गायत्री की पंचकोशी साधना एवं उपलब्धियां

जीवात्मा के तीन शरीर और उनकी साधना

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मोटे तौर पर स्थूल काया अन्नमयकोश कहलाती है। पर सूक्ष्म विभाजन में मनुष्य के अस्तित्व को तीन हिस्सों में बाँटा है सूक्ष्म- स्थूल-कारण। यह तीन शरीर माने गए हैं। जिस प्रकार चमड़ी के नीचे मांस और मांस के भीतर रक्तवाही पतले तन्तु रहते हैं उसी प्रकार दृश्य सत्ता के रूप में हाड़ मांस बना सबको दिखाई पड़ने वाला चलता- फिरता खाता- पीता, स्थूल शरीर। क्रियाशीलता इसका प्रधान गुण है। इसके नीचे वह सत्ता है जिसे सूक्ष्म शरीर कहते हैं। इसका कार्य समझ और केन्द्र मस्तिष्क है। शरीर विज्ञान में अनाटौमी- फिजयोलौजी विभाजन हैं। मनः शास्त्र को साइकोलौजी और पैरासाइकोलौजी इन दो भागों में बाँटा गया है। मन के भी दो भाग हैं- एक सचेतन जो सोचने विचारने के काम आता है और दूसरा अचेतन जो स्वभाव एवं आदतों का केन्द्र है। रक्त संचार, श्वास- प्रश्वास, आकुंचन- प्राकुंचन, निमेष- उन्मेष जैसी स्वसंचालित रहने वाली क्रियाऐं इन अचेतन मन की प्रेरणा से ही सम्भव होती हैं। तीसरा कारण शरीर भावनाओं का- मान्यताओं एवं आकांक्षाओं का केन्द्र है, इसे अन्तःकरण कहते हैं। इन्हीं में 'स्व' बनता है। जीवात्मा की मूल सत्ता का सीधा संबन्ध इसी 'स्व' से हौ। यह 'स्व' जिस स्तर का होता है उसी के अनुसार विचार तन्त्र और क्रिया तन्त्र काम करने लगते हैं। जीवन की सूत्र संचालक सत्ता यही है। कारण शरीर का स्थान हृदय माना गया है। रक्त फेंकने वाली और धड़कते रहने वाली थैली से यह केन्द्र भिन्न है। इसका स्थान दोनों ओर की पसलियों के मिलने वाले आमाशय के ऊपर वाले स्थान को माना गया है। साधना विज्ञान में हृदय गुफा में अंगुष्ठ प्रमाण प्रकाश ज्योति का ध्यान करने का विधान है। यहाँ जीवात्मा की ज्योति और उसका निवास 'अहम्' मान्यता के भाव केन्द्र में माना गया हैं। शरीर में इसका केन्द्र जिस "हृदय" में उसे अन्तःकरण नाम दिया गया है। 'कारण शरीर' के रूप में इसी की व्याख्या की जाती है।

यह तीनों शरीर एक से एअक बढ़कर क्षमताऐं अपने भीतर दबाए बैठे हैं। इनमें अस्त- व्यस्तता एवं विकृति भर जाने से वे अपनी विलक्षण शक्ति गँवा बैठते हैं और उनके द्वारा जो लाभ मिलना चाहिए था, मिल नहीं पाता। इतना ही नहीं वे रुग्ण होकर उलटे त्रास देने लगते हैं। तब इन विभूतियों भरे भक्ति परिवार द्वारा जो हर्षोल्लास युक्त चमत्कारी उपलब्धियाँ मिल सकती थीं और सुर दुर्लभ कहलाने वाला मनुष्य जीवन सार्थक हो सकता था उसकी सम्भावना नष्ट हो जाती है। उलटे उस दुर्गति में पड़ना होता है, जिसमें आज कल अधिकांश मनुष्य फंसे हुए हैं।

स्थूल शरीर यदि स्वस्थ है तो उसके द्वारा जो लाभ मिलते हैं उनकी थोडी़ बहुत जानकारी हम सभी को है। निरोग शरीर देखने में सुडौल सुन्दर लगता है - उसका आकर्षण करता है। अधिक श्रम करना कठिन कामों को सहज निपटा कर स्वयं लाभान्वित होना और दूसरों पर छाप छोड़ना निरोगता की स्थिति में सम्भव होता है। इन्द्रियों के दुहरे काम हैं उनके माध्यम से क्रिया शक्ति कार्यन्वित होती है और बदले में धन, ज्ञान, अनुभव, कौशल आदि उपलब्ध करती है। ज्ञानेन्द्रियों के अपने उपयोग आनन्द भी हैं। जीभ से स्वाद- कामेन्द्रिय से विषय सुख- नेत्रों से सौन्दर्यानुभूति कान से मधुर श्रवण- त्वचा से कोमल स्पर्श के आनन्द मिलते हैं। आहार की तृप्ति गहरी, निद्रा, स्फूर्ति, एवं सक्रियता कितनी उपयोग और सुखद है, इसे हर कोई जानता है। शरीर की विशेष साधना कर लेने पर लोग चमत्कारी प्रदर्शन करके गौरवान्वित होते हैं। शिल्पी, कलाकार, पहलवान, खिलाडी़, सरकस के जादूगर- दुस्साहस भरे कीर्तिमान स्थापित करने वाले वस्तुतः शरीर साधना के निष्णात ही कहे जा सकते हैं। यों मनोयोग का समन्वय भी उनकी सफलताओं में जुडा़ रहता है। अकेला पंचतत्वों का शरीर तो बिना चेतन मन की सहायता के हिल- डुल तक नहीं सकता, फिर बडी़ उपलब्धियाँ तो उसके लिए सम्भव कैसे हो सकती हैं। यह मनोयोग जो शरीर का संचालन के काम आता है स्थूल शरीर का हि एक भाग माना गया है। इसी से मन को ग्यारहवीं इन्द्रिय कहते हैं।

स्थूल शरीर की सक्षमता के फलस्वरूप ही संसार की अनेकानेक भौतिक, उपलब्धियाँ मिलती हैं। साँसारिक सुखद वस्तुओं को प्राप्त करने और व्यक्तियों को सहयोग देकर बदले में सहयोग पाने का आनन्द देने में शरीरगत सक्रियता ही प्रधान कारण होती है। कर्म की महिमा सर्वत्र दृष्टिगोचर होती है कर्मफल से ही सुख- दुख मिलते हैं। कर्म का स्थूल परिमाण शरीरगत सक्रियता के साथ ही जुड़ता है। दण्ड, पुरस्कार इसी कर्मशीलता के आधार पर मिलते हैं। शरीर को सही स्थिति में रखना और उसे अमुक स्तर की सफलताऐं प्राप्त करने के लिए आवश्यक प्रशिक्षण देकर उपयुक्त बनाना- इसी को शरीर साधाना कहते हैं।

साधना विज्ञान का प्रथम चरण शरीर के आरोग्य का रक्षण और उसकी सक्रियता को व्यवस्थित एवं परिष्कृत करने के लिए है इससे साधक निरोग सक्षम और दीर्घ जीवी बनता है। योग की यह प्रथम उपलब्धि है। स्वास्थ्य रक्षा के मोटे नियम सर्वविदित हैं। आहार विज्ञान के अन्तर्गत यह पढ़ाया जाता है कि भोजन में क्या वस्तुऐं किस अनुपात से होनी चाहिए और उन्हें किस तरह पकाया खाया जाना चाहिए। श्रम व्यायाम, दिनचर्या सफाई जैसी अनेक बातें स्वास्थ्य रक्षा के लिए आवश्यक बताई जाती हैं। बीमारी की हालत में दवादारू की व्यवस्था करने वाला एक पूरा शास्त्र बना हुआ है। यह स्थूल आरोग्य रक्षा विधान हुआ। सूक्ष्म आरोग्य विज्ञान इससे कहीं अधिक भीतर है। उसकी जडे़ बहुत गहरी हैं फलतः उसकी प्रतिक्रिया भी अधिक प्रखरता युक्त होती है।

 आसन, प्राणायाम, नेति धेति, बस्ति, न्योली, बज्रोली, कलाप भांति उडड्यान बंध, जालंधर बंध, मूल बंध, मुद्राऐं, उपवास, तप तितीक्षा, चान्द्रायण, मौन, परिक्रमा आदि कितनी ही शारीरिक साधनाऐं स्वास्थ्य सम्वर्धन के उस गहन अन्तराल तक प्रवेश करती हैं जहाँ तक आहार बिहार के सामान्य नियम पालने की प्रतिक्रिया नहीं पहुँचती। देखा गया है कि स्वास्थ्य रक्षा के सामान्य नियम ठीक तरह पालन करने वालों में से भी कई व्यक्ति दुर्बलता और रूग्णता से घिरे रहते हैं। इसका कारण नाडी़ देख कर नहीं जाना जा सकता। कोशिकाओं में तन्तुओं में, पाचक स्त्रावों में, विशिष्ट ग्रन्थियों में कुछ विलक्षण की उलझनें ऐसी खडी़ हो जाती हैं जो शरीर शक्तियों द्वारा किए गये गम्भीर परिक्षणों की पकड़ में भी नहीं आतीं और अशक्तता एवं रुग्णता की उलझी हुई गुत्थी सुलझने में नहीं आती। इन प्रसंगों में योग विज्ञान के वे प्रयोग आश्चर्यजनक सत्परिणाम उपस्थित करते देखे गये हैं जिनकी विस्तृत व्याख्या विवेचना- प्रयोगशाला के स्तर पर तो नहीं की जा सकती, पर परिणामों की कसौटी पर यह जाना जा सकता है कि यह उपचार कितने अधिक सफल होते हैं।

पहलवानों में देखी जाने वाली बलिष्ठता, कलाकारों में पाई जाने वाली फुर्ती और सैनिकों जैसी चुस्ती ही मात्र आरोग्य की निशानी नहीं है। इसका सबसे महत्त्वपूर्ण अंश है जीवनी शक्ति की प्रचुरता जिसे जीवट भी कह सकते हैं। रक्त अशुद्ध होने या कोई भीतरी अवयव क्षीण हो जाने पर भी इस जीवट के आधार पर कोई रूग्ण दीखने वाला मनुष्य स्वस्थ लोगों की तुलना में अधिक सक्रिय रह सकता है और अधिक महत्त्वपूर्ण काम निपटा सकता है। इसके सहारे मौत से जूझा जा सकता है और अस्वस्थता के भार दबे होने पर भी उत्तरायण सूर्य आने तक की प्रतिक्षा में जीवित रहना और अद्य शंकरचार्य के भयंकर फोडे़ से संत्रस्त रहने पर भी आश्चर्यजनक सक्रियता का प्रमाण देना जैसे असंख्यों प्रमाण ऐसे मिलते हैं जिसमें गान्धी जैसे दुर्बल और राजेन्द्र बाबू जैसे रूग्ण मनुष्यों ने पूर्ण स्वस्थ मनुष्यों से भी आगे बढ़कर ऐसे काम करके दिखाए जिन पर आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है।

योग साधना का प्रतिफल आरोग्य के मूल संस्थानों तक पहुँचता और उस जीवट - जिजीविषा को जगाता है जिसे पाकर हर स्तर का शरीर ऐसे काम कर सकता है जो सामान्य लोगों को चमत्कार जैसे प्रतीत हों।

सूक्ष्म शरीर अर्थात चिन्तन चेतना की दिव्यज्योति। इसका मोटा लाभ मस्तिष्क की तीक्ष्णता, स्मरण शक्ति, दूर- दृष्टि, गहराई में जा पहुँचने वाला पर्यवेक्षण- सूझ एवं आदि के रूप में देखा जाता है। मन्दबुद्धि और तीक्ष्ण बुद्धि होने का फैसला इस आधार पर किया जाता है कि उसकी सूझ- बूझ समझदारी किस स्तर की है। शारीरिक बलिष्ठता और सक्रियता के आधार पर मिलने वाले सुखों और लाभों की तरह मानसिक सक्षमता के सुखद प्रतिफल भी कम नहीं हैं। स्कूली पढा़ई ऊँची श्रेणी में उत्तीर्ण करने वाले लोगों को अफसरी के ऊँचे पद मिलते हैं। वकील, डाक्टर, साहित्यकार, वैज्ञानिक, आदि बुद्धिजीवी वर्ग के लोग अकल की कमाई ही खाते हैं। व्यापारी, शिल्पी, कलाकर मात्र शारीरिक मेहनत के आधार पर उन्नतिशील नहीं बनते उनकी चिन्तन प्रक्रिया भी उन कार्यों में तन्मयता पूर्वक संलग्न रहती है। शरीर की सक्रियता और मन की तन्मयता का संयोग जहाँ जितनी अधिक मात्रा में हो रहा होगा वहाँ उसी अनुपात में एक से एक बढी़- चढी़ सफलतायें भी सामने प्रस्तुत होती चली जा रही होंगी।

बुद्धि वैभव का मूल्य समझा जाता है और ज्ञान प्राप्ति के लिए स्कूल, कॉलेजों के माध्यम से बहुत श्रम समय एवं धन खर्च करके उसके लिए अथक प्रयत्न किया जाता है। स्वाध्याय सम्पर्क, परिभ्रमण, विचार विनियम, अभ्यास आदि के अन्य उपाय भी ऐसे हैं जिनके सहारे ज्ञानवृद्धि का पथ प्रशस्त होता है। शरीर कौशल की तरह बुद्धि वैभव की भी अपनी उपलब्धियाँ है। अभिनव शोध कार्यों में अन्वेषण पर्यवेक्षणों में  आवरणों के परत भेदकर वस्तुस्थिति समझने में सूक्ष्म बुद्धि ही काम करती है। यह उस अक्लमंदी से ऊपर की चीज है जो दैनिक कार्य- व्यवसायों में कैइ तरह की सफलताऐं प्रस्तुत करती है। यह किस प्रकार पाई या बढा़ई जा सकती है इसका कोई बहिरंग आधार अभी बन नहीं पाया हैं। साधारण अक्लमंदी की दृष्टि से एक से एक चतुर और उस्ताद लोग हर जगह भरे पडे़ हैं। पर गहराई में गोता मार कर मोती बीन लाने का सौभाग्य किन्हीं बिरलों को ही मिला होता है। यह कौशल जिनके भी हाथ लग जाता है वे सामान्य परिस्थितियों में जन्मने और सामान्य लोगों के बीच पलने पर भी विचित्र तरीकों से आगे बढ़ते हैं और आडी़- टेडी़ पगडंडियाँ पार करते हुए कहीं से कहीं जा पहुँचते हैं। उनके दूसरे साथी आश्चर्य करते रह जाते हैं कि बहुत समय तक एक सी स्थिति में रहने पर भी एक इतना आगे निकल गया और दूसरा जहाँ का तहाँ रह गया। इस अन्तर का एक ही कारण है- प्रस्तुत परिस्थितियों से श्रेष्ठतम लाभ उठालेने की सन्तुलित सूझ- बूझ का बाहुल्य। एक को सब कुछ सामान्य ही दीखता है, पर दूसरा उसी स्थिति या सामग्री में से बहुत कुछ असामान्य खोज निकालता है। खोजता ही नहीं अवसर का उपयोग भी करता है। प्रगति के चरण सदा इसी आधार पर बढ़ते हैं। सामान्य मनुष्य इसी आधार पर असामान्य बनते है और सफलता प्राप्त सम्मानित ऐतिहासिक व्यक्तियों की पंक्ति में जा बैठते हैं। कालिदास, वोपदेव, वरदराज जैसे आरम्भ में अति मूर्ख समझे जाने वाले लोगों के कालान्तर में व्युत्पन्न मति महा मनीषियों की श्रेणी में गिने जाने लगने के कारण उदाहरण यही बताते हैं कि हर किसी में प्रसुप्त पडी़ चिन्तन चेतना की दिव्य ज्योति को यदि जाज्वल्यमान किया जा सके तो कोई भी व्यक्ति वर्तमान की तुलना में अपने भविष्य को निश्चित रूप से उज्ज्वल बना सकता है।




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