गायत्री की पंचकोशी साधना एवं उपलब्धियां

तत्व शुद्धि

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यह सृष्टि पंचतत्वों से बनी हुई है। प्राणियों के शरीर भी इन तत्वों से बने हुए हैं। मिट्टी, जल, वायु, अग्नि, और प्रकाश इन पाँच तत्वों का यह सब कुछ संप्रसार है, जितनी वस्तुयें दृष्टिगोचर होती हैं या इन्द्रियों द्वारा अनुभव में आती हैं उन सबकी उत्पत्ति पञ्च-तत्वों द्वारा हुई है। वस्तुओं का परिवर्तन, उत्पत्ति, विकास तथा विनाश इन तत्वों की मात्रा में परिवर्तन आने से होता है।

यह प्रसिद्ध है कि जलवायु का स्वास्थ्य पर प्रभाव पड़ता है, शीत प्रधान देशों तथा यूरोपीयन लोगों का रंग, रूप, कद, स्वास्थ्य अफ्रीका के तथा उष्ण प्रदेशवासियों के रंग, रूप, कद, स्वास्थ्य से सर्वथा भिन्न होता है। पंजाबी, कश्मीरी, बंगाली, मद्रासी लोगों के शरीर एवं स्वास्थ्य की भिन्नता प्रत्यक्ष है। यह जलवायु का ही अन्तर है।

किन्हीं प्रदेशों में मलेरिया, पीला बुखार, पेचिस, चर्मरोग, फील पाँव, कुष्ठ आदि रोगों की बाढ़ सी रहती है और किन्हीं स्थान की जलवायु ऐसी होती है कि वहाँ जाने पर तपेदिक सरीखे कष्टसाध्य रोग भी अच्छे हो जाते हैं। पशु-पक्षी, घास-अन्न, फल, औषधि आदि के रंग, रूप, स्वास्थ्य, गुण, प्रकृति आदि में भी जलवायु के अनुसार अन्तर पड़ता है। इसी प्रकार वर्षा, गर्मी-सर्दी का तत्व परिवर्तन प्राणियों में अनेक प्रकार के सूक्ष्म परिवर्तन कर देता है।

आयुर्वेद-शास्त्र में बात-पित्त, कफ का असन्तुलन रोगों का कारण बताया है। बात का अर्थ है-वायु, पित्त का अर्थ है-गर्मी, कफ का अर्थ है-जल। पाँच तत्वों में पृथ्वी शरीर का स्थिर आधार है। मिट्टी से ही शरीर बना है और जला देने या गाड़ देने पर केवल मिट्टी रूप में ही इसका अस्तित्व रह जाता है। इसलिए पृथ्वी तत्व तो शरीर का स्थिर आधार होने से वह रोग आदि का कारण नहीं बताया।

दूसरे आकाश का सम्बन्ध मन से बुद्धि एवं इन्द्रियों की सूक्ष्म तन्मात्राओं से है। स्थूल शरीर पर जलवायु और गर्मी का ही प्रभाव पड़ता है और उन्हीं प्रभावों के आधार पर रोग एवं स्वास्थ्य बहुत कुछ निर्भर रहते हैं।

वायु की मात्रा में अन्तर आ जाने से गठिया, लकवा, दर्द, कम्प, अकड़ना, गुल्म, हड़फूटन, नाड़ी विक्षेप आदि रोग उत्पन्न होते हैं। तत्व के विकास से फोड़े-फुन्सी, चेचक, ज्वर, रक्त-पित्त, हैजा, दस्त, क्षय, श्वाँस, उपदंश, रक्त-विकार आदि बढ़ते हैं।

जल तत्व की गड़बड़ी से जलोदर, पेचिस, संग्रहणी, बहु-मूत्र, प्रमेह, स्वप्नदोष, सोम, प्रदर, जुकाम, खाँसी आदि रोग पैदा होते हैं। अग्नि की मात्रा कम हो तो शीत, जुकाम, अकड़न, अपच, शिथिलता सरीखे रोग उठ खड़े होते हैं। इसी प्रकार अन्य तत्वों का घटना बढ़ना अनेक रोग उत्पन्न करता है।

आयुर्वेद के मत से विशेष प्रभावशाली, गतिशील सक्रिय एवं स्थूल शरीर को स्थिर करने वाले कफ, बात-पित्त अर्थात् जल-वायु गर्मी ही हैं और दैनिक जीवन में जो उतार चढ़ाव होते रहते हैं उनमें इन तीन का ही प्रधान कारण होता है। फिर भी शेष दो तत्व पृथ्वी और आकाश शरीर पर स्थिर रूप में काफी प्रभाव डालते हैं।     मोटा या पतला होना, लम्बा या ठिगना होना, रूपवान या कुरूप होना, गोरा या काला होना, कोमल या सुदृढ़ होना शरीर में पृथ्वी तत्व की स्थिति से सम्बन्धित है। इसी प्रकार चतुरता-मूर्खता, सदाचार-दुराचार नीचता- महानता, तीव्र बुद्धि, दूरदर्शिता, खिन्नता-प्रसन्नता एवं गुण, कर्म, स्वभाव, इच्छा, आकांक्षा, भावना, आदर्श, लक्ष्य आदि बातें इस पर निर्भर रहती हैं कि आकाश-तत्व की स्थिति क्या है ?      उन्माद, सनक, दिल की धड़कन, अनिन्द्रा पागलपन- दुःस्वप्न, मृगी, मूर्छा, घबराहट, निराशा आदि रोगों में भी आकाश ही प्रधान कारण होता है।     रसोई का स्वादिष्ट तथा लाभदायक होना इस बात पर निर्भर है कि उनमें पड़ने वाली चीजें नियत मात्रा में हों। चावल, दलिया, दाल, हलुआ, रोटी आदि में अग्नि का प्रयोग कम रहे या अधिक हो जाय तो वह खाने लायक न होगी। इसी प्रकार पानी, नमक, चीनी, घी आदि की मात्रा बहुत कम या अधिक हो जाय तो भोजन का स्वाद, गुण तथा रूप बिगड़ जायेगा।      यही दशा शरीर की है। तत्वों की मात्रा में गड़बड़ी पड़ जाने से स्वास्थ्य में निश्चित रूप से खराबी आ जाती है। जलवायु, सर्दी-गर्मी, (ऋतु प्रभाव) के कारण रोगी मनुष्य निरोग और निरोग रोगी बन जाता है।

योग साधकों को जान लेना चाहिए कि पञ्च-तत्वों से बने शरीर को सुरक्षित रखने का आधार यह है कि देह में सभी तत्व स्थिर मात्रा में रहें। गायत्री के पाँच मुख शरीर में पाँच तत्व बनकर निवास करते हैं। यही पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ और पाँच कर्मेन्द्रियाँ को क्रियाशील रखते है। लापरवाही, अव्यवस्था और आहार-विहार के असंयम से तत्वों का संतुलन बिगड़ कर रोगग्रस्त होना एक प्रकार से पंचमुखी गायत्री माता का, देह परमेश्वरी का तिरस्कार करना है।

वेदान्त शास्त्र में इन पाँच तत्वों को आत्मा का आवरण एवं बन्धन माना गया है। भगवान शंकराचार्य ने तत्व-बोध की संकेत चूर्णिका में पंचीकरण विद्या बतायी है। उनका कथन है कि बन्धन से मुक्ति प्राप्त करने के लिये पहले हमें यह भली-भाँंति जान लेना चाहिये कि यह संसार और कुछ नहीं केवल पंचभूतों के परमाणुओं का इधर-उधर उड़ते फिरना, संयुक्त और विमुक्त होते रहना मात्र है जैसे वायु से प्रेरित बादल इधर-उधर उड़ते हैं तो उनके संयोग वियोग से आकाश में पर्वत, रीक्ष, सिंह, पक्षी, वृक्ष, गुफा जैसे नाना प्रकार के कोतुहल पूर्ण चित्र क्षण-क्षण में बनते और बिगड़ते रहते हैं, उसी प्रकार इस संसार में नाना प्रकार के निर्माण विकास और ध्वंस होते रहते हैं।

जैसे बादलों से बनने वाले चित्र मिथ्या है, भ्रम हैं, भुलावा हैं, स्वप्न हैं, वैसे ही संसार माया, भ्रम, या स्वप्न हैं। यह पाँच भूतों के उड़ने-फिरने का खेल मात्र है। इसलिए उसे लीलाधर की लीला, नटवर की कला या माया बताया गया है।

कई अदूरदर्शी व्यक्ति "संसार स्वप्न है" यह सुनते ही आग-बबूला हो जाते हैं और वेदान्त शास्त्र पर यह आरोप लगाते हैं कि इन विचारों के द्वारा लोगों में अकर्मण्यता, निराशा, निरुत्साह, अनिच्छा, पैदा होगी और सांसारिक उन्नति की महत्चाकांक्षा शिथिल हो जाने से हमारा समाज या राष्ट्र पिछड़ा रह जायेगा। यह आक्षेप बहुत ही उथला और अविवेकपूर्ण है।

वेदान्त विरोधी इतना तो जानते ही हैं कि हमें मरता है और मरने पर कोई भी वस्तु साथ नहीं जाती। इतनी जानकारी होते हुए भी वे सांसारिक उन्नति को छोड़ते नहीं। स्वप्न में भी सब काम होते रहते हैं। इसी प्रकार समाज का निर्माण ही ऐसे ढंग से हुआ है, उसमें पेट की, इन्द्रियों की मन की क्षुधायें इतनी प्रबल लगा दी गयी हैं कि बिना कर्तव्य परायण हुए कोई प्राणी क्षण भी चैन से नहीं बैठ सकता। निष्किय व्यक्ति के लिए तो जीवन धारण किये रहना भी असम्भव है।

वेदान्त ने संसार की दार्शनिक विवेचना करते हुए उसे पञ्चभूतों का अस्थिर परमाणु-पुञ्ज, स्वप्न बताया है। तो इसका फलितार्थ यह होना चाहिये कि हम आत्मिक लाभ के लिये ही सांसारिक वस्तुओं का उपार्जन एवं उपयोग करें। वस्तुओं की मोहकता पर आसक्त होकर उनके सञ्चय एवं अनियन्त्रित भोगों की मृग-तृष्णा से अपने आत्मिक हितों का बलिदान न करें।

कर्तव्यरत रहना तो शरीर का स्वाभाविक धर्म है, इसे त्यागना किसी भी जीवित व्यक्ति के लिये सम्भव नहीं। वेदान्त की यह शिक्षा कि यह संसार पञ्चभूतों की क्रीड़ास्थली मात्र है, पूर्णतया विज्ञान सम्मत है। दार्शनिकों की भाँति वैज्ञानिक भी यही बताते हैं कि अणु परमाणुओं के दुर्गति से परिभ्रमण करने के कारण संसार की गतिशीलता है और पंचतत्वों से बने हुए ९६ जाति के परमाणु ही संसार की वस्तुओं, देहों, योनियों के उत्पादन एवं विनाश के हेतु हैं।

'पञ्चीकरण विद्या' के अनुसार साधक जब भली प्रकार यह बात हृदयंगम कर लेता है कि यह संसार उड़ते हुए परमाणुओं के संयोग-वियोग से क्षण-क्षण में बनने- बिगड़ने वाली चित्रावली मात्र है तो उसका दृष्टिकोण भौतिक न रह कर आत्मिक हो जाता है। वह वस्तुओं का अनावश्यक मोह न करके उन बुराइयों से बच जाता है, जो लोभ और मोह को भड़काकर नाना प्रकार के पाप, तृष्णा, द्वेष, चिन्ता, शोक और अभावजन्य क्लेशों से जीवन को नारकीय बनाये हुए हैं।

देह या मन को अपना मानने का कोई कारण नहीं। यह जड़, परिवर्तनशील, देह भी संसार के अन्य पदार्थों की भाँंति ही पंचभौतिक है। इसलिये इसको अपने उपयोग की वस्तु औजार या सवारी समझ कर आनन्दमयी जीवन-यात्रा के लिये प्रयुक्त तो करना चाहिये पर देह या मन की आवश्यक तृष्णाओं के पीछे आत्मा को परेशान न करना चाहिये। इस मान्यता को हृदयंगम कराने के लिए शरीर का विश्लेषण करते हुए 'तत्व- बोध' में बताया गया है कि किस तत्व से शरीर का कौन-सा भाग बनता है।

पृथ्वी तत्व की प्रधानता से अस्थि, माँस, त्वचा, नाड़ी, रोम, आदि भारी पदार्थ बने हैं। जल की प्रधानता से मूत्र, कफ, रक्त, शुक्र आदि हुआ करते हैं। तात्पर्य यह है कि शरीर में जो कुछ अंग-प्रत्यंग पदार्थ तथा प्रेरणा हैं, वह पञ्च-तत्वों के आधार पर हैं।

जब इस प्रपञ्चरूप संसार और पञ्चावरण शरीर में से अहम् की मान्यता हटाकर विश्व-व्यापी चैतन्य आत्मा में अपने को परिव्याप्त मान लिया जाता है तो वह परिपूर्ण मान्यता ही मुक्ति बन जाती है। शरीर और संसार की पञ्चभौतिक सत्ता को प्रपंच शब्द से सम्बोधित किया गया है और वेदान्त शास्त्र में योग साधना का आदर्श है कि मैं और मेरा द्वैत छोड़कर केवल 'मैं' का अद्वैत सीखो विश्व में जो कुछ है, वह में आत्मा हूँ। मुझसे भिन्न कुछ नहीं यह मान्यता अद्वैत बाह्य को प्राप्त कर देती है।

इसी बात को भक्ति मार्गी, दूसरे शब्दों में कहते हैं- "जो कुछ है है मेरा अलग अपनत्व कुछ नहीं"। दोनों ही मान्यतायें बिल्कुल एक हैं। भक्ति-मार्ग और वेदान्त में शब्दों के फेर के अतिरिक्त वस्तुत: कुछ अन्तर नहीं है।    अन्नमय कोश के परिमार्जन के लिये तीसरा उपाय 'तत्व- शुद्धि' है। स्थूल रूप से शरीर के पंच-तत्वों को ठीक रखने के लिए जल, वायु, ऋतु प्रदेश और वातावरण का ध्यान रखना आवश्यक है। सूक्ष्म रूप से पञ्चीकरण विद्या के अनुसार तत्वज्ञान प्राप्त करके आत्म तत्व और अनात्म- तत्व के अन्तर को समझाते हुए प्रपंच से छुटकारा पाना चाहिए तत्व शुद्धि के दोनों ही पहलू महत्त्वपूर्ण हैं।

जिसे अपना अन्नमय कोश ठीक रखना है उसे व्यावहारिक जीवन में पंचतत्वों की शुद्धि सम्बन्धी बातों का भी विशेष ध्यान रखना चाहिए।

(१) जलतत्व- जल से शरीर और वस्त्रों की शुद्धि बराबर करता रहे। स्नान करने का उद्देश्य केवल मैल छुड़ाना नहीं वरन् पानी में रहने वाली 'विशिवा' नामक विद्युत से देह को सतेज करना एवं आक्सीजन, नाइट्रोजन आदि बहुमूल्य तत्वों से शरीर को सींचना भी है। सबेरे शौच जाने से बीस-तीस मिनट पूर्व एक गिलास पानी पीना चाहिए जिससे रात का अपच धुल जाय और शौच साफ हो।

पानी को सदा घूँट-घूँट कर धीरे-धीरे दूध की तरह पीना चाहिये। हर घूँट के साथ यह भावना करते जाना चाहिए कि इस अमृत-तुल्य जल में जो शीतलता मधुरता और शक्ति भरी हुई है उसे खींचकर मैं अपने शरीर में धारण कर रहा हूँ। इस भावना के साथ पिया हुआ पानी दूध के समान गुणकारक होता है।

जिन स्थानों का पानी भारी, खारी, तेलिया, उथला तालाबों का तथा हानिकारक हो, वहाँ रहने पर अन्नमय कोश में विकार पैदा होता है। कई स्थानों में पानी ऐसा होता है कि वहाँ फीलपाँव, नासुर, जलोदर, कुष्ठ, खुजली, मलेरिया, जुएँ, मच्छर आदि का बहुत प्रसार होता है। ऐसे स्थानों को छोड़कर स्वस्थ, हल्के, सुपाच्य जल के समीप अपना निवास रखना चाहिये। धनी लोग दूर स्थानों से भी अपने लिये उत्तम जल मँगा सकते हैं।

कभी-कभी एनीमा द्वारा पेट चढ़ाकर आँतों की सफाई कर लेनी चाहिये। उससे संचित मलों से उत्पन्न विष पेट में से निकल जाते हैं और चित्त बड़ा हल्का हो जाता है। प्राचीन काल में वस्तिक्रिया योग का आवश्यक अंग थी। अब एनीमा यन्त्र द्वारा यह क्रिया सुगम हो गयी है।

जल चिकित्सा पद्धति रोग निवारण एवं स्वास्थ्य सम्वर्धन के लिये बड़ी उपयुक्त है। डाक्टर लुईकने ने इस विज्ञान पर स्वतन्त्र ग्रन्थ लिखे हैं। उनकी बताई पद्धति से किये गये कटि स्नान, मेहन स्नान, मेरुदण्ड स्नान, गीली चादर लपेटना कपड़े का पलस्तर आदि से रोग निवारण में बड़ी सहायता मिलती है।

(२) अग्नितत्व- सूर्य के प्रकाश के अधिक सम्पर्क में रहने का प्रयत्न करना चाहिए। घर की सभी खिड़कियाँ खुली रहनी चाहिये ताकि धूप और हवा खूब आती रहे। सबेरे की धूप नंगे शरीर पर लेने का प्रयत्न करना चाहिए। सूर्यताप से तपाये हुए जल का उपयोग करना, भीगे बदन पर धूप लेना उपयोगी है।

स्नान करके गीले शरीर से ही प्रातःकालीन सूर्य के दर्शन करने चाहिए और जल का अर्घ देना चाहिए। पानी में बिजली को खींचने की बड़ी ताकत है। वर्षा ऋतु में बिजली का बहुत जोर रहता है। बादलों के जल के कारण आकाश में बिजली चमकती है। इलेक्ट्रिसिटी के तारों में भी वर्षा ऋतु में बड़ी तेजी रहती है। पानी में बिजली को गर्मी को खींचने की विशेष शक्ति है। इसलिए शरीर को तौलिया से पोंछने के बाद नम शरीर से ही नंगे बदन सूर्य नारायण के सामने जाकर अर्घ देना चाहिए। यदि नदी, तालाब, नहर पास में हो कमर तक जल में खड़े होकर अर्घ देना चाहिए। अर्घ लोटे से भी दिया जा सकता है और अंजलि से भी, जैसी सुविधा हो कर लेना चाहिए। सूर्य के दर्शन के पश्चात् नेत्र बन्द करके उनका ध्यान करना चाहिए और मन ही मन यह भावना दुहसनी चाहिए- ''भगवान सूर्य नारायण का तेज मेरे शरीर में प्रवेश करके नस नस को दीप्तमान सतेज और प्रफुल्लित कर रहे हैं और मेरे अंग प्रत्यंग में स्फूर्ति उत्पन्न हो रही है। ''स्नान के बाद इस किया को नित्य करना चाहिए।

सूर्य की सप्त किरणें अल्ट्रा वायलेट और अल्फा वायलेट किरणें स्वास्थ्य के लिये बड़ी उपयोगी साबित हुई हैं। वे जल के साथ धूप का मिश्रण होने से खिंच आती हैं। धूप में रखकर रंगीन काँच से सम्पूर्ण रोगों की चिकित्सा करने की विस्तृत विधि तथा अग्नि और जल के सम्मिश्रण से भाप बन जाने पर उसके द्वारा अनेकों का उपचार करने की विधि सूर्य चिकित्सा विज्ञान की किसी भी प्रामाणिक पुस्तक से देखी जा सकती है।

रविवार को उपवास रखना सूर्य की तेजस्विता एवं बलदायिनी शक्ति का आह्वान है। पूरा या आंशिक उपवास शरीर की कान्ति और आत्मिक तेज को बढ़ाने वाला सिद्ध होता है।

(३) वायु तत्व- घनी आबादी के मकान जहाँ धूल, सील की भरमार रहती है और शुद्ध वायु का आवागमन नहीं होता, वे स्थान स्वास्थ्य के लिये खतरनाक हैं। हमारा निवास खुली हवा में होना चाहिये। दिन में वृक्ष और पौधों से ओषजन वायु (ऑक्सीजन) निकलती है, वह मनुष्य के लिये बड़ी उपयोगी है। जहाँ तक हो सके वृक्ष पौधों के बीच अपना दैनिक कार्यक्रम करना चाहिए। अपने घर, आँगन, चबूतरे आदि पर वृक्ष-पौधे लगाने चाहिए।     प्रातःकाल की वायु बड़ी स्वास्थ्यप्रद होती है, उसे सेवन करने के लिये तेज चाल से टहलने के लिये जाना चाहिये। दुर्गन्धित एवं बन्द हवा के स्थान से अपना निवास दूर ही रखना चाहिये। तराई, सील, नमी के स्थानों की वायु ज्वर आदि पैदा करती है। तेज हवा के झोकों से त्वचा फट जाती है। अधिक ठण्डी या गर्म हवा से निमोनिया या लू लगना जैसे रोग हो सकते हैं। इस प्रकार के प्रतिकूल मौसम से अपनी रक्षा करनी चाहिए।

प्राणायाम द्वारा फेफडों का व्यायाम होता है और शुद्ध वायु से रक्त की शुद्धि होती है। इसलिए स्वच्छ एकान्त स्थान में बैठ कर नित्य प्राणायाम करना चाहिये। प्राणायाम की विधि इस प्रकार है।      स्नान करने के उपरान्त किसी एकान्त स्थान में जाइए। समतल भूमि पर आसन बिछा कर पद्मासन से बैठ जाइए। मेरुदण्ड बिलकुल सीधा रहे। नेत्रों को अध खुला रखिए। अब धीरे-धीरे नाक द्वारा साँस खींचना आरम्भ कीजिए और दृढ़ इच्छा शक्ति के साथ भावना कीजिए कि ''विश्वव्यापी महान प्राण भण्डार में से मैं स्वास्थ्यदायक प्राणतत्व साँस के साथ खींच रहा हूँ और वह प्राण मेरे रक्त प्रवाह तथा समस्त नाड़ी तन्तुओं में प्रवाहित होता हुआ सूर्यचक्र में सोलर प्लेक्सस अर्थात नाभि स्थान में इकट्ठा हो रहा है।'' इस भावना को ध्यान द्वारा चित्रवत् मूर्तिमान रूप से देखने का प्रयत्न करना चाहिए। जब फेफड़ों को वायु से अच्छी तरह भरलो तो दस सैकिण्ड तक वायु को भीतर रोके रहो। रोकने के समय ऐसा ध्यान करना चाहिए कि ''प्राणतत्व मेरे अंग प्रत्यंगों में पूरित हो रहा है।'' अब वायु को नासिका द्वारा ही धीरे-धीरे बाहर निकालो और निकालते समय ऐसा अनुभव करो कि ''शरीर के सारे दोष, रोग और विष वायु के साथ-साथ निकाल बाहर किये जा रहे हैं।''     उपरोक्त प्रकार से आरम्भ में दस प्राणायाम करने चाहिए फिर धीरे-धीरे बढ़ाकर सुविधानुसार आध घण्टे तक कई बार इन प्राणायामों को किया जा सकता है। अभ्यास पूरा करने के उपरान्त आपको ऐसा अनुभव होगा कि रक्त की गति तीव्र हो गई है और सारे शरीर की नाड़ियों में एक प्रकार की स्फूर्ति, ताजगी और विद्युत शक्ति दौड़ रही है। इस प्राणायाम को कुछ दिन लगातार करने से अनेक शारीरिक और मानसिक लाभों का स्वयं अनुभव होगा।      हवन करना- अग्नि तत्व के संयोग से हवन वायु को शुद्ध करता है। जो वस्तु अग्नि में जलाई जाती है वह नष्ट नहीं होती वरन् सूक्ष्म होकर वायु मण्डल में फैल जाती है। भिन्न-भिन्न वृक्षों की समिधाओं एवं हवन सामग्रियों में अलग-अलग गुण हैं। उनके द्वारा ऐसा वायुमण्डल रखा जा सकता है, जो शरीर और मन को स्वस्थ बनाने में सहायक हो। किस समिधा और किन-किन सामग्रियों से किस विधान के साथ हवन करने का क्या परिणाम होता है ? इसका विस्तृत विधान बताने के लिये गायत्री यज्ञ विधान लिखा गया है। गायत्री साधकों को तो अपने अन्नमयकोश की वायु शुद्धि के लिये कुछ हवन सामग्री बनाकर रख लेनी चहिये जिसे धूपदानी में थोड़ी-थोड़ी जलाकर उससे अपने निवास स्थान की वायु शुद्धि करते रहना चाहिये। चन्दन चूरा देवदारू, जायफल, इलायची, जावित्री, अगर-तगर, कपूर, छार-छबीला, नागरमोथा, खस, कपूर-कचरी तथा मेवायें, जौ कूट करके थोड़ा घी और शक्कर मिलाकर धूप बन जाती है। इस धूप की बड़ी मनमोहक एवं स्वास्थ्यवर्धक गन्ध आती है। बाजार से भी कोई अच्छी अगरबत्ती या धूपबत्ती लेकर काम चलाया जा सकता है। साधना काल में सुगन्ध की ऐसी व्यवस्था कर लेना उत्तम है।  साँस मुँह से नहीं सदा नाक से ही लेना चाहिये। कपड़े से मुँह ढककर नहीं सोना चाहिये और किसी के मुँह के .इतना पास नहीं सोना चाहिये कि उसकी छोड़ी हुई साँस अपने भीतर जाये। धूलि, धुँआ और दुर्गन्ध भरी अशुद्ध वायु से सदा बचना चाहिए।


(4) पृथ्वी तत्व- शुद्ध मिट्टी में विष-निवारण की अद्भुत शक्ति होती है। गन्देहाथों को मिट्टी से माँजकर शुद्ध किया जाता है। प्राचीनकाल में ऋषी -मुनि जमीन खोदकर गुफा बना लेते थे और उसमें रहा करते थे। इससे उनके स्वास्थ्य पर बड़ा अच्छा असर पड़ता था।     मिट्टी उनके शरीर के दूषित विकारों को खींच लेती थी, साथ ही भूमि से निकलने वाले वाष्प द्वारा देह का पोषण भी होता रहता था। समाधि लगाने के लिये गुफायें उपयुक्त स्थान समझी जाती हैं, क्योंकि चारों ओर मिट्टी से घिरे होने के कारण शरीर को साँस द्वारा ही बहुत-सा आहार प्राप्त हो जाता है और कई दिनों तक भोजन की आवश्यकता नहीं पड़ती या कम भोजन से काम चल जाता है।

छोटे बालक जो प्रकृति के अधिक समीप हैं पृथ्वी के महत्त्व को जानते हैं, वे भूमि पर खेलना, भूमि पर लेटना, गद्दों तकियों की अपेक्षा अधिक पसन्द करते हैं। पशुओं को देखिये वे अपनी थकान मिटाने के लिये जमीन पर लोट लगाते हैं और लोट-पीटकर पृथ्वी की पोषण शक्ति से फिर ताजगी प्राप्त कर लेते हैं। तीर्थयात्रा एवं धर्म कार्यो के लिये नंगे पैरों चलने का विधान है। तपस्वी लोग भूमि पर शयन करते हैं। इन प्रथाओं का उद्देश्य धर्म साधनों के नाम पर पृथ्वी की पोषक शक्ति द्वारा साधकों को लाभन्वित करना ही है। पक्के मकानों की अपेक्षा मिट्टी के झोपड़ों में रहने वाले सदा अधिक स्वस्थ्य रहते हैं।     मिट्टी के उपयोग द्वारा स्वास्थ्य सुधार में हमें बहुत सहायता मिलती है। निर्दोष पवित्र भूमि पर नंगे पाँवों टहलना चाहिये। जहाँ छोटी-छोटी हरी घास उग रही हो, वहाँ टहलना तो और भी अच्छा है। पहलवान लोग चाहें वे अमीर ही क्यों न हों रुई के गद्दों पर कसरत करने की अपेक्षा मुलायम मिट्टी के अखाड़ों में ही व्यायाम करते हैं, ताकि मिट्टी के अमूल्य गुणों का लाभ उनके शरीर को प्राप्त हो। साबुन के स्थान पर पोतनी या मुलतानी मिट्टी का उपयोग भी किया जा सकता है। यह मैल को दूर करेगी विष को खींचेगी और त्वचा को कोमल, ताजा, चमकीला और प्रफुल्लित कर देगी। मिट्टी शरीर पर लगाकर स्नान करना एक अच्छा उबटन  है। गर्मी के दिनों में उठने वाली मरोरियाँ और फुन्सियाँ दूर हो जाती हैं सिर के बालों को मुलतानी मिट्टी से धोने का रिवाज अभी तक मौजूद है। इससे सिर को मैल दूर हो जाता है। खुरण्ट जमने पर बन्द हो जाते हैं। बाल काले मुलायम एवं चिकने रहते हैं तथा मस्तिष्क में बड़ी तरावट पहुँचती है। हाथ साफ करने और बर्तन माँजने के लिए मिट्टी से अच्छी और कोई चीज नहीं है। फोड़े, फुन्सी, दाद, खाज, गठिया, जहरीले जानवरों के काटने सूजन, जख्म, गिल्टी, नासुर, दुखती हुई आँखों, कुष्ठ उपदंश रक्त विकार आदि रोगों पर गीली मिट्टी, बाँधने से आश्चर्यजनक लाभ होता है। डाँ० लुईकुने ने अपनी जल चिकित्सा में मिट्टी की पट्टी के अनेक उपचार लिखे हैं। चूल्हे की जली हुई मिट्टी से दाँत माँजने, नाक के रोगों में मिट्टी के ढेले पर पानी डालकर सुँधारने, लू लगने पर पैरों के ऊपर मिट्टी थोप लेने की विधि से सब लोग परिचित हैं।

किसी स्थान पर बहुत समय तक मल-मूत्र डालते रहें तो डालना बन्द कर देने के बाद भी बहुत समय तक वहाँ दुर्गन्ध आती रहती है। कारण यह है कि भूमि में शोषण शक्ति है वह पदार्थों को सोख लेती है और उसका प्रभाव बहुत समय तक अपने अन्दर धारण किये रहती है।

पृथ्वी को सूक्ष्म शक्ति लोगों के सूक्ष्म विचारों और गुणों को सोखकर अपने में धारण कर लेती है। जिन स्थानों पर हत्या, व्यभिचार, जुआ आदि दुष्कर्म होते हैं उन स्थानों का वातावरण ऐसा घातक हो जाता है कि वहाँ जाने वालों पर उनका प्रभाव पड़े बिना नहीं रहता।

श्मशान भूमि जहाँ अनेक मृत शरीर नष्ट हो जाते हैं, अपने में एक भयंकरता छिपाये बैठी रहती है, वहाँ जाने पर एक विलक्षण प्रभाव मनुष्य पर पड़ता है अनेक तांत्रिक साधना तो ऐसी हैं जिनके लिये केवल मात्र मरघट का वातावरण ही उपयुक्त होता है।

भूमिगत प्रभाव से गायत्री साधकों को लाभ उठाना चाहिये जहाँ सत्पुरुष रहते हैं, जहाँ स्वाध्याय, सद्विचार, सत्कार्य होते हैं, वे प्रत्यक्ष तीर्थ हैं, उन स्थानों का वातावरण साधक की सफलता में बड़ा लाभदायक होता है। जिन स्थानों में किसी समय में कोई अवतार या दिव्य पुरुष रहे हैं, उन स्थानों की प्रभाव शक्ति या तपस्वी बहुत काल तक रहे हैं वह स्थाना सिद्धपीठ बन जाते हैं और वहाँ रहने वालों पर अनायास ही अपना प्रभाव डालते हैं।

सूक्ष्मदर्शी महात्माओं ने देखा है कि भगवान कृष्ण की प्रत्यक्ष लीला तरंगें अभी तक ब्रजभूमि में बड़ी प्रभावपूर्ण स्थिति में मौजूद हैं। तीर्थवासियों के दूषित चित्तों के बावजूद इस भूमि की प्रभाव शक्ति अब भी बनी हुई है और साधक को उसका स्पर्श होते ही शान्ति मिलती है। कितने मुमुक्ष अपनी आत्मिक शान्ति के लिये इस पुण्यभूमि में निवास करने का स्थाई या अल्पकालीन अवसर निकालते हैं। कारण यह है कि क्लेशयुक्त वातावरण के स्थान में जितने श्रम और समय में जितनी सफलता मिलती है, उसकी अपेक्षा पुण्य भूमि के वातावरण में कहीं जल्दी और कहीं अधिक लाभ होता है। तीर्थ-स्थानों में नंगे पैर भ्रमण करने का भी महात्म्य इसलिये है कि उन स्थानों की पुण्य तरंगें अपने शरीर से स्पर्श करके आत्म-शान्ति का हेतु बनें।

पृथ्वीतत्व के शोधन में प्रति दिन प्रातःकाल नंगे पैरों टहलने से पैर और पृथ्वी का संयोग होता है। उससे पैरों के द्वारा शरीर के विष खिंच कर जमीन में चले जाते हैं और ब्रह्म मुहूर्त में जो अनेक आश्चर्य जनक गुणों से युक्त वायु पृथ्वी में से निकलती है उसको शरीर सोख लेता है। प्रातःकाल के समय यह लाभ और किसी समय में प्राप्त नहीं हो सकता। अन्य समयों में तो पृथ्वी से हानिकारक वायु भी निकलती है जिससे बचने के लिए जूता आदि पहनने की जरूरत होती है।

प्रातःकाल नंगे पैर टहलने के लिए कोई स्वच्छ जगह तलाश करनी चाहिए। हरी घास भी वहाँ हो तो और भी अच्छा। पास के ऊपर जमी हुई नमी पैरों को ठंडा करती है। वह ठंडक मस्तिष्क तक पहुँचती है। किसी बगीचे, पार्क, खेल या अन्य ऐसे ही साफ स्थान में प्रति दिन नंगे पाँवों कम से कम आधा घण्टा नित्य टहलना चाहिए। साथ ही यह भावना करते चलना चाहिए ''पृथ्वी की जीवनी शक्ति को मैं पैरों द्वारा खींच कर अपने शरीर में भर रहा हूँ और मेरे शरीर में विषों को पृथ्वी खींच कर मुझे, निर्मल बना रही है।'' यह भावना जितना ही बलवती होगी, उतना ही लाभ अधिक होगा।

हफ्ते में एक दो बार स्वच्छ भुरभुरी पीली मिट्टी या शुद्ध बालू लेकर उसे पानी से गीली करके शरीर पर साबुन को तरह मलना चाहिए। कुछ देर तक उस मिट्टी को शरीर पर लगा रहने देना चाहिए और बाद में स्वच्छ पानी से स्नान करके मिट्टी को पूरी तरह से छुड़ा देना चाहिए। इस मृतिका स्नान से शरीर के भीतरी और चमड़े के विष खिंच जाते हैं और त्वचा कोमल एवं चमकदार बन जाती है।

(५) आकाश तत्व- आकाश तत्व पिछले चार तत्वों की अपेक्षा अधिक सूक्ष्म होने से अधिक शक्तिशाली है। विश्वव्यापी पोल में, शून्याकाश में एक शक्ति 'तत्व' भरा हुआ है, जिसे अग्रेंजी में 'ईथर' कहते हैं। पोले स्थान को खाली नहीं समझना चाहिये। वह वायु से सूक्ष्म होने के कारण प्रत्यक्ष रूप से अनुभव नहीं होता, तो भी उसका अस्तित्व पूर्णतया प्रमाणित है।

रेडियो द्वारा जो गायन, समाचार, भाषण आदि हम सुनते हैं, वे ईथर में, प्रकाश तत्व में, तरंगों के रूप में आते हैं। जैसे पानी में ढेला फेंक देने पर उसकी लहर बनती हैं, इसी प्रकार ईथर (आकाश) में शब्दों की तरंगें पैदा होती हैं और पलक मारते विश्व भर में फैल जाती हैं। इसी विज्ञान के आधार पर रेडियो यन्त्र का आविष्कार हुआ है।  एक स्थान पर शब्द तरंगों के साथ बिजली की शक्ति मिलाकर उन्हें अधिक बलवती करके प्रवाहित कर दिया जाता है। अन्य स्थानों पर जहाँ रेडियो यन्त्र लगे हैं उन आकाश में बहने वाली तरंगों को पकड़ लिया जाता है और प्रेषित सन्देश सुनाई देने लगते हैं।

वाणी चार प्रकार की होती है। १- वैखरी- जो मुँह से बोली और कानों से सुनी जाती है, जिसे शब्द कहते हैं। २- मध्यमा संकेतों से, मुखाकृति से, भावभंगी नेत्रों से कही जाती है, इसे भाव कहते हैं। ३- पश्यन्ती जो मन से निकलती है और मन ही उसे सुन सकता है। इसे विचार कहते हैं। ४- परा यह आकांक्षा, इच्छा, निश्चय, प्रेरणा, शाप, वरदान आदि के रूप में अन्तःकरण से निकलती है, इसे संकल्प कहते हैं।

यह चारों ही वाणियाँ आकाश में तरंग रूप से प्रवाहित होती हैं। जो व्यक्ति जितना ही प्रभावशाली है, उसके शब्द, भाव विचार और संकल्प आकाश में उतने ही प्रबल होकर प्रवाहित होते हैं।

आकाश में असंख्य प्रकृति के असंख्य व्यक्तियों द्वारा असंख्य प्रकार की स्थूल एवं सूक्ष्म शब्दावली प्रेषित होती रहती हैं। हमारा अपना मन जिस केन्द्र पर स्थिर होता है, उसी जाति के असंख्य प्रकार के विचार हमारे मस्तिष्क में धँस जाते हैं और अदृश्य रूप से उन अपने पूर्व निर्धारित विचारों की पुष्टि करना आरम्भ कर देते हैं। यदि हमारा अपना विचार व्यभिचार करने का हो तो असंख्य व्यभिचारियों द्वारा आकाश में प्रेषित किये गये वैसे ही शब्द, भाव, विचार और संकल्प हमारे ऊपर बरस पड़ते हैं और वैसे ही उपाय सुझाव मार्ग बताकर उसी ओर प्रोत्साहित कर देते हैं।

हमारे अपने स्वनिर्मित विचारों में एक मौलिक चुम्बकत्व होता है। उसी के अनुरूप आकाशगामी विचार हमारी ओर खिंचते हैं।

रेडियों में जिस स्टेशन के मीटर पर सुई कर दी जाय उसी के सन्देश सुनाई पड़ते हैं और उसी समय में जो अन्य स्टेशन बोल रहे हैं, उनकी वाणी हमारे रेडियो से टकराकर लौट जाती है, वह सुनाई नहीं देती। उसी प्रकार हमारे अपने स्वनिर्मित मौलिक विचार ही अपने सजातियों को आमन्त्रित करते हैं।


मरी लाश को देखकर कौआ चिल्लता है तो सैकड़ों कौए उसकी आवाज सुनकर जमा हो जाते है,। ऐसे ही अपने विचार भी सजातियों को बुलाकर एक अच्छी खासी सेना जमा कर लेते हैं। फिर उस विचार-सैन्य की प्रबलता के आधार पर उसी दिशा में कार्य भी आरम्भ हो जाता है।

आकाश तत्व की इस विलक्षणता को ध्यान में रखते हुए हमें कुविचारों से विषधर सर्प की भाँति सावधान रहना चाहिये अन्यथा वे अनेक स्वजातियों को बुलाकर हमारे लिये संकट उत्पन्न कर देगें। जब कोई कुविचार मन में आवे तो तत्क्षण उसे मार भगाना चाहिये अन्यथा यह सारे मानस क्षेत्र को वैसे ही खराब कर देगा जैसे विष की थोड़ी सी बूँद सारे भोजन को बिगाड़ देती है।

मन में सदा उत्तम, उच्च, सात्विक विचारों को ही स्थान देना चाहिये जिससे उसी जाति के विचार अखिल आकाश में से खिंचकर हमारी ओर चले आवें और सन्मार्ग की ओर प्रेरित करें उत्तम बात सोचते रहने, स्वाध्याय, मनन, आत्म-चिन्तन, परमार्थ और उपासनामयी मनोभूमि हमारा बहुत कुछ कल्याण कर सकती है। यदि प्रतिकूल कार्य नहीं हो रहे हों तो उच्च विचारधारा से भी सद्गति प्राप्त हो सकती है भले ही उन विचारों के अनुरूप कार्य न हो रहें हों।

संकल्प कभी नष्ट नहीं होते। पूर्वकाल में ऋषिमुनियों के महापुरुषों के जो विचार, प्रवचन एवं संकल्प थे वे अब भी आकाश में गूँज रहे हैं, यदि हमारी मनोभूमि अनुकूल हो तो उन दिव्य आत्माओं का पथ-प्रदर्शन एवं सहारा भी हमें अवश्य प्राप्त होता रहेगा।

परब्रह्य की ब्राह्यी प्रेरणायें, शक्तियाँ, किरणें एवं तरंगें भी आकाश द्वारा ही मानव अन्तःकरण को प्राप्त होती हैं। दैवी शक्तियाँ ईश्वर की विविध गुणों वाली किरणें ही तो हैं, आकाश द्वारा मन के माध्यम से उनका अवतरण होता है।

शिवजी ने आकाश वाहिनी गंगा को अपने सिर पर उतारा था तब वह पृथ्वी पर बही थी। बाह्य की सर्वप्रधान दिव्य शक्ति आकाश वाहिनी गायत्री गंगा को साधक सबसे पहले अपने मन:क्षेत्र में उतारता है। यह अवतरण होने पर ही जीवन के अन्य अंगों में वह पतितपावनी पुण्यधारा प्रवाहित होती है। शरीर में मन या मस्तिष्क आकाश का प्रतिनिधि है। उसी में आकाशगामी, परम कल्याण करक तत्वों का अवतरण होता है। इसलिए साधक को अपना मन:क्षेत्र ऐसा शुद्ध, परिमार्जित स्वस्थ एवं सचेत रखना चाहिये, जिससे गायत्री का अवतरण बिना किसी कठिनाई के हो सके।

आकाश तत्व में से लाभदायक तत्वों, तरंगों एवं सद्विचारों को आकर्षित करने के लिए प्राणायाम के बाद का समय ठीक है। एकान्त स्थान में किसी नरम बिछोने पर चित्त होकर लेट जाओं, या आराम कुर्सी पर पड़े रहो अथवा मसंद या दीवार का सहारा लेकर शरीर को बिल्कुल ढीला कर दो। नेत्रों का बन्द करके अपने चारों ओर नीले आकाश का ध्यान करो। नीले रंग का ध्यान करना मन को बड़ी शान्ति प्रदान करता है। जब नीले रंग का ध्यान ठीक हो जाय तब ऐसी भवना करनी चाहिए कि निखिल नील आकाश में फैले हुए सद्विचार, सद्विश्वास, सत्प्रभाव चारों ओर से एकत्रित होकर मेरे शरीर में विद्युत किरणों की भाँति प्रवेश कर रहे हैं और उनके प्रभाव से मेरा अन्तःकरण दया प्रेम, परोपकार, कर्तव्य परायणता, सेवा, सदाचार, शान्ति, विनय, गंभीरता, प्रसन्नता, उत्साह, साहस, दृढ़ता, विवेक आदि सद्गुणों से भर रहा है।'' यह भावना खूब मजबूती और दिलचस्पी के साथ मनोयोग तथा श्रद्धापूर्वक होनी चाहिए। जितनी ही एकाग्रता और श्रद्धा होगी उतना ही इससे लाभ होगा।

आकाश तत्व की इस साधना के फलस्वरूप अनेक, सिद्ध, महात्मा, सत्पुरुष, अवतार तथा देवताओं की शक्तियाँ आकर अपने प्रभाव डालती हैं और मानसिक दुर्गणों को दूर करके श्रेष्ठतम सद्भावनाओं का बीज जमाती है। सद्भावों के कारण ही यह लोक और परलोक आनन्द मय बनता है यह तथ्य बिलकुल निश्चित और स्वयं सिद्ध है।

उपरोक्त पाँच तत्वों की साधनाएँ देखने में छोटी और सरल हैं तो भी इनका लाभ अत्यन्त विषद है। नित्य पाँचों तत्वों का जो साधन कर सकते हैं। वे इन सबको करें जो पाँचों को एक साथ न कर सकते हों वे एक-एक दो-दो करके किया करें। कौन सा साधन पहले कौन सा पीछे यह भी अपनी-अपनी सुविधा के ऊपर निर्भर है। जिन्हें प्रतिदिन करने की सुविधा न हो वे सप्ताह में एक दो दिन के लिए भी अपना कार्यक्रम निश्चित रूप से चलाने का प्रयत्न करें। रविवार के व्रत के दिन भी इन पाँचों साधनों को पूरा करते रहें तो भी बहुत लाभ होगा। नित्य प्रति नियमित रूप से अभ्यास करने वालों को तो शारीरिक और मानसिक लाभ इससे बहुत अधिक होता है।



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