गायत्री की पंचकोशी साधना एवं उपलब्धियां

अन्नमय कोश की जाग्रति, आहार शुद्धि से

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आत्मिक प्रगति का मुख्य माध्यम मन है। वही बंधन और मोक्ष का कारण है। मन की चंचलता एवं कुटिलता को नियन्त्रित करके ही अध्यात्म साधना के मार्ग से प्रगति होती है और सफलता मिलती है। मन का स्तर खाये हुए अन्न के अनुरूप बनता है। अस्तु साधना पथ के पथिक को सर्व प्रथम अपने आहार पर ध्यान देना चाहिये। अन्न के स्तर में जितना सात्विकता का समावेश होगा मन उसी अनुपात से निर्मल बनता जायगा। यह चिन्तन की पवित्रता ही वासना, तृष्णा, अहंता आदि दुष्प्रवृत्तियों का नियमन कर पाती। अन्नमय कोश प्रथम और प्रत्यक्ष है। उसकी साधना के लिये अन्न की गरिमा को ध्यान में रखते हुए आगे बढ़ने का प्रयास करना चाहिये। शास्त्र अन्न की आध्यात्मिक गरिमा का इस प्रकार प्रतिपादन करता हैं-
अन्नमय हि सोम्य मन।                   
-छान्दोग्योपनिषद् ६ प्र० ५। ४   
हे सोम्य ! यह मन अन्नमय है।

अन्न ब्रह्नोति व्यजानात्। .........
तपसा ब्रह्म विजिसास्व। स तपस्तप्त्वा।                    
-तैत्तरीयोपनिषद् ३। २

महर्षि भृगु ने तप करके यह जाना कि यह अन्न ही ब्रह्म है, यह तप ब्रह्म से जाना जाता है। सो वे अन्न तप करने लगे।
एवमेव खलु सोम्पान्नस्याश्यमानस्य योऽणिमा स
ऊर्ध्व: समुदीषति तन्मनोभवति ॥ २॥ अपा सोम्य
पीयमानानां योऽणिमा स ऊर्ध्व: समुदीषति स
प्राणो भवति ॥ ३ ॥ तेजस: सोम्याश्यमानस्य
योऽणिमा स ऊर्ध्व: समुदीषति सा
वाग्भवति । ४।
-छान्दोग्योपनिषद् ६ प्र० ६। २, ३, ४

हे सोम्य ! इस प्रकार ही खाये जाते अन्न का जो सूक्ष्म भाग होता है वह ऊपर उठ जाता है। वह मन तन्तु जाल बनता है। ऐसे ही पिये जाते हुए जलों का जो सूक्ष्म अंश होता है, वह ऊपर नितर आता है। वह प्राण जीवन हो जाता है। ऐसे ही खाये हुऐ तेज का जो सूक्ष्म अंश होता है वह ऊपर नितर आता है वह वाणी बन जाती है।
अन्नमशितं त्रेधा विधीयते तस्य यः स्थविष्टो।
धातुस्तपुरोषं भवति यो मध्यमस्तन्मासं
योणिष्टास्तन्मनः ॥ १ ॥
-छान्दोग्य ६। ५। १

जो अन्न खाया जाता है वह तीन भागों में विभक्त हो जाता है। स्थूल अंश मल, मध्यम अंश रस, रक्त, माँस आदि और सूक्ष्म अंश मन बन जाता है.।
                               अन्नमय हि सौम्ममन:।             
                                 -छान्दोग्य ६। ५। ४

अन्न की शुद्धता से मन की शुद्धता होती है।

                     यदन्नम् पुरुषो भवति तदन्ना स्तस्य देवता:।                    
                                               -बाल्मीक रामायण

मनुष्य जैसा अन्न खाता है, वैसे ही उसके देवता भी बनते हैं।

अयं यज्ञो वेदेयु प्रतिष्ठित:। वेदा वाचि प्रतिष्ठित: वाङ्
मनसि प्रतिष्ठिता। मन: प्राणे प्रतिष्ठितम्। प्राणोऽन्ने
प्रतिष्ठित:।
                                                    -गायत्री उपनिषद् ७
यह यज्ञ वेद पर निर्भर है। वेद वाक् पर निर्भर है। वाक् मन पर, मन प्राण पर, प्राण अन्न पर निर्भर है।
भुक्तं पीतं यदस्त्यत्र तद्रसादामबन्धनम्।
स्थूलदेहस्य लिंगस्य तेन जीवनधारणाम्।
-शिव गीता

   इस स्थूल देह से जो कुछ भोजन किया जाता, पिया जाता है उसी के कारण लिंग और स्थूल देह में सम्बन्ध उत्पन्न होता है, उसी से जीवन धारण होता है।

स योऽन्नं बह्नोत्युपास्तेऽन्नवतो वै स
लोकान्यानवतोऽभिसिद्धयति यावदन्नस्य गत तत्रास्य
यथा कामचारो भवति याऽन्नं प्रह्मोत्युपास्ते। अस्ति
भगवोऽन्नांद्भूय इति।
-छान्दोग्योपनिषद् ७ प्र० १। २

जो जन अन्न को महान् मानकर भगवान की उपासना करता है, खाता पीता हुआ उसको नहीं भूलता, वह अमृतभोजी अन्न वाले और पान वाले लोकों को सिद्ध कर लेता है।

आहार शुद्धया नृपते, चित्त शुद्धिश्च जायते।
शुद्धे चित्ते प्रकाश: स्याद्धर्मस्य नृपसत्तम्।
                                          -देवी भागवत्

हे राजन ! आहार शुद्ध होने पर चित्त की शुद्धि होती है। इस निर्मल चित्त से ही धर्म का प्रकाश होता है। अपनी स्थिति का विश्लेषण करते हुए महर्षि तैत्तरीय कहते हैं मैंने यह रहस्य भली प्रकार जान लिया कि मैंने जैसा खाया वैसा ही बन गया। मेरी स्थिति अन्न पर ही आधारित रही है।
हाइबु हाइबु हाइबु। असमन्नमहन्नमहन्नम्।
                                           -तैत्तरीयोपनिषद् ३। १०
आश्चर्य, महान् आश्चर्य, मैं अन्न ही हूँ मैं अन्न ही हूँ।

अन्न के प्रति श्रद्धा रखी जाये। उसका महत्त्व न घटाया जाये। अन्न में जीवट, जीवनी शक्ति रहती है। वह प्राण स्वरूप है। उसका सेवन व्रत की तरह किया जाये। जो अन्न की गरिमा समझकर उसकी ब्रह्म समान उपासना करता है। वह कीर्तिवान, सम्पत्तिवान, बलिष्ठ और नेता बनता है। उसे ब्रह्म वर्चस की प्राप्ति होती है। यह भाव तैतरीयोपनिषद् के निम्नलिखित श्रुति में इस प्रकार व्यक्त किये गये हैं-    
अन्न न निंद्यात्। तद्व्रतं। प्राणो या अन्नम्।
शरीरमन्नादम्। प्राणे शरीरं प्रतिष्ठितम्। शरीरे प्राण:
प्रतिष्ठित:। तदेतदन्नमन्ने प्रतिष्ठितम्। सं य एतदन्नमन्ने
प्रतिष्ठित वेद प्रतितिष्ठिति। अन्नवानन्नादो
भवति। महान् भवति प्रजया पशुभिर्ब्रह्मवर्चसेन।
महान् कीर्त्या ॥ १ ॥
                                           -तैत्तरीयोपनिषद् ३- वल्ली ७
न केवल अन्न वरन् जल भी आहार है। खाने की तरह पीना भी महत्त्वपूर्ण है। उसका भी मन:स्थिति पर प्रभाव पड़ता है। जल भी अपने ढंग का खाद्य ही है। अस्तु आहार शुद्धि की तरह जल शुद्धि का भी पूरा-पूरा ध्यान रखा जाना चाहिये। साधना प्रयोजनों में पवित्र नदी सरोवरों के जल को इसी दृष्टि से महत्वपूर्ण स्थान दिया जाता है। कहा गया है-
आपो वा अन्नम्। ज्योतिरन्नादम्।
अप्सु ज्योति: प्रतिष्ठितम्।
                          तैत्तरीय ३०

जल भी अन्न है। उसमें दिव्य ज्योति का निवास है।

आहार स्वाद के लिए औषधि रूप में सेवन किया जाये। उसकी अन्तःशक्ति को ध्यान में रखा जाये। वह जीवन है जीवन का आधार है। यह समझते हुए उसकी स्वादिष्टता को नहीं सात्विकता को ही महत्त्व दिया जाना चाहिये। अविधिपूर्वक सेवन किया गया अभक्ष आहार उलटा प्राणी को ही खा जाता है। उसके लिए विपत्ति का कारण बनता है। इस भाव को उपनिषद्कार ने इस प्रकार व्यक्त किया है-   
अन्न हि भूतानां ज्येष्ठम्। तस्मात्सर्वोषध मुच्यते।
जातान्यन्नेन वर्धन्ते। अद्यतेति च भूतानि।
                                       -तैत्तरीय

प्राणियों में अन्न की ही श्रेष्ठता है। इसलिये उसे सर्वतोमुखी औषधि कहते हैं। अन्न से जीव जन्मते और बढ़ते हैं। जीवधारी अन्न को खाते हैं पर वह अन्न जीवों को भी खा जाता है।

अनारोग्यमनायुष्यमस्वर्ग्यं चाति भाजनम्।
अपुण्यं लोकविद्विष्टं तस्मात्तत्परिवर्जयेत्।।
                                     -मनु योग सध्या:

अधिक भोजन करने से अनारोग्यता और आयुष्य का नाश होता है; वह स्वर्ग का विरोधी है अर्थात् यज्ञ, जप आदि में वायु के विकार से बैठा नहीं जाता है उपाधि करने से स्वर्ग का भी विरोधी है, अपवित्र और लोक में निंदित है इससे विशेष भोजन न करें।

मिताहारं विनायस्तु योगारम्भं तु कारयेत्।
नानारोग भवन्त्यस्यस्यकिचिद् योगो न सिधयति।
                                       -घेरंड संहिता ५। १६

जो व्यक्ति मिताहार के बिना ही योगाभ्यास प्रारम्भ कर देता है, उसे अनेक रोग हो जाते हैं; योग की कुछ भी सिद्धि नहीं होती।

यादृशं अन्न मश्नाति सात्विक राजसन्तु वा।
तादृशं गुण मानन्नोति गुणै: कर्मर्गतिं तथा।

मनुष्य जैसा भी सत्वगुणी, या तमोगुणी अन्न का सेवन करता है, वैसा ही उसे गुण प्राप्त होता है। अतएव सत्वादि गुणों, के अनुसार ही कर्म तथा चेष्टा होती है।

आलस्यादन्नदोषाश्च मृत्युर्विप्राज्जिधांसर्ति।
                                           -मनु० ५। ४

आलस्य और अन्न दोष से असामयिक अकाल मृत्यु होती है।

दीपो भक्ष्यते ध्वान्तं कज्जलं च प्रसूयते।
यदन्नं भक्षयेत् नित्य जायते तादृशी प्रजा।।                  
 -चाणक्य

दीपक अँधेरा खाता है। इसलिये काजल को जन्म देता है। मनुष्य जैसा अन्न खाता है, वैसा ही उसकी क्रिया एवं परम्परा उत्पन्न होती है।

आहार शुध्दौ सत्वशुद्धि: सत्वशुद्धौ ध्रुवा स्मृति लम्भे
सर्वग्रन्थिनां विप्रमोक्षस्तस्मै मृदित काषा पाप तमसस्पा
दर्शयति भगवान् सनत्कुमार:।
-छान्दोग्य

जब आहार शुद्ध होता है, तब सत्व अर्थात् अन्तःकरण शुद्ध होता है। सत्व के शुद्ध होने पर ध्रुवास्मृति अर्थात् पूर्ण तत्व का निरन्तर स्थायी स्मरण रहता है। उससे सभी कषाय कल्मषों की कुसंस्कारी ग्रन्थियों का विनाश हो जाता है। इस प्रकार निष्पाप नारदजी को भगवान् सनत्कुमार ने अज्ञान को पार करने वाले परम तत्व का साक्षात्कार कराया।

साधक का आहार अनेक स्वादों का न हो। एक ही पदार्थ व एक ही स्वाद उत्तम है। योगी भिक्षा में मिले विभिन्न पदार्थों को इकट्ठा करके एक स्वाद बना लेते हैं। यह उत्तम प्रक्रिया है। इस दृष्टि से खिचड़ी, दलिया जैसे पदार्थ साधना काल में उत्तम रहते हैं। शाक आदि उसी में डाले जा सकते हैं। दही, घी आदि का मिश्रण भी उस एक पदार्थ में ही हो सकता है। इस संदर्भ में इस प्रकार के निर्देश मिलते हैं-
कणानां भक्षणे युक्त: पिण्याकस्य च भो द्विजा:।
स्नेहानां वर्जने युक्तो योगी बलमवाप्नुयात्।।
भुञ्जानो यावकं रूक्षं दीर्घकालं द्विजोत्तमा:।
एकाहारी विशुद्धात्मा योगी बन्तमवाप्नुयात्।।
अखण्डमपि वा मा सततं मुनिसत्तमा:।
उपोष्य सम्यक्शुद्धात्मा योगी बलमवाप्नुयात्।।
-ब्रह्मपुराण

दलिया, सत्तू जी, खिचड़ी आदि रूखा घी रहित भोजन उपवास पूर्वक करता हुआ मनुष्य आत्मशुद्धि कर लेता है और आत्म बल प्राप्त करता है।

तेषांनाशायकर्त्तव्यं योगिनां तन्निबोधमे।
स्निग्धायवागूमत्युष्णां भुक्त्वा तत्रैवधारयेत्।।
वातगुल्म प्रशान्त्पथमुदावर्त्ते तथोदरे।
यवागूँवापिपवन वायुग्रन्थि प्रतिक्षिपेत्।।
नासतोदर्शर्नं योगेतस्मात्तत्परिवर्जयेत्।
-मार्कण्डेय पुराण
घी समेत खिचड़ी खाया करे। यह वात, गुल्म, अपच, उदर रोग आदि रोगों को दूर करती है। योग साधक अपने आहार विहार को ठीक रखे निरर्थक, बातों में न उलझे।

आहाराभक्ष्य निवृत्ता विशुद्ध हृदयं भवेत
आहार शुध्दौचितस्य् विशुद्धिर्भवति स्वत:
चित्ते शुध्दे क्रमाज ज्ञानं भिन्दयतेग्रन्थय: स्फुरम्।
                                             -पाशुपत ब्रह्मोपनिषद्

अभक्ष आहार त्याग देने से अन्तःकरण पवित्र होता है। चित्त की शुद्धि स्वयमेव होने लगती है। इस चित्त शुद्धि के आधार पर सद्ज्ञान का उदय होता है और अवरोधों की ग्रन्थियाँ खुल जाती हैं।

भोजन प्रसन्न चित्त होकर किया जाये। उसे भगवान का प्रसाद मानकर खाया जायें। जो अनुपयोगी हो उसे खाने से पहले ही उठा दे। खाते समय नाक भौं न सकोड़े। ठुँस-ठूँस कर न खाये। जल्दबाजी न करें। कड़ी भूख लगे बिना न खाया जाये। बार-बार खाते रहने की आदत न डालें। साधक को इन तथ्यों पर ध्यान रखने का निर्देश करने वाले कुछ शास्त्र वचन इस प्रकार हैं-
पूजये दशनं नित्यमद्याच्चैत्तदकुत्सयन्।
द्रष्ट्वा हृष्येत्प्रसीदेच्च प्रतिनन्देश्च सर्वशः।।
                                  -मनु० २। ५४
भोजन को नित्य आदर की दृष्टि से देखें और अन्न की निन्दा न करते हुए प्रसन्नतापूर्वक भोजन करे तथा उसे देखकर प्रसन्न होवे और सर्वथा प्रशंसा करे।

यच्छक्यं ग्रसितुं ग्रस्यं ग्रस्त परिणमेच्यात्।
हित च परिणामे यत्तपाद्यं भूति मिच्छता।।

जो ग्रास खाया जा सके, खाया हुआ पच जावे, तथा पचने पर हितकारी हो, उसी को कल्याण चाहने वाले मनुष्य को खाना चाहिये।

अन्नेन पूरयेदर्ध तोयेन तु तृतीयकम्।
उदरस्थ तृतीयाशं संरक्षेद वायुचारणे।।
                                           -घे० स० ५। १२
उदर के आधे भाग को अन्न से भरे, तीसरे भाग को जल से और चौथे को वायु संचार के लिए रिक्त रखे।
 द्वौ भागौ पूरंयेदन्नैस्तोयेनैकं प्रपूरयेत्।
वायो: संचारणार्थाय चतुर्थमवशेषयेत्।।
                                          -योग संध्या
उदर के दो भाग अन्न से पूर्ण करे और एक भाग को जल से पूर्ण करे और चौथे भाग को वायु के चलने के लिए शेष रखे।

   अन्न एक स्तर पर औषधि, दूसरे पर तृप्ति और तीसरे पर विष है। नारी एक स्तर पर माता, दूसरे पर बहिन या पुत्री और तीसरे पर विषय वासना से भरी हुई रमणी है।

   परिश्रम से उपार्जित अन्न खाकर साधना करने से ही उसकी सफलता होती है। पराया अन्न खाकर योगाभ्यास करने से कर्त्ता को मिलने वाला प्रतिफल उस अन्नदाता को चला जाता है। इसी प्रकार यदि वह पाप उपार्जित धन हुआ तो उस पाप से भी परान्न खाने वाले को पापी बनना पड़ता है। अस्तु साधक स्व उपार्जित अन्न पर निर्वाह करें। जिन कुटुम्बियों का भरण पोषण किया है उनसे अपना अनुदान वापस माँगें। यदि दान पर ही निर्वाह करना हो तो बदले में लोक सेवा के लिए परिश्रम करके उस ऋण से छुटकारा प्राप्त करें। भजन करने के नाम पर मुफ्त का माल खाते रहने वालों को साधना की सिद्धि नहीं मिलती। कहा भी है-
यस्यान्नेन तु पुष्टांगो जपं होमं समाचारेत्।
अन्नदातु फलस्यार्ध चार्धं कर्तुर्न संशय:।।
                                         -कुलार्णव तंत्र
दूसरे के अन्न से पेट भरकर जप, हवन आदि करने वाले साधक का आधा फल उसके लिए चला जाता है जिसका अन्न खाया है।

यो यस्यान्न समश्नाति स तस्याश्नाति किविषम्
                                                     -कूर्स पुराण
अर्थात् जो जिसके अन्न को खाता है वह उसके पापों को भी खा लिया करता है।

   ऋग्वेद १०। ११७। ६ में स्व उपार्जित धन का एक महत्त्वपूर्ण अंश परमार्थ प्रयोजनों में लगाने के उपरान्त ही शेष यज्ञावशिष्ठ को खाने का विधान है। जो अपनी कमाई आप ही खाता रहता है उसका अंश दान परमार्थ प्रयोजनों में नहीं लगता वह कृपण व्यक्ति एक प्रकार से पाप ही खाता है। भले ही वह स्व उपार्जित क्यों न हो ? कहा गया है-    जो अपनी कमाई आप ही खाता रहता है, वह मूर्ख मनुष्य एक प्रकार से पाप ही खाता है।

    गाँधी जी ने सप्त महाव्रत लेख माला में प्रथम व्रत 'अस्वाद' को माना है। उनका कथन है कि जिह्वा इन्द्रिय की प्रबलता पर अंकुश लगाया जा सके तो कामेन्द्रिय आदि अन्य इन्द्रियों पर सहज ही नियन्त्रण हो सकता है।

    प्राचीन काल में योगाभ्यासी ऋषियों का भोजन परम सात्विक होता था। महर्षि कणाद अन्न के दाने बीन कर गुजारा करते थे। पिप्पलाद का आहार पीपल वृक्ष के फल थे। वन्य प्रदेशों में कन्द, मूल, फल उपलब्ध थे। इसलिये उनके निवास उसी क्षेत्र में होते थे। अत: वैसी स्थिति तो नहीं रही। पर जितना कुछ संभव है आहार की सात्विकता और व्यवस्था पर अधिकाधिक अंकुश रखना साधना की सफलता के लिए नितान्त आवश्यक समझना चाहिये।



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