गायत्री की पंचकोशी साधना एवं उपलब्धियां

मनोमय कोश का विकास परिष्कार

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मस्तिष्कीय क्षमता के चमत्कार पग-पग सामान्य लोक व्यवहार में दृष्टिगोचर होते हैं। सूझ-बूझ वाले बुद्धिमान मनुष्य हर क्षेत्र में आगे बढ़ते और सफलता पाते हैं। इसके विपरीत मूढ़मति और मंद बुद्धि लोग अनुकूल परिस्थितियाँ रहने पर भी पिछड़ी स्थिति में पड़े रहते हैं। जीवन की गहन समस्याओं को सुलझाने में और आत्मोत्कर्ष का लाभ प्राप्त करने में भी मनःस्थिति की प्रखरता ही लाभ देती है। ज्ञान तंतुओं के माध्यम से यह तत्व समस्त शरीर में फैला हुआ है, मस्तिष्क उसका केन्द्रीय कार्यालय है। यह सुविस्तृत ज्ञान विस्तार अध्यात्म की भाषा में मनोमय कोश कहलाता है। बौद्धिक प्रगति के लिए सामान्यतया प्रशिक्षण के स्कूली तथा दूसरी तरह के उपाय काम में लाये जाते हैं पर मन चेतना के आध्यात्मिक उपचार साधनात्मक हैं। उनके माध्यम से मनशक्ति विकसित और परिष्कृत की जाती है।

मनोमय कोश की साधना मस्तिष्कीय क्षेत्र में घुसे मनोविकारों को दुष्प्रवृतियों को निरस्त करने के लिए लड़ा जाने वाला महाभारत हो, साथ ही इसमें धर्म राज्य की- राम राज्य की स्थापना का लक्ष्य संकल्प भी जुड़ा हुआ हो।

इस सन्दर्भ में वैज्ञानिक-अनुशीलन ध्यान देने योग्य हैं। बहुत समय पहले शारीरिक रोगों का कारण, वात-पित्त, कफ, अपच, मलावरोध, ऋतु प्रभाव, विषाणुओं का आक्रमण आदि माना जाता है। नवीनतम शोधें शरीर पर पूरी तरह मनसत्ता का अधिकार मानती हैं और बताती हैं कि बाह्य कारणों से उत्पन्न हुए रोग तो शरीर की जीवनी शक्ति स्वयं ही अच्छे कर लेते हैं। अथवा मामूली से उपचार से वे अच्छे हो सकते हैं। जटिल रोग तो आमतौर से मनोविकारों के ही परिणाम होते हैं। उनका निराकरण दवा दारू से नहीं मानसिक परिशोधन से ही सम्भव हो सकता है।

शारीरिक ही नहीं मानसिक रोगों का भी यही प्रधान कारण है। दुष्कर्म अथवा दुबुद्धिग्रस्त व्यक्ति शारीरिक ही नहीं मानसिक रोगों से भी ग्रसित रहते हैं। उन्माद विस्फोट की स्थिति न आये तो भी असंतुलन से ग्रस्त व्यक्ति अध-विक्षिप्त स्थिति में पड़े रहते हैं। अकारण दुःख पाते और अकारण दुःख देते हैं। इनकी मनःस्थिति कितनी दयनीय होती है। यह देखने भर से बड़ा कष्ट होता है। शारीरिक व्यथाओं से पीड़ितों की अपेक्षा मनोरोगों से ग्रस्त लोगों की संख्या ही नहीं पीड़ा भी अधिक है। इन व्यथाओ से छुटकारे का उपाय अस्पतालों में नहीं, मानसिक संशोधन की साधनाओं पर ही अवलम्बित है। वे उपाय, उपचार अन्य प्रकार भी हो सकते हैं, पर अध्यात्म विज्ञान के आधार पर उसे मनोमय कोश से, साधना से अधिक सुविधापूर्वक सम्पन्न किया जा सकता है।

काय-विज्ञान के विद्यार्थी जानते हैं कि मस्तिष्क के साथ जुड़े हुए तन्तु सारे शरीर में फैले हैं। उन्ही के माध्यम से इस जटिल यन्त्र का संचालन होता है। इन्द्रियों की क्रियाशक्ति, अनुभूतियाँ, सरसताएँ मस्तिष्क में ही जाकर खुलती हैं। इन्द्रिय गोलक तो मात्र सूचनाएँ संग्रह करने और उन्हें मस्तिष्कीय केन्द्रों तक पहुँचाने भर का काम करते हैं। कोई मानसिक कष्ट होने पर सारा शरीर शिथिल हो जाता है और क्रियाशक्ति में स्पष्टत: अस्त-व्यस्तता दीखने लगती है। भय, चिन्ता, शोक, निराशा जैसे प्रसंगों पर किसी भी मनुष्य का चेहरा उदास और सारा शरीर शिथिल देखा जा सकता है। क्रोध, अपमान, द्वेष, प्रतिशोध की स्थिति में किस प्रकार अंग-प्रत्यगों में उत्तेजना दीख जाती है, इसे किसी आवेशग्रस्त पर छाए हुए भावोन्माद को देखकर सहज ही देखा समझा जा सकता है। प्रसन्न और निश्चिन्त रहने वाले स्वस्थ रहते और दीर्घजीवी बनते हैं। इसके विपरीत क्षुब्ध रहने वाले अकारण दुर्बल होते जाते हैं और अकाल मृत्यु से असमय मरते हैं। यह तथ्य स्पष्ट करते हैं कि शरीर संस्थान पर आहार-विहार का, जलवायु का जितना प्रभाव पड़ता है उससे कहीं अधिक भाव-संस्थान का होता है।

शरीर में स्नायुमंडल द्वारा तथा नलिका विहीन ग्रन्थियों द्वारा भावनायें क्रियाशील होती हैं। हमारे सम्पूर्ण शरीर में स्नायुओं का जाल बिछा हुआ है। सामान्यत: स्नायु उज्जवलवर्णी होते हैं और तार की तरह ठोस होते हैं। हमारी सभी पेशियाँ स्नायुओं के ही आधार पर चलती हैं। प्रत्येक पेशी में पहुँचने वाला मुख्य स्नायु सुतली की तरह मोटा होता है। फिर उसकी शाखा-प्रशाखाएँ अधिकाधिक पतली होती चली जाती हैं। कई प्रशाखाएँ तो बारीक सूत जैसी पतली होती हैं।

सम्पूर्ण स्नायुमण्डल के दो भाग हैं- (१) ऐच्छिक (२) अनैच्छिक। चलने-फिरने, झुकने, मुड़ने वस्तुएँ उठाने, रखने आदि की क्रियाओं में हम अपने हाथ-पैर आदि को इच्छानुसार हिलाते हैं। यह ऐच्छिक स्नायुओं के ही कारण हैं। अनैच्छिक स्नायुओं पर हमारा ऐसा अधिकार नहीं होता। वे शरीर की आन्तरिक क्रियाएँ सम्पादित करते हैं। जैसे हृदय की धड़कनें साँसों का आना-जाना आदि।

अनैच्छिक स्नायुमंडल का केन्द्र मस्तिष्क का एक लघु अंश हाइपोथेलामस होता है। यही 'हाइपोथेलामस' नारी व पौरुष ग्रन्थियों को भी नियन्त्रित करता है। साथ ही 'मोनोएमीन आक्सीडेज' नामक किण्वन (एन्जाइम) भी सम्पूर्ण शरीर में विकीर्ण होते हुए भी केन्द्रीय स्नायविक प्रणाली में विशेष रूप से जमा रहता है। 'हाइपोथेलामस' द्वारा पिट्यूटरी ग्रन्थि भी उत्तेजित होती है और उससे विभिन्न हार्मोन्स निकलते हैं जो भावनाओं का परिणाम भी होते हैं और नई भावनाओं का कारण भी। किसी नई परिस्थिति के उपस्थित होने पर नलिकाविहीन ग्रन्थियों पर दबाव पड़ता है और वे विभिन्न हारमोनों को स्रावित करती हैं। इन हारमोनों की शरीर में प्रतिक्रिया होती है और यह प्रतिक्रिया उसी के अनुरूप भावना समूहों को जन्म देती है। जैसे किसी रोग के कीटाणुओं के संक्रमण-दबाव से पिट्यूटरी ग्रन्थि ने कोई हारमोन छोड़ा, इससे शरीर में तेज हलचल मच गई, व्यक्ति को अव्यवस्था महसूस होने लगी और वह खाट पर पड़ गया। अब बीमारी की दशा में तरह-तरह की भावनाएँ जो अचेतन पन में दबी थीं, उभरने लगी। उनके परिणामस्वरूप अनेक प्रकार की शारीरिक प्रतिक्रियाएँ भी पैदा होने लगती हैं।

मनोमय कोश का निवास मस्तिष्क में बताये जाने का अर्थ केवल इतना ही है कि उसका केन्द्रीय कार्यालय वहीं है। उसके सूक्ष्म अवयव उसकी शाखा-प्रशाखाएँ तो सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त विस्तृत हैं। मस्तिष्क के जीवाणु अन्य जीवाणुओं से अधिक समझदार और अधिक अनुभवी होते हैं, इसीलिए वे शेष जीवाणुओं के अगुआ नेता कहे जाते हैं। वे जिस दिशा में चलते हैं, शेष जीवाणुओं भी उसी दिशा धारा में बहने लगते हैं। सम्पूर्ण सूक्ष्म शरीर को स्वस्थ, प्रसन्न, उल्लसित, प्रगतिशील बनाये रखने के लिए मस्तिष्कीय-स्थिति वैसी होनी जरूरी है। नेता ही निराश-हताश, कुण्ठिन त्रस्त हुआ तो प्रगति की क्या आशा की जा सकती है। नेता का संवेग समस्त अनुयायियों को प्रभावित करता है।

वियन के मनोचिकित्सक डा० फैंकल का मत है कि मानसिक धरातल ही शारीरिक स्वास्थ्य का आधार है। मानसिक असन्तुलन का कारण जीवन की सार्थकता को समझना है। इसीलिए उन्होंने लौगोथेरेपी' या 'अर्थ- बोधचिकित्सा' नाम की चिकित्सा पद्धति विकसित की है। डा० फैंकल की मान्यता है कि जिस व्यक्ति को अपने जीवन और कार्य की सार्थकता का बोध नहीं हो, वह स्वस्थ नहीं रह सकता। मनुष्य जीवन के लक्ष्य और उनकी सिद्धि ही आनन्द का आधार है। डा० फैंकल की चिकित्सा पद्धति में रोगी से प्रिय-अप्रिय सभी विषयों पर चर्चा कर, उसे जीवन की सार्थकता की तलाश की प्रेरणा दी जाती है। व्यक्ति को जैसे ही जीवन में सार्थकता की अनुभूति हो उठती है, वह अपने भीतर निहित शक्तियों का स्मरण कर आत्मविश्वास से भर उठता है और धीरे-धीरे स्वस्थ होने लगता है। मन:क्षेत्र की स्वस्थता उसके स्थूल शरीर को भी स्वस्थ बना देती है।

सूक्ष्म शरीर की हलचलों का स्थूल शरीर पर स्पष्ट एवं निश्चित परिणाम होतो है। तन्त्रकीय रोगों का कारण दबे गन्दे विचार ही होते हैं। शरीर-शास्त्रियों का भी यही मत है, कि मात्र मानसिक चित्रों के आधार पर ही अनेक शारीरिक बीमारियाँ उत्पन्न हो जाती हैं। "इन्फ्लुएन्स' आफ द माइन्ड अपान द वॉडी" नामक पुस्तक के लेखक डा० टुके ने लिखा है- ''विक्षिप्तता मूढ़ता, अंगों का निकम्मा हो जाना, पित्त, पाण्डुरोग, केश-पतन, रक्ताल्पता, घबराहट, मूत्राशय के रोग, गर्भाशय में पड़े बच्चे का अंग-भंग हो जाना, चर्मरोग, फुन्सियाँ, फोड़े, एग्जिमा आदि अनेक स्वास्थ्यनाशक रोग मात्र मानसिक क्षोभ तथा भावनात्मक उद्वेलन के परिणाम होते हैं।'' मानसिक क्षोभ, भावनात्मक उद्वेलन, निषेधात्मक चिन्तन, सूक्ष्म शरीर की विकृतियाँ हैं, जिनका स्थूल शरीर पर स्पष्ट प्रभाव पड़ता है। इसी प्रकार परिष्कृत दृष्टिकोण स्वस्थ-उदात्त चिन्तन, आदर्शवादी विचारधारा सूक्ष्म-शरीर को तेजस्वी प्रखर बनाती है और उसका श्रेष्ठ प्रभाव स्थूल शरीर पर भी स्पष्ट देख जा सकता है।

विधेयात्मक विचारों को, ऊर्ध्वमुखी चिन्तन की आश्चर्यजनक महत्ता के प्रतिपादन में डा० बैनेट ने स्वयं को ही किया है। ५० वर्ष की आयु तक डा० बैनेट निराशा और अवांछनीय चिन्तन के कारण अपना स्वास्थ्य पूरी तरह गँवा बैठे। उन्हें जब ऊर्ध्वगामी चिन्तन की इस असीम उपादेयता का पता चला तो उन्होंने अपना जीवन क्रम ही बदल डाला। मन की जड़ता और विषय-विकारों का जुआ उनने उतार फेंका, हृदय को श्रद्धा आस्था से भरा, सदैव प्रसन्न प्रफुल्ल रहने की आदत बना ली। २० वर्षो के अपने इस जीवन को स्वर्गीय सुख से ओत-प्रोत बनते हुए डा० बैनेट ने अपनी ५० वर्षीय फोटो तथा ७० वर्षीय फोटो भी इसी पुस्तक में छापी है। पहली में उनका चेहरा झुर्रियों से पिचके गाल, धँसी आँखों के कारण मनहूस दिखाई देता है जबकि ७० वर्ष की आयु में वे स्वस्थ सशक्त दिखाई देते हैं, झुर्रियाँ न जाने कहा चली गयी, चेहरे में उद्दीप्ति है और युवकों जैसी सक्रियता।

अब तब किये गये ऐसे ही विविध आधुनिक प्रयोग से यह स्पष्ट हो गया है कि मन का, मस्तिष्क का कष्ट प्रत्येक जीवाणु को कष्ट में डाल देता है। घृणा, ईर्ष्या, क्रोध का अनिष्ट प्रभाव समस्त जीवाणुओं में तुरन्त दौड़ जाता है, झलक उठता है। मस्तिष्क में प्रसन्नता का भाव आते ही प्रत्येक जीवाणु प्रसन्न पुलकित हो उठता है। ये सभी जीवाणु परस्पर गहन आत्मीयता और अभिन्नता का भाव रखते हैं। प्रत्येक जीवाणु की दशा से सभी प्रभावित होते हैं- इनका सुख-दुःख मिला-जुला ही होता है। इनका पारस्परिक सौहार्द-सद्भाव अनूठा है। सच्ची मैत्री, प्रगाढ़ आत्मीयता सहानुभूति के ये अनूठे उदाहरण हैं। कल्पना करें कि एक व्यक्ति को तेज भूख लगी है। सुस्वादु भोजन का थाल सामने है। उसी समय किसी प्रियजन की मृत्यु का तार मिलता है। उसे पढ़ते ही मस्तिष्क में उस प्रियजन की संचित स्तुति सहसा जाग्रत हो उठती है। मन आत्मीय संवेदना उमड़ पड़ती है। मस्तिष्क के जीवाणुओं में हलचल उथल-पुथल मच जाती है। मस्तिष्क के जीवाणुओं की इस प्रतिक्रिया का तत्काल सम्पूर्ण शरीर के जीवाणुओं पर प्रभाव पड़ता है। जीभ सूखने लगती है। भूख बढ़ाने वाले जीवाणुओं जो उछल-कूद मचा रहे थे, चीख-चीख कर भोजन की माँग कर रहे थे, सहम कर शान्त, निष्क्रिय, दुबके से बैठ जाते हैं। हृदय और दूसरे अंग भी निष्प्राण से हो चलते हैं। दिल-डूबने लगता है, आँखों के सामने अंधेरा छा जाता है, शरीर निढाल हो जाता है। समस्त अंगों पर यह प्रभाव पड़ता है। स्पष्ट है कि मस्तिष्कीय जीवाणुओं की भावदशा का तत्काल प्रभाव सम्पूर्ण शरीरस्थ जीवाणु-समूहों पर पड़ता है।

'ओल्ड एज इट्ज काज एन्ड प्रिवेन्शन' नामक पुस्तक में उसके रचियता सुप्रसिद्ध अमरीकी वैज्ञानिक तथा लेखक डा० बैनेट ने एक बहुत ही मनोरंजक किन्तु शिक्षाप्रद घटना दी है। एक १९ वर्षीय फ्रान्सीसी युवती ने एक अमेरिकन नव-युवक से विवाह का निश्चय किया। युवक निर्धन था सो तय यह हुआ कि पहले वह अमेरिका जाकर धन कमायेगा और लौटकर शादी करेगा। युवक ने ३ वर्ष में पर्याप्त धन कमा लिया, पर दुर्भाग्य से कोई मुकदमा लग जाने के कारण वह १५ वर्ष तक फ्रान्स नहीं लौट सका। १५ वर्ष बाद जब वह वापस लौटा तो यह देखकर आश्चर्य चकित रह गया कि उसकी मंगेतर का स्वास्थ्य, सौन्दर्य बिलकुल वैसा ही है जैसा वह १९ वर्ष पूर्व था। ३४ वर्ष की अधेड़ हो जाने पर भी उसमें १९ वर्षीय नव-युवती के गुण विद्यमान थे। घटना का विवेचन करते हुए बैनेट महोदय लिखते हैं- प्रकृति ने मनुष्य शरीर की संचालन प्रक्रिया इस प्रकार रखी है कि शरीर का प्रत्येक कोश (सैल) ८० दिन पीछे पुराना होकर मैल के रूप में उसी प्रकार बाहर निकल जाता है, जिस प्रकार समुद्री लहरों में निरन्तर ज्वारभाटे से समुद्र की गन्दगी तटों पर जमा होती रहती है। कोश-परिवर्तन की यह प्रक्रिया आयु बढ़ने के साथ क्षीण होती रहती है, उसी का नाम वृद्धावस्था है- किन्तु इस घटना ने इस प्राकृतिक व्यवस्था को उलट दिया, ऐसा क्यों ?

इसका उत्तर युवती के मुँह से दिलवाते हुए श्री बैनेट लिखते हैं कि मैं प्रतिदिन प्रातःकाल एक आदमकद शीशे के सम्मुख खड़ी होकर अपना चेहरा देखती और मन ही मन अनुभव करती कि मैं ठीक वैसी ही हूँ जैसी कल थी। दिन के परिवर्तन ने मेरे शरीर में कोई प्रभाव नही डाला। इच्छा शक्ति की यह दृढ़ता मुझे दिन भर पुलकित और प्रसन्न बनाये रखती। उसी का फल है जो मैं जैसे १५ वर्ष पूर्व थी वैसी ही आज भी हूँ।" सूक्ष्म शरीर के शोधन की-विचारों को ऊँचा उठाने की -संकल्प महत्ता उन्होंने अमरीका के अध्यात्म परायण व्यक्ति डा० मारडन की पुस्तक ''लौहे इच्छा शक्ति'' (एन आइरन बिल ); से समुझलें। जिसमें बताया गया है- मनुष्य अपने विचार नये कर लें, चरित्र को ऊँचा उठा ले तो अपना शरीर ही बदल सकता है।'' यह स्वाध्याय उनके लिये तो औषधि बना ही, सैकड़ों को नया जीवन देने वाला है। प्रेम, मैत्री, दवा करुणा और परोपकारी विचारों को धारण कर कोई भी इसका प्रत्यक्ष लाभ ले सकता है।

खोपड़ी के ऊपर या नीचे की रक्तवाहिनियों की पेशियाँ भावनाओं के अनुसार फैलती-सिकुड़ती व तीव्र संवेदनात्मक प्रतिक्रियाएँ करती हैं।

अस्वस्थ भावनाएँ विभिन्न शारीरिक रोगों का कारण बनती हैं। सामान्य सिर दर्द से लेकर "माईग्रेन" नामक कठिन सिर दर्द भावनात्मक तनाव से होता है। इस तनाव से खोपड़ी की रक्तवाहिनाँ सिकुड़ती हैं और इससे सिर दर्द शुरू हो जाता है। आज तो यह पाया जाता है कि सिर दर्द की सौ घटनाओं में से पिचासी का कारण भावनात्मक तनाव होता है।

भावना-क्षोभ के कारण पेशियों में उत्पन्न तनाव के कारण कई बार लोग भोजन के बाद ऐसा अनुभव करते हैं कि कलेजे पर बोझ आ पड़ा और भोजन नीचे सरक नहीं रहा है। अधिक तनाव होने पर उबकाई आने लगती हैं, जी मिचलाने लगता है।

भावनात्मक तनाव से उत्पन्न स्नायु-रोगों में डकारें आना, पेट में ऐंठन होना, विभिन्न वायु-विकार अनेक त्वचा-विकार, एग्जिमा, खुजली आदि होते हैं।

कमर दर्द के बारे में अब ऐसा ज्ञात है कि अधिकांश मामलों में इसका कारण भावनात्मक तनाव ही होता है।

यह जान लेने पर कि भावनात्मक तनावों एवं विकृतियों से ही अधिकांश रोग पैदा होते हैं, यह प्रश्न अनेकों को कचोटता है कि भावनाओं पर नियन्त्रण कैसे हो ? इसका एक ही सरल मार्ग है- समझदारी भरे दृष्टिकोण का नित्य-प्रति के जीवन में अभ्यास। बिना अभ्यास के यह दृष्टिकोण व्यावहारिक जीवन में नहीं उतरता। जिन्दगी को बोझ न मानते हुए, खेल भावना से जीना, अभ्यास द्वारा ही सम्भव है। अपनी सीमाओं को पहचानना, शक्ति के सर्वोत्तम उपयोग की व्यवस्था करना- मैं-मैं की चीख-पुकार से मुक्त अपने दायित्वों को समझना और निभाना, तथा सृजनात्मक वृत्तियों का जीवन में निरन्तर विकास करना ही एकमेव राजमार्ग है।

सामान्यत: कठोरता, क्रोध, बात-बात में लड़ बैठने आदि को हम भ्रान्तिवश शक्ति का पर्याप्त मान बैठते हैं, जबकि मनोवैज्ञानिक इन सबको बचकानी हरकतें मानते हैं। ये दुर्बलता के प्रतीक हैं। शक्तिशाली व्यक्ति विनम्र एवं दृढ़ होता है। क्रोध और झगड़ालूपन तो शक्ति-हीनता की उपज है। सादगी-संयम का अभ्यास ही शक्ति का स्रोत है। किन्तु अपनी दुर्बलताओं पर व्यर्थ की खीझ भी लाभकर न होगी। धीरे-धीरे ही कुसंस्कार चित्त तल पर जमते हैं और धीरे-धीरे ही उनका उन्मूलन सम्भव है। सतत् अभ्यास ही सर्वोत्तम उपचार है। इस बात को सदा ध्यान में रखा जाय कि मन की कुटिलता और अनैतिक कर्म ही रोग का आधार है तथा मन की शुचिता, स्नेह, करुणा और व्यापक मानवीय प्रेम द्वारा इन रोगों को मिटा सकना सरलता से सम्भव है।

मस्तिष्क की धुलाई-सफाई वैज्ञानिक उपकरणों से भी सम्भव हो सकती है। फिर अध्यात्म साधना के उपचार तो उससे अधिक ही सशक्त समर्थ होते हैं। उनका प्रभाव तो और भी अधिक होना चाहिए।

इलेक्ट्रिकल स्टीम्यूलेशन आफब्रेन (ई० एस० वी०) पद्धति के अनुसार कई एशियन विश्वविद्यालयों ने आंशिक रूप से मस्तिष्क की धुलाई (ब्रेन वासिंग) में सफलता प्राप्त कर ली है। यह अभी बन्दर, कुत्ते, बिल्ली, खरगोश, चूहे जैसे छोटे स्तर के जीवों पर ही प्रयोग किये गये हैं। आहार की रुचि, शत्रुता, मित्रता, भय, आक्रमण आदि के सामान्य स्वभाव को जिस प्रकार चरितार्थ किया जाना चाहिये उसे वे बिलकुल भूल जाते हैं और विचित्र प्रकार का आचरण करते हैं। बिल्ली के सामने एक चूहा छोड़ा गया तो वह आक्रमण करना तो दूर उससे डरकर एक कोने में जा छिपी। क्षणभर में एक-दूसरे पर खूनी आक्रमण करना, एक आध मिनट बाद परस्पर लिपट कर प्यार करना यह परिवर्तन उस विद्युत क्रिया से होता है जो उनके मस्तिष्कीय कोशों के साथ सम्बद्ध रहती है। की बात मनुष्यों पर भी लागू हो सकती है। मानव मस्तिष्क अपेक्षाकृत अधिक परिष्कृत होता है उसमें प्रतिरोधक शक्ति भी अधिक होती है इसलिये उसमें हेर-फेर करने के लिये प्रयास भी कुछ अधिक करने पड़ेंगे और पूर्ण सफलता प्राप्त करने में देरी भी लगेगी, पर जो सिद्धान्त स्पष्ट हो गये हैं, उनके आधार पर यह निश्चित हो गया है कि मनुष्य को भी जैसा चाहे सोचने, मान्यता बनाने और गतिविधियाँ अपनाने के लिए विवश किया जा सकता है।

मनोमय कोश की साधना मस्तिष्कीय क्षेत्र की धुलाई-सफाई ही नहीं करती, वरन् उसे समुन्नत सुसज्जित एवं सुसंस्कृत बनाने का काम भी बहुत हद तक पूरा कर सकती है।

मनोमय कोश शरीर और मस्तिष्क के समूचे को अपने अंचल में समेटे हुए हैं। वह इन दोनों क्षेत्रों को प्रभावित करता है। अन्तःकरण के अस्त-व्यस्त और विकृत स्थिति में बने रहने पर उसकी प्रतिक्रिया शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर विनाशकारी प्रभाव डालती है। व्यक्तित्व लड़खडा जाने पर दृष्टिकोण और व्यवहार दोनों ही गड़बड़ाते हैं। फलत: गतिविधियाँ अवांछनीयता से भर जाती हैं। स्पष्ट है कि ऐसी स्थिति में विपत्तियों ही उत्पन्न होंगी। अवरोध ही खड़े होंगे। कलह और संकट आक्रमण करेंगे। समूचा जीवन ही नरक बन जायेगा इस नारकीय यन्त्रणा से छुटकारा कोई और नहीं दिला सकता। क्योंकि इस विपत्ति का दोष भले ही किसी पर थोपा जा सके उसका कारण अपना आपा ही होता है। मन:स्थिति के रूप परिस्थिति बनने का तथ्य इतना स्पष्ट है कि उसे झुठलाये जाने की कहीं कोई गुँजायश नहीं है। अपने आप में परिवर्तन किये बिना हम इस नरक से अन्य किसी तरह उबर नहीं सकते। जीवन-क्रम में उत्पन्न विविध-विधि अवरोधों से छुटकारा पाये बिना हमारा उद्धार हो नहीं सकता। समस्याओं और विपन्नताओं से त्राण मिल नहीं सकता।

प्रवीणता, पारंगतता, सफलता जैसी अनेकों उत्साहवर्धक विभूति इस मनोमय कोश की साधना के ही वरदान हैं। कभी-कभी किन्हीं विशेष व्यक्तियों में विलक्षण मानसिक विशेषतायें पाई जाती हैं। किन्हीं की स्मरण शक्ति इतनी विकसित होती है कि सामान्य लोगों की उनसे तुलना करने पर आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है। किन्हीं में कला कौशल की पारगतता आरंभिक जीवन में ही पाई जाती हैं जिनके कारण वे एक आश्चर्य की तरह दर्शनीय और ख्याति प्राप्त बन जाते हैं। इन अद्भुत घटनाओं का मूल रहस्य इतना ही होता है कि उनका मनोमय कोश किन्हीं अंशों तक जाग्रत हो उठता है। पूर्व जन्मों की उपलब्धियाँ ही ऐसे कारणों में प्रधान भूमिका निभा रही होती हैं। मनुष्य पिछले जन्म के असंख्य संस्कार अपने साथ लेकर आता है। उन्हीं में मनोमय कोश का विकास होना भी एक हो सकता है।

साधना की सिद्धि का सिद्धान्त हर क्षेत्र में काम करता है। श्रम का पुरस्कार मिलने की बात सवविदित है। पुरुषार्थ का प्रतिफल प्राप्त होने के सिद्धान्त को सुनिश्चित तथ्य मान कर ही संसार के विविध क्रिया- कलाप चल रहे हैं। अध्यात्म साधना के सम्बन्ध में भी यही बात है। यदि वह तथ्यों पर आधारित हो और विधिवत सम्पन्न की जाय तो उसके लाभ मिलना भी सुनिश्चित है।

मनोमय कोश को जाग्रत परिष्कृत करने के प्रयत्नों में ध्यान एकाग्रता को प्रमुखता दी गई है। जिससे संकल्प-बल प्रचण्ड हो, लक्ष्य विशेष पर उसका नियोजन हो सके। इस आधार पर मस्तिष्क संस्थान को विकसित करने, व्यक्तित्व में चमत्कारी प्रतिभाओं को जगाने जैसे अनेकों लाभ प्राप्त किये जा सकते हैं।


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