गायत्री की पंचकोशी साधना एवं उपलब्धियां

पाँच कोशों की स्थिति और प्रतिक्रिया

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सूक्ष्म शरीर में अवस्थित पाँच कोशों की विवेचना शास्त्रकारों ने स्थान- स्थान पर की है और उनकी गरिमा उपयोगिता से सर्व साधारण को परिचित कराने का प्रयत्न किया है। ऋग्वेद में इन पाँच कोशों को पाँच ऋषियों की संज्ञा दी है और कहा है कि वे जीवन्त स्थिति में ही सारे जीवन उद्यान को पवित्र सुरम्य बना सकते हैं।

अग्निऋर्षिः पवमानः पांचजन्यः पुरोहितः।
तमीमहे महागयम्।
ऋग्वेद १। ६६। २०

यह अग्निऋषि है। पवित्र करने वाली है। पाँच कोशों की मार्ग दर्शक है। इस महाप्राण की हम शरण जाते हैं।

देवताओं की दिव्य शक्तियों की उपासना आराधना करके अभीष्ट वरदान प्राप्त करने की आकांक्षा तभी पूरी हो पाती है जब अन्तरंग में अवस्थित दिव्य शक्तियों, वृत्तियों और प्रवृत्तियों को परिष्कृत करने की साधना की जाय। वस्तुतः इन्हीं अन्तः क्षमताओं को अलंकार रूप से दिव्य लोक में निवास करने वाली सत्ता कहा गया है। यह दिव्य लोक अपना ही अन्तः प्रदेश समझा जाना चाहिए और देवी- देवताओं के रूप में अन्तः क्षमताओं को मान्यता देनी चाहिए।

हृदये व्योममध्ये तु अनन्ताद्यास्तु वासुकिः।
उदये व्योम मध्ये तु परे नागा वसन्ति हि।।
गन्धर्वा़ः किन्नरा रक्षा यिद्याधराप्सरादयः।।
अनेकतीर्थ वर्णाश्च गुह्यकाश्च वसन्ति हि।।
प्रकृतिः पुरुषो देहे ब्रह्मा विष्णुः शिवस्तथा।
अनन्तसिद्धियो बुध्या प्रकाशो वर्त्तते हृदि।।
ब्रह्माण्डे ये गुणाः सन्ति ते तिष्ठन्ति कलेवरे ।।
ब्रह्माण्डे यानि वै सन्ति तानि सन्ति कलेवरे।।
ते सर्वे प्राण संलग्नाः प्राणातीतो निरञ्जनः।
-महायोग विज्ञान

इसी शरीर में पाँच प्राण, अनन्त शक्तियाँ, महा सर्प गन्धर्व किन्नर, राक्षस, विद्याधर, अप्सरायें, अनेक तीर्थ, वर्ण, गुह्यक, निवास करते हैं। प्रकृति, पुरुष, ब्रह्मा, विष्णु, महेश अनन्त सिद्धियाँ अनन्त ज्ञान, अनन्त प्रकाश इसी में विराजमान हैं और प्रकाश प्रकाशित होते हैं। बाह्य ब्रह्माण्ड में जो कुछ भी हो सो सब कुछ सूक्ष्म रूप से इसी शरीर पिण्ड में विद्यमान है।

शरीर पंच तत्वों से बना है। इन्हें पाँच देवता कहा गया है। व्यक्ति सत्ता को इन्हीं पंच देवताओं द्वारा विनिर्मित की कई सृष्टि माना गया है। इन पाँच देवताओं को विकृत दुर्दशा से निकाल कर परिष्कृत स्थिति तक पहुँचाने की प्रक्रिया को पंचीकरण विद्या एवं पंच कोशों की साधना कहते हैं। उपासना तत्व (परिच्छेद तीन) के अनुसार आदित्य, गणेश, देवी, रुद्र और विष्णु ये पंचदेव ही समस्त कर्मों में पूजनीय हैं। जो इन पाँचों का बुद्धिपूर्वक भजन- स्मरण करते हैं, वे कभी भी मलिन नहीं होते-

"आदित्यं गणानाथं च देवी रूद्रं च केशवम्।
पंच दैवतमित्युक्तं सर्वकर्मसु पूजायेत्।।
एवं यो भजते विष्णुं रुद्रं दुर्गाम् गणाधिपम्।
भास्करं च धिया नित्यं स कदाचिन्न सीदति।।"

पाँच देवताओं के नाम तथा स्वरूप अन्यत्र दूसरी तरह ही बताए गए हैं। पर इससे उनके मूल स्वरूप में कोई अन्तर नहीं आता है। दिव्य शक्तियों की गरिमा पाँच कोशों के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ी हुई ही मानी जाएगी।
प्रश्नोपनिषद् में जिज्ञासु नचिकेता को यमाचार्य ने पंचाग्नि विद्या का रहस्यमय उपदेश दिया है। यह पाँच अग्नियाँ अग्निहोत्र के लिए काम आती हैं। अन्तः क्षेत्र में इन्हीं को पाँच कोशों के जागरण का विज्ञान कह सकते हैं।
प्राणाग्नय एवैतस्मिन्पुरे जाग्रति।
गार्हपत्या ह वा एषोsपानो
व्यनोsन्वाहार्यपचनो यदगाहंपत्यात् प्रणीयते
प्रणयमादाहवनीयः प्राणः।।३।।
यदुच्छ्रवासनिःश्वासा वेतावादाहुतो
समं नयतीति स समानः।
मनो ह वाव यजमानः इष्टफलमेवोदानः।
स एनः यजमानमहरहर्ब्रह्म गमयति।।४।।
-प्रश्नोपनिषद ४|३- ४

इस काया नगरी में पांच अग्नियों का निवास है। यह पाँच प्राणों के रूप में प्रज्ज्वलित रहती हैं। अपान गार्हपत्य अग्नि है। व्यान आहवनीय। इन गार्हपत्य और आहवनीय अग्नियों का समन्वय ही प्राण है। स्वासों का आवागमन ही आहुतियों का अविच्छिन्नं क्रम है। वायु ऋत्वक है मन यजमान और इच्छा फल उदास। यहीं मन और हृदय में ब्रह्म को स्थिर करते हैं।
पांच कोशों को स्वर्गलोक के पांच द्वारपाल बताया गया है। इनको अनुकूल बना लेने पर ही उस दिव्य क्षेत्र में प्रवेश कर सकना बन पड़ता है।
तेषाएते पञ्ज ब्रह्म पुरूषा, स्वर्गस्य लोकस्य
द्वारपालस्य एतानेक पंच ब्रह्म पुरूषात।
-छान्दोग्य

यह पांच ब्रह्म पुरूष स्वर्गलोक के द्वारपाल हैं। इनको प्रसन्न करके ब्रह्म पुरूष तक पहुँचना सम्भव होता है।
तैत्तरीयोपनिषद में इन पांच कोशों का कई पंचकों के रूप में वर्णन किया गया है। स्थूल, सूक्ष्म कारण- अध्यात्मिक, आधिदैविक, आधि भौतिक क्षेत्रों में भी इन्हीं पाँच शक्तियों का समावेश बताया गया है।

पृथिव्यन्तरिक्षं द्यौर्दिशो वान्तरदिशाः।
अग्निर्वायुरादित्यश्चचन्द्रमा नक्षत्राणि। आप
अथध्यात्मम। प्राणो व्यानो पान उदानः समानः। चक्षुः
श्रोत्रं मनो वाक त्वक चर्म मा स स्नावास्थिमज्जा।
एतदधिविधाय ऋषिरवोचत पांक्तं वा इस सर्वम। पांक्त
नैव पांक्त स्पृणोतीति।।१।। (सर्वमेकं च) ।।
(तैत्तरीयोपनिषद- सप्तम अनुवाक- १)

पृथिवी, अन्तरिक्ष, सूर्य, लोक, दिशाऐं तथा अवान्तर दिशाऐं यह ५ श्लोकों का समूह है। अग्नि, वायु, आदित्य, चन्द्रमा और नक्षत्र ये ज्योतिपंचक हैं। जल औषधियाँ, वनस्पतियाँ, आकाशं, आत्मा यह पञ्जभूतों का समूह है। ये ऊपर के ३ पांक्त समूह भूतों के सम्बन्ध में हैं। अब अध्यात्म वर्णन करते हैं। प्राण, व्यान, अपान, उदान, समान, यह प्राण पंचक हैं। आँख, कान, कम, वाणी तथा यह इन्द्रिय पाँच (पंचक) हैं। चर्म, मांस, नाडी़, हड़्डी, मज्जा यह धातु पंचक हैं। इस प्रकार ५- ५ चीजों का समूह कह कर ऋषि कहने लगे कि यह जो कुछ चरापर जगत है सब पांक्त है, पाँच- पाँच में विभक्त है, पांक्त की पुष्टि होती है। अर्थात इन ५- ५ पांक्तों को जानकर ही मनुष्य आत्म ज्ञानी होता है। अन्य आप्त वचनों में पंच कोशों की जो व्याख्याऐं की गई हैं जो स्वरूप और कार्य बताए गए हैं। वे भी तैत्तरीयोपनिषद के प्रतिपादन से मिलते जुलते ही हैं।

पंच कोशेषु शक्तिर्मे तथा तिष्ठति नित्यशः।
न पश्यन्ति तु तां शक्ति मज्ञानेपहता नराः।।
- शिवार्णय

पांच कोशों में शिवशक्ति की प्रचण्डता सन्निहित है। अज्ञानी लोग देख समझ नहीं पाते।
सूक्ष्मेण दिव्य लोकेन स्थूल लोकस्य देहिनः।
सम्बन्ध कारको ज्ञेयः कोषः प्राणमयश्चर।।
स्थूल देह धारियों का सम्बन्ध सूक्ष्म दिव्य लोक के साथ जोड़ने का कार्य प्राणमय कोश करता है।

अहन्तां ममतां देहे गेहादौ च करोतियः।
कामाद्यवस्थया भ्रान्तो नासावात्मा मनोमयः।।६।।
जो देह में "मैं" रूप अहन्ता बनकर विद्यमान है। जो वस्तुओं और प्राणियों में ममता रखता है। जो अनेक कामानाऐं करता है और उनकी पूर्ति के लिए भटकता है। वह मन है- मनोमय कोश है।

लीना सुप्तौ वयुर्वोधे व्याप्नुयादान खाग्रगा।
चिन्छायापेतधीर्नात्म विज्ञानमय शब्द भाक।

जो सुषुप्ति में विलीन हो जाता है। जो समस्त शरीर में संख्याप्त है। उस चिदाभास युक्त विवेक बुद्धि को विज्ञानमय कोश कहा गया है।

मनोमयो यं पुरूषो भाः सत्यस्तस्मिन्नन्तर्हृदए
तथा व्रीहिर्वा यत्रो वा स एष सवसेशानः
सर्वस्याधिपतिः सर्वमिदं प्रशास्ति यदिदं किंच।।
वृहदारण्यकोपनिषद (५, ६, १)

यह मनोमय पुरूष प्रकाशमान सत्य स्वरूप है, वह अर्न्तहृदय में धान अथवा जौ के सदृश चमकता है। वह सबका ईश्वर, सबका अधिपति इस जगत में जो कुछ है। सब पर शासन करता है।

या कर्मविषया बुद्धिर्वेदशास्त्रार्थनिश्चिता।।
सा तु ज्ञानेदिन्द्रएः सार्धं विज्ञानमयकोशतः।।

जो कर्म विषयणी बुद्धि और वेदशास्त्र से निश्चित की गई है। वह ज्ञान इन्द्रियों के सहित विज्ञानमय कोश में स्थित रहती है।

काचिन्दतर्मुखी वृत्तिकानन्द प्रतिविम्ब भाक।
पुण्य भोगे भोग शान्तौ निद्रा रूपेण लीयते।।१।।

काया के भीतर एक अर्न्तमुखी वृत्ति है। जो ब्रह्म के प्रतिविम्ब को अपने भीतर भास मान देखती है। वही पुण्य भोगती है। शान्त प्राप्त करती है। और योग निद्रा में लय हो जाती है। उसी का नाम आनन्दमय कोश है।

उपनिषद का तत्वदर्शी ऋषि पंच कोश संबंधी जिज्ञासा का समाधान इस प्रकार करता है-
पञ्जकोशाः के ?

पांच कोश कौन- कौन हैं?

उत्तर:- अन्नमय कोश, प्राणमय कोश, मनोमय कोश, विज्ञानमय कोश और आनन्दमय कोश।

अन्नमय कः?

अन्न रसे नैव भूत्वा, अन्न रसे नैव वृद्धि प्राप्यान्न रूप पृथिव्यां यद्विलीयते तदन्नमयः कोशः स्थूल शरीरम।

अन्न मय कोश किसे कहते हैं?

जो अन्न के रस से उत्पन्न होता है। जो अन्न रस से ही बढ़ता है, और जो अन्न रूप से पृथ्वी में ही लीन हो जाता है उसे अन्नमय कोश एवं स्थूल शरीर कहते हैं।

प्राणमयाः कोश कः?

प्राणदि पञ्ज वायवो वागादीन्द्रिय पञ्जकं

प्राणमयः कोशः।

-प्राणमय कोश किसे कहते हैं?

प्राण, अपान, व्यान, समान, उदान इन पांच प्राण वायुओं के समूह और कर्मेन्द्रिय पंचक के समूह को प्राणमय कोश कहते हैं। संक्षेप में यही क्रिया शक्ति है।

मनो मयः कोशः कः?

मनश्च ज्ञानेन्द्रिय पञ्चकं मिलित्वा भवति स मनोमयः कोशः।

-मनोमय कोश क्या है?

मन और पांच ज्ञानेन्द्रियों के समूह के मिलने से मनोमय कोश बनता है। इसे इच्छाशक्ति कह सकते हैं।,

विज्ञान मयः कोशः कः?

बुद्धिर्ज्ञानेन्द्रिय पंचकं मिलित्वा यो भवति स विज्ञान मयः कोशः।

विज्ञानमय कोश क्या है?

बुद्धि और पांच ज्ञानेन्द्रियों का समन्वय विज्ञानमय कोश यह ज्ञान शक्ति है।

आनन्दमयः कः?

एवमेव कारण शरीर भूताविद्यास्थ मलिन सत्वं प्रियादि वृत्ति सहितं सदानन्दमयः कोशः।

आनन्दमय कोश क्या है ?

इसी प्रकार कारणरूप अविद्या में रहने वाला, रज और तम के संयोग से मलिन, सत्व के कारण मुदित वृत्ति वाला अनन्देच्छुक कोश आनन्दमय कोश है।

ब्रह्म विद्या समर्थित पंच कोशों के जागरण से उत्पन्न ब्राह्मी शक्ति की पराशक्ति के रूप में अभ्यर्थना की गई है। देवी भागवत में कहा गया है-

पंचप्राणाधिदेवी या पंचप्राणस्वरूपिणी।

प्राणाधिकप्रियतमा सर्वाभ्यः सुन्दरी परा।।३६।।

देवी भागवत

पाँच प्राण उसी पंच कोश सम्पदा के पांच स्वरूप हैं प्राणों की अधिष्ठात्री देवी वे ही है। सर्वांग सुन्दरी है। परा शक्ति है। भगवान की प्राणों की प्यारी है।

इनमें से अन्नमय कोश स्थूल है तथा चेतना का प्रथम आवरण है। शरीर भोजन जल एवं वयु पर जीवित रहता है। इसलिए इस कोश को भोजन कोश भी कहते हैं आहर विहार से लेकर तप- तितीक्षा की साधनाओं द्वारा इसे परिष्कृत- परिशोधित किया जाता है। सविता- ध्यान के माध्यम के महाप्राण का अवतरण का इस केन्द्र को जगाया जा सकता है।

प्राणमय कोश को जीवन सत्ता का केन्द्र बिन्दु समझा जा सकता है। प्राण की सामान्य माया द्वारा दैनिक व्यापार चलता है। यह कोश सुषुप्तावस्था में पडा़ रहता है। कुण्डलिनी जागरण की प्रक्रिया में इसे जागृत करने का प्रयत्न किया जाता है। अन्नमय शरीर में परिव्याप्त प्राण शरीर ही भौतिक शरीर के अस्तित्व को कायम रखता है। प्राणमय कोश में प्राण प्रकाश तथा ऊर्जा के रूप में यह जलती हुई उस अग्नि लौ के समान है। जो कम- अधिक होती हुई अन्ततः बुझ जाती है। प्राणमय कोश में सविता के प्राण अनुसन्धान साधना द्वारा जगाने पर विभिन्न प्रकार की अनुभूतियाँ होती हैं। प्राणमय कोश प्रकाश पुंज के रूप में जगमगाता हुआ दीखता है।

मनोमय कोश प्राणमय से भी अधिक सूक्ष्म है। शरीर की समस्त गतिविधियाँ मन द्वारा ही संचालित हैं। जन्म जन्मान्तरों के संचित संस्कार- संचित होते तथा भली- बुरी आदतों के रूप में प्रकट होते हैं। इच्छा, विचारणा संकल्प यही से उठते हैं। सविता ध्यान के द्वारा उन्हें परिशोधित एवं जागृत किया जा सकता है।

विज्ञानमय कोश मनोमय से भी अधिक सूक्ष्म है। यह अपने गर्भ में सृष्टि के समस्त रहस्यों को छिपाए हुए हैं। कुण्डलिनी की प्राणानुसन्धान प्रक्रिया द्वारा जागृत होने पर साधक को अनेकों प्रकार की दिव्य अनुभूतियाँ होती हैं। सृष्टि के रहस्यों का उद्घाटन होता है, अविज्ञात रहस्य भी ऐसे दृष्टिगोचर होने लगते हैं, जैसे सामने घटित हो रहे हैं।

अन्तिम कोश स्थान है जहाँ आत्मा निवास करती है। आत्म साक्षात्कार ब्रह्म साक्षात्कार का केन्द्र बिन्दु यही है। जीव को अपने सत- चित स्वरूप का दिग्दर्शन यहीं होता है। यह आत्मा और परमात्मा का मिलन स्थल है।

इस प्रकार शुद्ध आत्मतत्व पर, चित्त का पहला आवरण आनन्दमय है। आनन्द का विकार रूपी यह कोश आत्मा को आच्छिदित करके प्रिय, मोद प्रमोद रहित आत्मा, प्रैय मोद ओर प्रमोदवान तथा अपरिच्छिन्न सुख रहित आत्मा को परिच्छिन्न सुख विशिष्ट रूप में प्रकट करता है। आनन्दमय कोश का यह आवरण ही जीवात्मा का कारण शरीर कहलाता है। इस कारण शरीर सहित आत्मा को प्रज्ञा कहते हैं।

आनन्दमय कोश को आच्छादित करने वाला आत्मा का दूसरा आवरण विज्ञानमय है। इसे अहंकार और बुद्धि का समन्वित रूप भी कहा जा सकता है। अर्थात यह कोश इन दोनों स विनिर्मित हुआ है। यह कोश आत्म स्वरूप को आच्छदित करके अकर्ता आत्मा को कर्ता, अविज्ञाता आत्मा को विज्ञाता, निश्चय रहित आत्मा को निश्चय युक्त और जाति अभिमान रहित आत्मा को जाति अभिमान वर्तमान है। कर्तृत्व, भोकतृत्व सुखित्व अभिमान आदि ही इस विज्ञानमय कोश का गुण है। इस विज्ञानमय कोश को मनोमय कोश आच्छन्न किए हुए है जिसमें मन और ज्ञानेन्द्रियाँ आती हैं मन और ज्ञानेन्द्रियों का विकाररूपी यह कोश आत्मस्वरूप की आच्छदित करके संशय रहित आत्मा को संशययुक्त, शोक मोह युक्त और दर्शन रहित आत्मा को शोक मोह युक्त और दर्शन रहित आत्मा को दर्शनादि का कर्ता रूप में प्रकट करता है। इच्छा शक्ति इसी मनोमय कोश में विद्यमान रहती है। मनोमय कोश के बाद पांच कर्मेन्द्रियों और पाँच प्राणों का आवरण चढा़ हुआ है जिसे प्राणमय कोश कहते हैं। प्राण और इन्द्रियों का विकार रूपी यह प्राणमय कोश आत्मा को आच्छादित करके वक्तृत्व रहित आत्मा को वक्ता, दातृत्व रहित आत्मा को दाता गति रहित आत्मा को गतिशील तथा क्षुधा पिपासा रहित आत्मा को क्षुधा और पिपासा आदि विकारों से युक्त प्रकट करता है। क्रिया शक्ति प्रधान होने के कारण प्राणमय कोश कार्य रूप में परिलक्षित होता है।
विज्ञानमय, मनोमय और प्राणमय कोषों का समुच्चय ही सूक्ष्म कहलाता है। इस सूक्ष्म शरीर सहित आत्मा को तेजस कहते हैं। सबसे ऊपरी और दिखाई देने वाला कोश अन्नमय है। यह अन्न से बना हुआ और रंज वीर्य से उत्पन्न होता है। इस अन्नमय कोश के कारण अविच्छिन्न और शीत ताप से रहित होते हुए भी शीतल- तप्त अजर- अमर होते हुए भी जरा- मृत्यु तथा जन्म लेने वाली प्रतीत होती है। इस अन्नमय कोश को स्थूल शरीर कहते हैं।
आत्मा के सबसे समीपवर्ती कोश न्को यद्यपि आत्मा कहते हैं। परन्तु मनुष्य का सबसे पहला परिचय अन्नमय कोश से ही होता है। इस कोश को अनावृत करने के बाद ही प्राणमय तक पहुँचा जाता है, प्राणमय के बाद मनोमय, मनोमय के बाद विज्ञानमय, विज्ञानमय के बाद आनन्दमय और आनन्दमय को भी अनावृत करके आत्मतत्व तक पहुँचा जा सकता है। इस स्थिति को ही ब्रह्मानन्द की प्राप्ति वाली स्थिति कहा जाता है।
इस पंच कोश विज्ञान का कई स्थानों पर कई प्रकार से अलंकारिक वर्णन है।
पञ्चस्त्रोतो म्वु पञ्चयोन्युग्रवकां
पञ्चप्राणोर्मि पञ्चबुद्ध्यायदिमूलाल।
पञ्चवर्ता पञ्चादुःखौघवेगां
पञ्चशदभेदां पञ्चपर्वामधीमः।।
श्चेताश्वतर
हम पचास भेदों वाली एक ऐसी नदि को देख रहे थे जो पाँच भँवरों वाली, पाँच घोर प्रवाह वाली, पाँच स्त्रोतों से प्राप्त जल वाली, पाँच स्थानों से उत्पन्न, पाँच प्राण- उर्मियों वाली, टेढे़ तिरछे प्रवाह वाली तथा पञ्चज्ञान रूप में मन के मूल वाली है।
पंचारे चक्रे परिवर्तमाने
तस्मिन्ना तस्थुर्भुवनानि विश्वा।
तस्य नाक्षस्तप्यते भूरिभारः
सनोदेव न शीर्यते सनाभिः।।
प्र० उ० १, ११, तथा अथर्व० ११


पाँच अरे के उस चक्र में, घूमते रहने पर भी, सब भुवन प्रतिष्ठित हैं। उसकी अक्ष (धूरी) कभी तप्त नही होती और बडे़ भारी बोझ से लदा अनादि काल से घूमते रहने पर भी वह नाभि सहित कभी टूटता ही नहीं।
तद्वा अथर्वणः शिरो देवकोशः समुब्जितः।
तत्प्राणो अभिरक्षति शिरो अन्नमयो मनः।।
अथर्व १० ।। २ ।। २७
"वह भली प्रकार संस्कारित शिर देवों का खजाना है। प्राण, मन और अन्न उसकी रक्षा करते हैं।"
योग वशिष्ठ में ईश्वर को प्राप्त करने के लिए अन्तःगुहा में प्रवेश करने का निर्देश है। इस 'गुहा' तक पहुँचने के लिए पंचकोशों का अनावरण करना पड़ता सकना सम्भव है जहाँ आत्म साक्षात्कार एवं ब्रह्म साक्षात्कार होता है।

गुहाहितं ब्रह्म यत्तत्पंचकोशविवेकतः।
बोद्धं शक्यं ततः कोशपंचकं प्रविविच्यते।।
ब्रह्म पंचकोशों के भीतर 'गुहा' में विराजमान है। उस तक पहुँचने के लिए पंच कोशों का विधान विज्ञान जानना चाहिए।
देहादभ्यन्तरः प्राणः प्राणादभ्यन्तरं मनः।
ततः कर्ता ततो भोक्ता गुहा सेयं परम्परा।।
योग वशिष्ठ

देह के अन्तर्गत प्राण के अन्तर्गत मन- मन के भीतर कर्ता- कर्ता के भीतर भोक्ता है। 'गुहा' तक पहुँचने की यही परम्परा है।
पांच प्राणों से प्रेरित होकर चित्त में पांच वृत्तियाँ उभरती हैं। इन पांचों के विश्रृंखलित होने पर जीवन में अस्तव्यस्तता बनी रहती है। यदि इन्हें सन्तुलित किया जा सके तो पांच देवताओं की भूमिका निभाती है और व्यक्तित्व को हर दृष्टि से सुसम्पन्न कर देती है।
चित्त की वृत्तियाँ अनन्त हैं। किन्तु उन्हें पाँच श्रेणियों में रखा जा सकता है पातंजल योगदर्शन में कहा गया है-
'वृत्तयः पंचतथ्यः क्लिष्टा क्लिष्टाः।'
यो० द० १। ५
ए पांच वृत्तियाँ हैं- (१) प्रमाण (२) विपर्यय (३) विकल्प (४) निद्रा (५) स्मृति।
इन पांचों का सन्तुलन सम्बर्धन पांच कोश साधना से सम्भव होता है। इसी प्रकार पांच क्लेशों के समाधान में भी इस साधना का भारी महत्त्व है।
क्लेश पांच हैं अविद्या। अस्मिता, राग, द्वेष एवं अभिनिवेश। इन पांचों में प्रधान है अविद्या। क्योंकि जब तक अविद्या है, तभी तक शेष चारों भी प्रभावी हैं। आत्मज्ञान द्वारा जब अविद्या नष्ट हो जाती है, तब समस्त क्लेश क्षीण हो जाते हैं।
क्लिष्ट वृत्तियाँ वे हैं, जो क्लेश से युक्त हों। क्लेश का अर्थ हुआ मोहपूर्ण प्रवृत्ति से उत्पन्न कष्ट। आत्म- बोध के अभाव में, जब चंचल मनोभावों के अनुरूप व्यक्ति सत्ता क्रियाशील बनी रहती है, तो उस सक्रियता में वास्तविक आनन्द अनुभूति नहीं हो पाती। अपितु क्षणिक हर्ष- विषाद की उत्तेजनाऐं ही उसे नजाती रहती हैं। यही क्लेश की स्थिति है।

बिन्दु योग की ध्यान साधना में पांच आकाशों और पांच ज्योतियों का वर्णन है। अन्तःक्षेत्र के विशाल ब्रह्माण्ड में पांचों आकाशों का अस्रित्व बताया गया है और उनमें सन्निहित दिव्य शक्तियों का दर्शन कराने वाली पाँच ज्योतियों का उल्लेख है। ध्यान योग में इन पाँचों आकाशों के मध्य पाँच ज्योतियों की धारणा की जाती है। यह भी पंच कोश जागरण की एक प्रक्रिया है। यह ज्योतियाँ अविर्भूत होने से दिव्य दृष्टि जागृतहोने और उसके सहारे अनेक सिद्धियों के उपलब्ध होने की बात की गई है।

आत्म स्थिति की पांच अवस्थाओं को (१) आकाश (२) पराकाश (३) महाकाश (४) सूर्याकाश (५) परमाकाश कहा जाता है। यही पंच- व्योम या पांच आकाश है।

आकाश- स्थिति वह है जब ध्यान के समय बाहर भीतर नीलिमा- सी या अन्धकार सा दिखता है। पराकाश स्थिति में भीतर लपटें जैसी याकि लाल रंग का प्रकाश कभी- कभी क्रोध सा आ जाता है। महाकाश स्थिति वह है जब यह प्रकाश बाहर- भीतर अधिकाधिक तेजपूर्ण दिखने लगे। सुर्याकाश स्थिति में बाहर सूर्य या सविता देवता का प्रकाश अपने अति समीप, चारों ओर परिव्याप्त दिखाई देता है और भीतर भी सविता देवता का वही प्रकाश संख्याप्त दृष्टिगत होता है। अन्तर्वाह्य प्रकाशपूर्ण, ज्योतिर्मय हो गया दिखता है।

परमाकाश स्थिति में सर्वत्र सर्वव्यापी अनिर्वचनीय आनन्दमय ज्योति का निरातिशय विस्तार प्रत्यक्ष अनुभव में आता है। ब्रह्मसत्ता की एकमेव ज्योति सर्वत्र प्रसृत- परिव्याप्त दीखती है। सृष्टि के कण- कण में उसी एक परमज्योति की दर्शन होते हैं।

यह पांच ज्योतियाँ जो पाँचा आकाशों में चमकती है। पंच प्राणों की पांच कोशों के जागरण की भावात्मक अनुभूतियाँ ही हैं। जागरण और प्रकाश पर्यायवाचक है। अस्तु कोश जागरण का प्रकाश अनुभूति के रूप में उल्लखित किया गया है।

इन पांचों कोशों की एक से बढ़कर एक सिद्धियाँ हैं। कहते हैं कि राजा विक्रमादित्य के पास पांच 'वीर' थे। वे इतने समर्थ थे कि आज्ञा पाते ही असम्भव को सम्भव कर दिखाते थे। यह 'वीर' मनुष्य नहीं सूक्ष्म देह धारी देव स्तर के थे। यह 'वीर' मनुष्य नहीं सूक्ष्म देह धारी देव स्तर के थे। अलादीन के चिराग से भी ऐसे ही जिन्न प्रकट होने और उसकी आज्ञानुसार काम करने की भी किम्बन्धती है। छाया पुरूष सिद्ध होने पर वह अपना ही प्रेत चमत्कारी काम करता बताया जाता है। भूत- प्रेतों यक्ष राक्षसों को सिद्ध कर लेने पर वे भी ऐसे काम कर दिखाते हैं। जो आज्ञा देने वाले के लिय स्वयं करना कठीन होता है। कहते हैं कि सुकरात के पास ऐसी ही एक देवात्मा थी जो पग- पग पर उसका मार्ग दर्शन करती और सहायता करती थी।

उपर्युक्त कथनों में अतिशयोक्ति हो सकती है, पर पंच कोशों के जागृत होने पर साधक भी विविध सहायताऐं करना निश्चित है। उनकी सहायता से मनुष्य भौतिक और आत्मिक प्रगति का पथ प्रशस्त कर सकता है। इन आन्तरिक मित्रों से बढ़ कर समस्त संसार में और कोई भी सुयोग्य सहयोगी हो नहीं सकता है। जीवन को सार्थकता के मार्ग पर चलाने वाले के लिए जागृत पांच कोश पांच तथाकथित 'वीरों' और 'जिन्नों' से अधिक सामर्थ्यशाली सिद्ध होते हैं।
गायत्री की उच्चस्तरीय- पंचकोशों साधना द्वारा ही पाँचों कोशों का अनावरण सम्भव है। कोशों के पार करने के उपरान्त ही उस दिव्य प्रभा के दर्शन होते हैं उस दिव्यस्वरूप की प्राप्ति होती है जिससे जीवन धन्य हो जाता है। तैत्तिरीयोपनिषद की अष्टम बल्ली में आनन्द की मीमांसा करते हुए कहा गया है कि यदि कोई मनुष्य पूर्णतः स्वस्थ, सुशिक्षित, गुणवान, सामर्थ्यवान एवं समस्त संसार की धन सम्पत्ति का स्वामी ही तो उसे जो आनन्द हो सकता उसे एक मानुषी का आनन्द कहते हैं उससे करोडो़ं गुना अधिक आनन्द ब्रह्मानन्द का है। अन्य उपनिषदों में भी इसी प्रकार का उल्लेख आया है।

सलिल एको द्रष्टाद्वैतो भवतेष ब्रह्मलोकः
सम्रडीति हैनमनुशासयज्ञिवल्क्य एषास्य परमा
गतिरेषास्य परमा संपदेषो स्य परमो लोक एपो ध्य
परम आनन्द एतर्नेपानंदस्यान्यानि भूतानि
मात्रा मुपजीवन्ति।
(वृहदा० ४ ।। ३ ।। ३३)

अर्थात- समुद्र के समान अक्षह एक अद्वितीय धारा ही ब्रह्मलोक है। प्राणी की वही परमगति, सर्वोस्कृष्ट सम्पत्ति, परलोक और सर्वश्रेष्ठ आनन्द है। इसी परमानन्द के एक अंश को प्राप्त करके अन्य समस्त भूतप्राणी जीवित रहते हैं।

जागृतः अन्तःशक्ति जिसमें गायत्री की उच्चस्तरीय पंचकोशीय साधना और कुण्डलिनी का समन्वय है- कामधेनु कही गई है। कामधेनु से सर्वतोमुखी परितृप्ति दे सके। इस कामधेनु के उपयोग का आदेश जागृत प्राण सविता देव से मिलता है। पुण्यात्मा उसे दुह सकते हैं। जो इस पयपान को कर सकें वे परम तेजस्वी बनते हैं। इस तथ्य का अथर्वववेद में इस प्रकार उल्लेख है-
उपह्वए सुदुधां धेनुमेतां
सहस्तो गोधु गुत दोहदेनाम।
श्रेष्ठं सवं सविता सविषन्नो भिद्धो
धर्मस्तदुषु प्रवोचम।।
- अथर्ववेद

इस सुन्दर दूध देने वाली गाय का मैं आह्वान करता हूँ। पवित्र अच्छे हाथों से युक्त दुहने वाला इसे दुहे। इसके लिए सविता अपनी श्रेष्ठ अनुज्ञा प्रदान करें। मेरा ताप बढ़ रहा है इसलिए बहुत प्रार्थना करता हूँ।


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