उत्तेजना, आवेश एव जोश के साथ करने पर जो कार्य ठीक होते हैं उनके लिए सूर्य- स्वर उत्तम कहा गया है। जैसे क्रूर कार्य स्त्री-भोग, भ्रष्ट कार्य, युद्ध करना, देश का ध्वंश करना, विष खिलाना, मद्यपीना, हत्या करना खेलना, काठ पत्थर, पृथ्वी रत्न को तोड़ना, तंत्र विद्या, जुआ, चोरी, व्यायाम, नदी पार करना आदि यहाँ उपरोक्त कठोर कमी का समर्थन या निषेध नहीं है। शास्त्रकार ने तो वैज्ञानिक की तरह विश्लेषण कर दिया है कि ऐसे कार्य उस वक्त अच्छे होंगे जब सूर्य की उष्णता के प्रभाव से जीवन तत्व उत्तेजित हो रहा हो। शान्तिपूर्ण मस्तिष्क से भली प्रकार ऐसे कार्यों को कोई व्यक्ति कैसे कर सकेगा ? इसका तात्पर्य यह भी नहीं कि सूर्य स्वर में अच्छे कार्य नहीं होते। संघर्ष और युद्ध आदि कार्य देश, समाज अथवा आश्रित की रक्षार्थ भी हो सकते हैं और उनको सब कोई प्रशंसनीय बतलाता है। इसी प्रकार विशेष परिश्रम के कार्यों का सम्पादन भी समाज और परिवार के लिए अनिवार्य होता है। वे भी सूर्य- स्वर में उत्तमतायुक्त होते हैं।
कुछ क्षण के लिए जब दोनों नाड़ी इड़ा, पिंगला रुककर, सुषुम्ना चलती हैं तब प्राय: शरीर संधि अवस्था में होता है। वह संध्याकाल है। दिन के उदय और अस्त को संध्याकाल कहते हैं। इस समय जन्म या मरण काल के समान पारलौकिक भावनायें मनुष्य में जागृत होती हैं, और संसार की ओर से विरक्त, उदासीनता एवं अरुचि होने लगती है। स्वर की संध्या से भी मनुष्य का चित्त सांसारिक कार्यों से कुछ उदासीन हो जाता है और अपने वर्तमान अनुचित कार्यों पर पश्चाताप स्वरूप खिन्नता प्रकट करता हुआ, कुछ आत्म-चिन्तन की ओर झुकता है। वह क्रिया बहुत ही सूक्ष्म होती है, अल्पकाल के लिए आती है, इसलिए हम अच्छी तरह पहचान भी नहीं पाते। यदि इस समय परमार्थ चिन्तन और ईश्वराधना का अभ्यास किया जाय तो निस्सन्देह उसमें बहुत उन्नति हो सकती है, किन्तु सांसारिक कार्यों के लिए यह स्थिति उपयुक्त नहीं है। इसलिए सुषुम्ना स्वर में आरम्भ होने वाले कार्यों का परिणाम अच्छा नहीं होता, वे अक्सर अधूरे या असफल रह जाते हैं। सुषुम्ना की दिशी में मानसिक विकार दब जाते हैं, और गहरे आत्मिक भाव का थोड़ा बहुत उदय होता है, इसलिए इस समय में दिये हुए शाप या वरदान अधिकांश फलीभूत होते हैं क्योंकि इन भावनाओं के साथ आत्म-तत्व का बहुत कुछ सम्मिश्रण होता है। इड़ा शीत ऋतु है तो पिंगला ग्रीष्म ऋतु। जिस प्रकार शीत ऋतु के महीनों में शीत की प्रधानता रहती है, उसी प्रकार चन्द्र नाड़ी शीतल होती है और ग्रीष्म ऋतु के महीनों में जिस प्रकार गर्मी की प्रधानता रहती है, उसी प्रकार सूर्य नाड़ी में उष्णता एवं उत्तेजना का प्राधान्य होता है।