गायत्री की पंचकोशी साधना एवं उपलब्धियां

विज्ञानमय-कोश की वायु साधना

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१- शान्त वातावरण में मेरुदण्ड सीधा करके बैठ  जाइये और नाभि- चक्र में शुभ ज्योति-मण्डल का ध्यान  कीजिए। उस ज्योति केन्द्र में समुद्र के ज्वार-भाटे की  तरह हिलोरें उठती हुई परिलक्षित होंगी।

२- यदि बाँया स्वर चल रहा होगा तो उस  ज्योति-केन्द्र का वर्ण चन्द्रमा के समान पीला होगा और  उसके बाँये भाग से निकलने वाली इड़ा नाड़ी में होकर  श्वाँस- प्रवाह का आगमन होगा। नाभि के नीचे की और  मूलाधार चक्र (गुदा और लिंग का मध्यवर्ती भाग) में होती  हुई मेरुदण्ड में होकर मस्तिष्क के ऊपर भाग की परिक्रमा  करती हुई नासिका के बाँये नथुने तक इड़ा नाड़ी जाती  है। नाभि-केन्द्र के बाम भाग की क्रियाशीलता के कारण  यह नाड़ी का काम करती है और बाँया स्वर चलता है।  इस तथ्य को भावना के दिव्य नेत्रों द्वारा भली- भाँति चित्र  वत् पर्यवेक्षण कीजिए।

३- यदि दाहिना स्वर चल रहा होगा तो नाभि केन्द्र  का ज्योति मण्डल सूर्य के समान तनिक लालिमा लिए हुए  श्वेत वर्ण का होगा और उसके दाहिने भाग में से  निकलने वाली पिंगला नाड़ी में होकर श्वाँस-प्रश्वाँस  क्रिया होगी। नाभि के नीचे मूलाधार में होकर मेरुदण्ड  तथा मस्तिष्क में होती हुई दाहिने नथुने तक पिंगला नाड़ी  गई है और नाभि चक्र के दाहिने भाग में चैतन्यता होती है  और दाहिना स्वर चलता है, इस सूक्ष्म क्रिया की  ध्वनि-शक्ति द्वारा मनोयोगपूर्वक निरीक्षण करना चाहिए  कि वस्तुस्थिति ध्यान क्षेत्र में चित्र के समान स्पष्ट रूप  से परिलक्षित होने लगे।        

४- जब स्वर सन्धि होती है तो नाभि चक्र स्थिर हो  जाता है, उसमें कोई हलचल नहीं होती और न उतनी  देर तक वायु का आवागमन होता है। इस सन्धिकाल में  तीसरी नाड़ी मेरुदण्ड में अत्यन्तद् रूत वेग से बिजली के  समान किंचित है, साधारणत: एक क्षण के सौवें भाग में  यह कौंध जाती है, इसे ही सुषुम्ना कहते हैं।

५- सुषुम्ना का जो विद्युत प्रवाह है वही आत्मा की  चञ्चल झाँकी है। आरम्भ में यह झाँकी एक हलके झपट्टे  के समान किंचित प्रकाश की मन्द किरण जैसी होती है।  साधना से यह चमक अधिक प्रकाशवान और अधिक देर  ठहरने वाली होती है। कुछ दिनों में वर्षा काल में बादलों  के मध्य चमकने वाली बिजली के समान उसका प्रकाश  और विस्तार होने लगता है। सुषुम्ना ज्योति में कहीं रंगों  की आभा होना उसका सीधा, टेढ़ा तिरछा या बर्तुलाकर  होना आत्मिक स्थिति का परिचायक है। तीन गुण, पाँच  तत्व, संस्कार एवं अन्तःकरण की जैसी स्थिति होती है,  उसी के अनुरूप सुषुम्ना का रूप ध्यानावस्था में  दृष्टिगोचर होता है।

६- इड़ा पिंगला की क्रियायें जब स्पष्ट दीखने लगें  तब उनका साक्षी रूप से अवलोकन किया कीजिए। नाभि  चक्र के जिस भाग में ज्वार-भाटा आ रहा होगा वही स्वर  चल रहा होगा और केन्द्र में इसी आधार पर सूर्य या  चन्द्रमा का रंग होगा। यह क्रिया जैसे-जैसे हो रही है  उसको स्वाभाविक रीति से होते हुए देखते रहना चाहिए।  एक साँस के भीतर पूरा प्रवेश होने पर जब लौटती है तो  उसे ''अभ्यन्तर सन्धि'' और जब साँस पूरी तरह बाहर  निकलकर नई साँस भीतर जाना आरम्भ करती है तब  उसे 'बाह्य सन्धि' कहते हैं। इन कुम्भक कालों में सुषुम्ना  की द्रुत गतिगामिनी विद्युत आभा का अत्यन्त चपल प्रकाश  विशेष सजगतापूर्वक दिव्य नेत्रों से देखना चाहिए।

७- जब इड़ा बदलकर पिंगला में या पिंगला  बदलकर इड़ा में जाती है अर्थात् एक स्वर जब दूसरे में  परिवर्तित होता है तो सुषुम्ना की सन्धि बेला आती है।  अपने आप स्वर बदलने के अवसर पर स्वाभाविक  सुषुम्ना का प्राप्त होना प्राय: कठिन होता है। इसलिए  स्वर विद्या के साधक पिछले पृष्ठों में बताऐ गए स्वर  बदलने के उपायों से वह परिवर्तन करते हैं, और तब  सुषुम्ना की सन्धि आने पर आत्मा- ज्योति का दर्शन  करते हैं। यह ज्योति आरम्भ में चञ्चल और विविध  आकृतियों की होती है और अन्त में स्थिर एवं मण्डलाकर  हो जाती है। यह स्थिरता ही विज्ञानमय कोश की सफलता  है। उसी स्थिति में आत्म- साक्षात्कार होता है।

सुषुम्ना में अवस्थित होना वायु पर अपना  अधिकार कर लेना है। इस सफलता के द्वारा लोक-लोकान्तरों  तक अपनी पहुँच हो जाती है और विश्व ब्रह्माण्ड पर  अपना प्रभुत्व अनुभव होता है। प्राचीन समय में  स्वर-शक्ति द्वारा अणिमा, महिमा लघिमा आदि सिद्धियाँ  प्राप्त होती थी। आज के युग-प्रवाह में वैसा तो नहीं होता  पर ऐसे अनुभव होते हैं जिनसे मनुष्य शरीर रहते हुए भी  मानसिक आवरण में देव-तत्वों की प्रचुरता हो जाती है।  विज्ञानमय कोश के विजयी को भूसुर, भूदेव या नर-  तनुधारी दिव्य आत्मा कहते हैं।


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