतना से जोड़ने के लिए स्वाध्याय, मनन से लेकर ध्यान धारणा तक के अवलम्बन अपनी मनःस्थिति के अनुरूप अपनाने पड़ते हैं। विचारणा, भावना एवं आस्था की प्रगाढ़ प्रतिष्ठापना इसी आधार पर सम्भव होती है।

आत्मिक प्रगति के लिए प्रचलित अनेकानेक उपायों और विधानों में गायत्री विद्या अनुपम है। भारतीय तत्व वेत्ताओं ने, आत्म विज्ञानियों ने प्रधानतया इसी का अवलम्बन लिया है और सर्वसाधारण को इसी आधार को अपनाने का निर्देश दिया है। भारतीय धर्म के दो प्रतीक हैं। शिखा और यज्ञोपवीत। दोनों को गायत्री की ऐसी प्रतिमा कहा जा सकता है, जिसकी प्रतीक धारणा को अनिवार्य धर्म चिन्ह बताया गया है। मस्तिष्क दुर्ग के सर्वोच्च शिखर पर गायत्री रूपी विवेकशीलता की ज्ञान- ध्वजा ही शिखा के रूप में प्रतिष्ठापित की जाति रही है।

यज्ञोपवीत में गायत्री का कर्म पक्ष- यज्ञ का संकेत है। उसकी तीन लड़ें गायत्री के तीन चरण और नौ धागे इस महामंत्र के नौ शब्द कहे गये हैं। उपासना में सन्ध्या वन्दन नित्य कर्म है। वह गायत्री के बिना सम्पन्न नहीं होता। चारों वेद भारतीय धर्म और संस्कृति के मूल आधार हैं और उन चारों की जन्मदात्री वेदमाता गायत्री है। वेदों की व्याख्या अन्यान्य शास्त्र पुराणों में हुई है। इस प्रकार आर्ष वाङ्मय के सारे कलेवर को ही गायत्रीमय कहा जा सकता है। गायत्री और भारतीय धर्म संस्कृति को बीच और वृक्ष की उपमा दी जा सकती है।

यह सर्वसाधारण के लिए भारतीय संस्कृति के विश्व मानवता के प्रत्येक अनुयायी के लिए सर्वजनीन प्रयोग उपयोग हुआ। गायत्री के २४ अक्षरों में बीज रूप में भारतीय तत्व ज्ञान के समस्त सूत्र सन्निहित हैं। इस महामन्त्र के विविध साधना उपचारों में तपश्चर्या को श्रेष्ठतम आधार कहा जा सकता है। उनमें बाल, वृद्ध, रोगी, नर- नारी, शिक्षित- अशिक्षित सभी के लिए छोटे- बड़े प्रयोग मौजूद हैं, सरल और कठिन से कठिन ऐसे विधानों का उल्लेख है ; जिन्हें हर स्थिति का व्यक्ति अपनी- अपनी स्थिति एवं पात्रता के अनुरूप अपना सकता है।

उच्चस्तरीय गायत्री उपासना के दो पक्ष हैं। एक गायत्री, दूसरी सावित्री अथवा कुण्डलिनी। गायत्री की प्रतिमाओं में पांच मुख चित्रित किए गये हैं। यह मानवी चेतना के पांच आवरण हैं। जिनके उतरने चलने पर आत्मा का असली रूप प्रकट होता है। इन्हें पाँच कोश- पाँच खजाने भी कह सकते हैं। अन्तः चेतना में एक से एक बढ़ी- चढ़ी विभूतियाँ प्रसुप्त अविज्ञात स्थिति में छिपी पड़ी हैं। इन्हें जगाने पर अन्तर्जगत् के पाँच देवता जग पड़ते हैं और उनकी विशेषताओं के कारण मानवीसत्ता देवोपम स्तर पर पहुँची हुई, जगमगाती हुई, दृष्टि गोचर होने लगती है। चेतना में विभिन्न प्रकार की उमंगें उत्पन्न करने का कार्य प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान यह पाँच प्राण करते हैं। इन्हें पाँच कोश कहा जाता है। शरीर पाँच तत्व देवताओं के समन्वय से बना है। अग्नि, वरुण, वायु, अनल और पृथ्वी यह पांच तत्व, पांच देवता ही काय- कलेवर का और सृष्टि में बिखरे पड़े दृश्यमान पदार्थों और अदृश्य प्रवाहों का संचालन करते हैं। समर्थ चेतना इन्हें प्रभावित करती है। इस विज्ञान को 'तत्व साधना' अथवा 'तन्त्र विज्ञान' कहा गया है। पंच कोश उपासना से चेतना पंचक और पदार्थ पंचक के दोनों ही क्षेत्रों को समर्थ परिष्कृत बनाने का अवसर मिलता है। सावित्री साधना परिष्कृत बनाने का अवसर मिलता है। सावित्री साधना यही है। इसका देवता सविता है। सावित्री और सविता का युग्म है। इस उपासना में सूर्य को प्रतीक और तेजस्वी परब्रह्म को- सविता का इष्ट मान कर उस स्त्रोत से ओजस्विता, तेजस्विता और मनस्विता आकर्षित की जाती है। इस क्षेत्र की तपश्चर्या से उस ब्रह्म तेजस की प्राप्ति होती है जो इस जड़ चेतन की सर्वोपरि शक्ति है।

उच्चस्तरीय गायत्री उपासना की दूसरी प्रक्रिया है कुण्डलिनी साधना। इसे जड़ और चेतन को परस्पर बाँधे रहने वाली सूत्र शृंखला कह सकते हैं। प्रकारान्तर से यह प्राण प्रवाह है जो व्यष्टि और समष्टि की समस्त हलचलों का संचालन करता है। नर और नारी अपनी जगह पर अपनी स्थिति में समर्थ होते हुए भी अपूर्ण हैं। इन दोनों को समीप लाने और घनिष्ठ बनाने में एक अविज्ञात चुम्बकीय शक्ति काम करती रहती है। इसी के दबाव से युग्मों का बनना और प्रजनन क्रम चलना सम्भव होता है। उदाहरण के लिए इस नर और नारी के बीच घनिष्ठता उत्पन्न करने वाले चुम्बकीय धारा प्रवाह की कुण्डलिनी की एक चिनगारी कह सकते हैं। प्रकृति और पुरुष को घनिष्ठ बनाकर उनसे सृष्टि संचार की विभिन्न हलचलों का सरंजाम खड़ा करा लेना इसी ब्रह्माण्ड- व्यापी कुण्डलिनी का काम है। व्यक्ति सत्ता में भी काया और चेतना की घनिष्ठता बनाए रहना और शरीर में लिप्सा - मन में ललक और अन्तःकरण सम्वेदनाएँ उभारना इसी कुण्डलिनी महाशक्ति का काम है। जीव की समस्त हलचलें, आकांक्षा, विचारणा और सक्रियता के रूप में सामने आती हैं। इनका सृजन उत्पादन कुण्डलिनी ही करती है। अन्यथा जड़ तत्वों में पुलकन कहाँ निर्लिप्त आत्मा में उद्विग्न आतुरता कैसी ? दृश्य जगत की समस्त हलचलों के बीच जो बाजीगरी काम कर रही है, उसे अध्यात्म की भाषा में 'माया' कहा गया है। साधना क्षेत्र में इसी को कुण्डलिनी कहते हैं। इसे विश्व हलचलों का- मानवी गतिविधियों का- उद्गम मर्मस्थल कह सकते हैं। यह प्रमुख कुंजी मास्टर की- हाथ आ जाने पर प्रगति का द्वार बन्द किए रहने वाले सभी ताले खुलते चले जाते हैं। इस स्वेच्छाचारिणी महाशक्ति को वशवर्ती बनाने वाले, साधक आत्मसत्ता पर नियन्त्रण करने और जागतिक हलचलों को प्रभावित करने में समर्थ हो सकते हैं। गायत्री की उच्चस्तरीय साधना में ऋतम्भरा प्रज्ञा उभारने के लिए पंच कोशी उपासना प्रक्रिया काम में आती है और प्रत्यक्ष सत्ता को प्रखर बनाने के लिए कुण्डलिनी साधना की कार्य- पद्धति काम में लाई जाती है।

यहाँ यह जान लेना आवश्यक है कि गायत्री की उच्चस्तरीय साधना में तत्व- दृष्टि, भावना और श्रद्धा का समावेश करना पड़ता है। इन तत्वों का जिस जिसकी साधना में समावेश होगा उसे उतना ही आत्मविकास का उत्कृष्ट लाभ प्राप्त होगा। गायत्री क्या है, उसकी उपासना में क्या दृष्टि रहे और किन गुणों का समावेश अपनी मनोभूमि में होना चाहिए, जिसे सब बातों का ध्यान रहेगा उसकी थोड़ी भी साधना बहुत फलदायक होगी।

सामान्य साधना जिसे छोटे स्तर की बालसाधना कहते हैं, क्रियाकाण्ड भर की होती है। ऐसे कितने ही व्यक्ति हैं जो केवल जप मात्र को ही सब कुछ समझते हैं। जप, हवन, अनुष्ठान पूजन आदि बाह्य प्रतीक उपचार ही उनकी समझ में सब कुछ होता है। जप की संख्या पूरी करनी, फिर चाहे मन में काम, क्रोध, लोभ, मोह के कुविचार उस समय कितनी ही उच्छृंखल गति से उठते क्यों न रहें जगज्जननी की छवि को देखने का ध्यान करना उनके लिए सब कुछ होता है। श्रद्धा, प्रेम, आत्मीयता एवं तन्मयता का भाव भी साथ में है या नहीं इस बात पर वे लोग ध्यान नहीं देते। जप का शारीरिक श्रम भी कुछ तो उपयोगी है ही पर भावना के अभाव में वह एक प्रकार से निर्जीव ही बना रहता है।


सच्ची उपासना वह है जो आत्म- कल्याण के लिए जीवनस्तर को उत्कृष्ट बनाने के लिए दुर्बुद्धि हटा कर मनोभूमि में सद्बुद्धि की स्थापना के लिए श्रद्धा और भावना पूर्वक की जाती है। किसी लौकिक प्रयोजन को लक्ष्य रख कर कई व्यक्ति जप- तप करते हैं और यह हिसाब लगाते रहते हैं कि इतना जप हो जाने पर यह प्रयोजन पूरा हो जाना चाहिए, यह सिद्धि मिल जानी चाहिए। यदि वह प्रयोजन पूर्ण हो गया तो भी उसे छोड़ देते हैं और नहीं हुआ तो भी उसको त्याग ही देते हैं। वैद्य के पास रोगी तभी तक जाता है जब तक कि उसे कष्ट रहता है। कष्ट दूर हुआ कि रोगी ने वैद्य से रिश्ता तोड़ा। इसी प्रकार यदि रोग अच्छा न हो तो भी रोगी उस वैद्य से मुंह मोड़ लेता है, और उसकी बुराई करने लगता है। सकाम उपासना वालों का स्तर भी यही रहता है। किसी तप, तप से अभीष्ट लाभ हो गया तो फिर उसे करने की जरूरत नहीं रहती और चाही हुई अवधि में मनोकामना पूर्ण न हुई तो भी उसे व्यर्थ समझकर छोड़ दिया जाता है। ऐसी पूजा को साधना कहना ही नहीं चाहिए, वह तो किसी लौकिक प्रयोजन को पूरा करने के लिए एक लौकिक माध्यम मात्र थी, साधना आत्म- कल्याण के लिए लौकिक कामनाओं से रहित होकर की जाती है।

परमात्मा ने जो कुछ दिया है वह कम नहीं। जो कमी है वह हमारे प्रयत्न और पुरुषार्थ की त्रुटियों के कारण है। अपने गुण, कर्म, स्वभाव के दोषों को सुधार कर व्यक्तित्व को सुव्यवस्थित करें तो प्रत्येक उचित कामना सहज ही पूर्ण हो सकती है। अपनी त्रुटियों को ज्यों का त्यों रखा जाय, दोष और दुर्गुणों को ज्यों- का- त्यों रहने दिया जाय। तृष्णा और कामना की परिस्थितियों के साथ तालमेल रखकर लम्बी- चौड़ी कामना करते हुए उनकी पूर्ति का साधन थोड़े से पूजा- पाठ को मान लिया जाय तो यह भारी भूल है। कर्म और पुरुषार्थ का उचित मूल्य चुकाने पर पात्रता के अनुरूप जो सफलतायें मिलती हैं उन्हें थोड़े से पूजा -पाठ के द्वारा चुटकी बजाते, प्राप्त करने का लालच किया जाय तो यह अनुचित और अनुपयुक्त बात होगी।

लौकिक प्रयोजनों की पूर्ति हमें अपने गुण, कर्म, स्वभाव का परिष्कार करते हुए श्रम और अध्यवसाय द्वारा करना चाहिए ।। ईश्वर ने हमें उन सभी क्षमताओं से पूरी तरह सम्पन्न करके भेजा है जिनसे अपनी आवश्यकतायें अपने बाहुबल एवं बुद्धि कौशल से सरलतापूर्वक प्राप्त कर सकें। शुभ अशुभ कर्मों के फलस्वरूप सुख- दुःख की परिस्थितियाँ ही आती जाती रहती हैं। इन्हें धैर्य पूर्वक सहन करना चाहिए। कर्म फल का सिद्धान्त अमिट है। हमारी करनी हमें ही भरनी पड़ेगी। इसके लिये ईश्वर को या किसी दूसरे को दोष देने से क्या लाभ? धैर्य और साहसपूर्वक बुरी परिस्थितियों का भी मुकाबला किया जा सकता है। अपनी न्याय व्यवस्था को बिगाड़ कर ईश्वर से अपने लिए पक्षपात का व्यवहार करना किसी सच्चे साधक को शोभा नहीं देता। यदि हमने पाप किया है तो उसका दण्ड हँसते हुए भोगने का भी साहस हम में होना चाहिए, यही मानवोचित दृष्टिकोण हो सकता है।

परमात्मा से प्रार्थना करनी हो तो धैर्य, साहस, पुरुषार्थ और सद्गुणों की अभिवृद्धि की ही करनी चाहिए। वस्तुतः प्रभु किसी पर प्रसन्न होते हैं तो उसे वस्तुयें नहीं प्रेरणायें देते हैं। चिन्ता और परेशानियों से अभाव और कष्टों से पार, निकलने के लिए यदि आवश्यक मार्ग- दर्शन प्राप्त हो जाय और उस पर चलने का साहस बन पड़े तो फिर कठिन उलझनों को मनुष्य पार कर सकता है। इसके विपरीत यदि आकस्मिक दैवी सहायता मिल जाय तो वह तात्कालिक उलझन तो दूर हो सकती है पर क्षमता और प्रतिभा के अभाव में, फिर अगले दिन वैसी ही अन्य समस्याएँ आगे आ खड़ी होंगी। उलझे दृष्टिकोण के व्यक्ति आए दिन कठिनाइयों के जंजाल में फँसे ही रहते हैं। परमात्मा का सच्चा अनुग्रह यही हो सकता है कि व्यक्ति का दृष्टिकोण सुलझा हुआ हो, समस्याओं का हल करने की हिम्मत और सूझ- बूझ बनी रहे, गुण, कर्म, स्वभाव में ऐसी संजीदगी हो कि अपनी ही नहीं दूसरों की गुत्थियों को भी उस माध्यम से सरल बनाया जा सके। गायत्री उपासक को माता का ऐसा ही अनुग्रह मिलता है, और वह भौतिक जीवन में सुख तथा आन्तरिक क्षेत्र में शान्ति अनुभव करता हुआ अपने आप को हर घड़ी आनन्द एवं उल्लास की स्थिति में पाता रहता है।

आपत्तियों का निवारण समस्याओं का हल और अभावों की पूर्ति के लिए आमतौर से लोग पूजा- पाठ करते हैं। श्री समृद्धि और सम्पदा की कामना में जप, तप, का विधि विधान अपनाया जाता है। मनुष्य दुर्बल प्राणी है। सुख और लाभ की इच्छाओं से प्रेरित होकर वह विविध कर्म करता है, उन्हीं में से एक पूजा- पाठ भी माना गया है। देवी, देवताओं की शरण में लोग इसीलिए जाते हैं। संत- महात्माओं का आशीर्वाद भी इसीलिए चाहते हैं। यों बाल- बुद्धि की स्थिति में यह भी कुछ बुरा नहीं है। इसी निमित्त से सही, कुछ भगवान का नाम स्मरण हो जाय तो वह भी अच्छा ही है। पर इस दृष्टि के साथ की गई उपासना को अध्यात्मिक नहीं कह सकते। वह भौतिक उद्देश्य के लिए भौतिक प्रयत्न मात्र सिद्ध होती है और उसका प्रतिफल भी छोटा- सा ही बनकर रह जाता है। इसलिए इस प्रक्रिया को तत्त्वदर्शियों ने निम्नस्तरीय उपासना कहा है।

जिनकी अध्यात्म मार्ग में कोई रुचि नहीं है, जो आत्मकल्याण का महत्त्व नहीं समझते और भौतिक लाभ ही जिन्हें सब कुछ दिखाई पड़ता है उनके लिए प्राथमिक आकर्षण की दृष्टि से यह सकाम या निम्न- स्तरीय साधना भी उपयोगी है। जितना समय और श्रम उनका लगता है उसकी तुलना में कही अधिक लाभ उन्हें निश्चित रूप से प्राप्त हो जाता है। जो कुछ चाहा जाय वह सब पूर्ण होना ही चाहिए इसकी तो गारण्टी नहीं, पर इतना दावे से कहा जा सकता है कि जितने समय आराधना की गई है उतने समय का लाभ उसकी अपेक्षा कहीं अधिक होगा जो उस प्रयोजन के लिए भौतिक प्रयत्न करने में किया जाता। गायत्री उपासना में लगाया हुआ समय कभी किसी का व्यर्थ नहीं जाता।

रामायण में तीन प्रकार की पतिव्रता मानी गई हैं, - पति और सर्वतो भावेन आत्म- समर्पण करने वाली - पति और अन्य लोगों में उचित अन्तर करके उनके साथ तदनुसार व्यवहार करने वाली। - दुराचार का अवसर न मिलने और दण्ड, भय की आशंका से सदाचारिणी बनी रहने वाली। इन तीनों को ही यद्यपि पतिव्रता माना गया है पर उनकी मानसिक स्थिति के कारण वे उत्तम, मध्यम, नीच इन तीन श्रेणियों में विभक्त की गई हैं। क्रमशः पहली से दूसरी का और दूसरी से तीसरी का स्तर नीचा है। उनकी इस साधना का प्रतिफल भी उसी स्तर के अनुसार मिलता है। इसी प्रकार गीता में चार प्रकार के भक्त बताए गये हैं। - आपत्ति आने पर उसका निवारण करने के लिए भगवान को पुकारने वाले। - जानकारी का कौतूहल पूरा करने के लिए परमात्मा की खोज बीन करने वाले। - सिद्धियाँ और विभूतियाँ पाने के लालच से जप, तप, करने वाले। - प्रभु को प्रगति के लिए सच्ची भावना से आत्म- समर्पण करने वाले विवेकशील ज्ञानी। इन चारों का स्तर क्रमशः एक दूसरे से श्रेष्ठ है। मनोभूमि के अनुसार उपासना की श्रेष्ठता निकृष्टता नापी जाती है, यद्यपि बाहर से सभी भक्तों की पूजा उपासना एक समान दिखाई पड़ती है। तीन पतिव्रताओं और चार भक्तों की बाह्य स्थिति में कोई अन्तर नहीं होता, आचरण इन सबका समान होता है पर अन्तः स्थिति के कारण उनकी श्रेष्ठता एवं निकृष्टता का स्वरूप अलग- अलग ही रहता है और उन्हें लाभ भी उसी आधार पर न्यूनाधिक प्राप्त होता है। वैश्या और पत्नी की शारीरिक आचरण एक- सा होने पर भी उनकी भावना के कारण प्रतिफल में भारी अन्तर रहना स्वाभाविक ही है।

गायत्री उपासना में भी इसी प्रकार के स्तर हैं। निम्न स्तर के साधक विपत्ति के समय माता को पुकारते हैं या कोई भौतिक लाभ प्राप्त करने के लिए दरवाजा खटखटाते हैं। उनको इच्छित समय में, इच्छित मात्रा का लाभ मिला तो अपने श्रम की सार्थकता मानकर अपनी सफलता और चतुरता पर गर्व कर लेते मार्गदर्शक तथा उपासना- विज्ञान तीनों को ही भरपूर कोसते हैं और जो थोड़ा समय साधना में लग गया उस पर पश्चाताप प्रकट करते हैं। ऐसे निम्नस्तरीय साधक अपनी घटिया मनोभूमि के कारण कोई बड़ा लाभ प्राप्त नहीं कर सकते। क्योंकि घट- घट वासिनी महाशक्ति आखिर भावना स्तर को भी तो देखना जानती है। बाहरी कर्मकाण्ड ही तो उसके लिए सब कुछ नहीं है। प्रभु की प्रसन्नता उच्चस्तरीय भावनाओं द्वारा ही सम्भव है। वे उसी से पसीजते हैं। केवट, शबरी, सुदामा, विदुर गोपियों का साधनात्मक कर्मकाण्ड साधारण रहने पर भी उनकी भावना ने उन्हें लक्ष्य की प्राप्ति कराई जब कि निकृष्ट उद्देश्य से साधन करने वाले मेघनाद, कुम्भकर्ण, रावण भस्मासुर, हिरण्यकश्यप को प्राप्त अतुल वरदान भी उनके पतन में ही सहायक हुए। ईश्वर के राज्य में व अध्यात्म क्षेत्र में भावना का ही सबसे बड़ा महत्त्व है। गायत्री उपासना की एक- सी ही साधना पद्धति अपनाने वाले व्यक्तियों में से सब को एक सा परिणाम नहीं मिलता। कोई स्वल्प काल में ही आश्चर्यजनक सफलता प्राप्त करते हैं और कुछ को बहुत समय बीत जाने पर कोई प्रकाश दृष्टिगोचर नहीं होता।

यों उपासना का अपना लाभ तो होता ही है। उसका परिणाम तो होना ही ठहरा। पर किस व्यक्ति को कितना लाभ मिलेगा उसका अनुमान लगाना हो तो यही जानना पड़ेगा कि उसने किस भावना से, किस श्रद्धा और तन्मयता से साधना की। यदि यह सब घटिया रह होगा तो उसके अनुसार घटिया परिणामों की ही आशा की जा सकती है। गायत्री उपासना के महात्म्यों का शास्त्रकारों ने विशद वर्णन किया है। उसे देखते हुए प्रतीत होता है कि यह साधना पारस, कल्पवृक्ष, कामधेनु और अमृत के समन उपयोगी है। कितने साधकों को वैसे ही लाभ मिले भी हैं। उनके चरित्र और उदाहरण सामने आते हैं तो विश्वास और भी बढ़ता है। प्राचीनकाल में समस्त ऋषि मुनि, राम कृष्ण और अवतार, महापुरुष ज्ञानी मनस्वी और विचारशील व्यक्ति गायत्री उपासना ही करते रहे हैं। यही हमारी एक मात्र जातीय आराधना रही है। इसी मन्त्र की शक्ति से इस देश का अध्यात्म बल बढ़ा है और हमारा इतिहास गौरवपूर्ण बना है। अभी भी ऐसे अनेक गायत्री उपासक मौजूद हैं जिनका आत्मबल इस गये बीते युग में भी आश्चर्यजनक कहा जा सकता है। इन तथ्यों पर विचार करने से प्रतीत होता है कि उस महामन्त्र के बारे में ऋषियों और शास्त्रों ने जो कुछ कहा है वह असत्य नहीं है। पर जब अपनी निज की बात पर सोचते हैं। हमने इतने दिन इतने घण्टे इतने हजार जप कर लिया और हमारे मनोरथ तब भी पूरे नहीं हुए तो निराशा होने लगती है। मस्तिष्क यही सोचता है कि यह महात्म्य सही होता तो हमें भी इतना लाभ क्यों न मिलता ?

इस द्विविधा का समाधान इस प्रकार करना चाहिए कि निम्न स्तरीय- क्षुद्रता की मनोभूमि में की हुई उपासना बहुत थोड़ा फल देती है। उच्चस्तरीय साधना से ही वह परिणाम होता है जिसके आधार पर शास्त्रों में वर्णित गायत्री महात्म्य को सत्य माना जा सके।

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