गायत्री की पंचकोशी साधना एवं उपलब्धियां

मनोमय कोश की साधना से सर्वार्थ सिद्धि

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मनोमय कोश मस्तिष्क के मन और बुद्धि संस्थानों से सम्बन्धित हैं। उसकी साधना हमारी बुद्धि, कल्पना, स्मरण शक्ति आदि क्षेत्रों को सुविकसित करती है। कालिदास, बरदराज जैसे मन्द मति प्रयत्न पुरुषार्थ से विद्वान-बुद्धिमान बने थे। यह अनगढ़ को सुगढ़ बनाने की प्रक्रिया है। इसे प्रशिक्षण द्वारा विकसित करने का उपाय सवार्वदित है। अध्यात्म प्रयत्नों द्वारा इस प्रयोजन को किस प्रकार पूरा किया जाय, उसी के प्रयोग से मनोमय कोश की साधना सहायता करती है। इस साधना का दूसरा क्षेत्र है। साहसिकता का- संकल्प-शक्ति का अभिवर्धन। चिन्तन में उत्कृष्टता और क्रिया-कलाप में आदर्शवादिता का समावेश करने वाली वे सद्विचारणाएं भी इसी क्षेत्र में विकसित होती हैं जो चरित्रनिष्ठा विकसित करने के लिए उत्तरदायी हैं।

शिक्षा के आधार पर ज्ञान सम्पदा तीक्ष्णता एवं क्रिया कुशलता बढ़ाने के प्रयत्न होते हैं। इसके साथ संकल्प शक्ति का महत्व भी समझा जाना चाहिए वे उपाय भी अपनाये जाने चाहिए जिनके आधार पर व्यक्ति संकल्पवान बनता है और प्रगति के पथ पर अग्रसर होने में सफल होता है। मनोमय कोश को जाग्रत करने के उपाय जो भी हों, पर संकल्प शक्ति का उदय उसी क्षेत्र से होता है।

प्रगति पथ पर अग्रसर होने के लिए-अभावों और असुविधाओं से लड़ने के लिए- प्रतिकूलताओं को अनुकूलता में बदलने के लिए न केवल साधन सामग्री की अभिवृद्धि आवश्यक है वरन् यह और भी अधिक अभीष्ट है कि मानवी संकल्प-शक्ति को बढ़ाया जाय। मात्र साधनों की बहुलता से तो मनुष्य विलासी और आलसी भी बनता चला जायेगा। इससे उसको अकर्मण्यता, अशक्तता और अदक्षता ही बढ़ेगी। प्रगति के इतिहास में साधनों एवं परिस्थितियों का उतना योगदान नहीं है जितना कि विचारणा और आकांक्षा का। संकल्प इन्हीं के समन्वय को कहते हैं। संकल्प की प्रखरता ही प्रगति का पथ-प्रशस्त करती हैं। जहाँ इसकी कमी होगी वहाँ प्रगति का रथचक्र उतना ही अवरुद्ध एवं दलदल में फँसा दिखाई पड़ेगा।

जीवन का मूल स्वरूप उसकी चिन्तन स्फुरणा के साथ जुड़ा हुआ है। विचारणा और आकांक्षा के समन्वय से जो संकल्प उठता है, उसी में प्रगति की समस्त सम्भावनाएँ सन्निहित हैं। विकासवादी प्रगति पर दृष्टिपात करने पर हमें इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है। वे एक जैसी परिस्थितियों में रहने पर भी एक की प्रगति दूसरे की यथास्थिति और तीसरे की अवगति का अन्तर देखकर इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि यह संकल्प-शक्ति की न्यूनाधिकता का ही प्रभाव है। साधनों के अभाव में भी लोग आगे बढ़ते हैं। सहयोग के बिना भी प्रगति करते हैं। इसके पीछे उनकी प्रखर संकल्प-शक्ति ही काम करती है। आगे बढ़ने वालों के पीछे साधन भी बनता है और सहयोग भी जुटता है। मोटर दौड़ती है तो उसके पीछे धूलिकण और पत्ते भी उड़ते चले आते हैं। संकल्प ही मानव जीवन की सर्वोपरि शक्ति है। उसके सहारे सामान्य स्थिति से आगे बढ़कर असामान्य स्तर तक पहुँचा जा सकता है। अन्धकार में प्रकाश उत्पन्न करने की निराशा में आशाजनक सम्भावनाएँ प्रस्तुत करने की क्षमता उसी में हैं। ऊँचे उठने और आगे बढ़ने के लिए साधन जुटाने और सहयोग बनाने की आवश्यकता सभी मानते हैं, पर यह भुला दिया जाना चाहिए कि यह उपलब्धियाँ प्रचण्ड संकल्प-शक्ति उभारे बिना मिल नहीं सकतीं। किसी प्रकार संयोगवश मिल भी जायँ तो स्थिर नहीं रह सकतीं। प्रगति का मूल-मन्त्र संकल्प को मानकर चला जाय और सर्वप्रथम उसी के उपार्जन, अभिवर्धन का प्रयत्न किया जाय तो यह निश्चित रूप से व्यावहारिक एवं बुद्धिमत्तापूर्ण प्रयास माना जायेगा।

मन संस्थान ज्ञान, अनुभव एवं कौशल का ही नहीं प्रतिभा का भी क्षेत्र है। उत्कृष्टता के प्रति आस्था के बीज भी भूमि में जमते हैं। संकल्प शक्ति का उद्गम केन्द्र यही है। मनोमय कोश की साधना द्वारा यदि इन विभूतियों को जाग्रत एवं उपलब्ध किया जा सके तो उस दिशा में किया गया प्रयत्न सामान्य कार्यो की दौड़-धूप से कम नहीं अधिक ही लाभदायक और बुद्धिमत्तापूर्ण सिद्ध होगा।

मनःसंस्थान को सुविकसित करने के लिए स्वाध्याय, सत्संग एवं मनन-चिन्तन की आवश्यकता। पड़ती है। इसके अतिरिक्त एक और कारगर उपाय है- मनोमय कोश की योग साधना। काम-काजी मस्तिष्क समेत मन-क्षेत्रीय की स्तरीय परतें मनोमय कोश की परिधि में आती हैं। जिस प्रकार वन्य पशुओं को साधकर पालतू बनाया जाता है। उनसे अनेक प्रकार के लाभ लिये जाते हैं, उसी प्रकार मन के महादैत्य को यदि साधना द्वारा सधा लिया जाय तो ऐसे लाभ मिल सकते हैं जिन्हें देवोपम उपलब्धियाँ प्राप्त करना, कहने में अत्युक्ति नहीं मानी जा सकती। मानसिक साधना ऐसे ही चमत्कार उत्पन्न करती है।

व्यक्तित्व और मन:संस्थान की स्थिति को परस्पर अति घनिष्ठ माना गया है। मन: स्तर ही व्यक्तित्व है। व्यक्तित्व को समुन्नत बनानें के लिए मन:संस्थान की स्थिति ऊँची उठाने के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं। यह कार्य मात्र जानकारियाँ बढ़ाने या समझाने-बुझाने भर से पूरा नहीं हो जाता। इसके लिए ऐसे मनोवैज्ञानिक प्रयोग करने पड़ते हैं जो लोहे को गरम करके उसे घन की चोटों से उपयुक्त औजार बनाने जैसा कार्य कर सकें। इस प्रकार के प्रयोगों को मनोमय कोश की साधना कहा जा सकता है।

मस्तिष्क की ऊपरी परत जो व्यावहारिक जीवन में काम आती है, समग्र मन:संस्थान का मात्र पाँचवाँ योग है। मानसिक शास्त्रियों ने उसकी संरचना का स्वरूप तो जाना है, पर उसके भीतर काम करने वाली विलक्षण क्षमताओं को देखकर आश्चर्यचकित रह गये हैं। इन रहस्यमयी गतिविधियों की मात्र ७ प्रतिशत जानकारी अभी तक मिल सकी है। शेष का आभास मिलता है और सोचा जाता है कि यदि इस अद्भुत संयंत्र की क्षमताओं का स्वरूप और उपयोग जाना जा सकता तो फिर मनुष्य की सामर्थ्य का वारापार न रहता।

सामान्य मान्यता यह है कि मन और बुद्धि का सम्मिश्रण ही मस्तिष्क है। ऐसा इसीलिए समझा जाता है कि दैनिक जीवन के क्रिया-कलापों में उन्हीं का उपयोग होता है। जो इस क्षेत्र की गहराई में घुसे हैं उनने देखा है कि ऊपरी परत तो क्रिया कुशलता और सूझ-बूझ के प्रतिफल प्रस्तुत कर पाती है। व्यक्तित्व का निर्माण अचेतन मन की गहरी परतें ही सम्पन्न करती हैं। मनोविकार बुद्धि क्षेत्र में नही, वरन् स्वभाव के अन्तर्गत आदतें बनकर घुस बैठते हैं। मनुष्य उनकी बुराइयाँ समझता है और छोड़ना भी चाहता है किन्तु संचित अभ्यासों का दबाव इतना अधिक होता है कि अपने ही निर्णय के विरुद्ध रास्ते पर चलने के लिए बाध्य होना पड़ता है। इन आदतों के पीछे अचेतन मन ही काम करता है।

शरीर की अनवरत गतिविधियों में जाग्रत मस्तिष्क का नगण्य जितना अधिकार होता है। संचालन अचेतन की अभ्यस्त प्रवृत्तियाँ ही करती हैं। माँस-पेशियों का आकुंचन-प्रकुंचन पलकों का निमेष-उन्मेष फेंफडो़ं का श्वास-प्रश्वास, आहार का ग्रहण और मल का विसर्जन, निद्रा, जागृति असंख्य शारीरिक क्रिया-प्रक्रियाएँ अचेतन मन के नियन्त्रण में ही चलती हैं। हारमोन ग्रन्थियों से लेकर-प्राणों के अवधारण तक पर अचेतन का ही प्रभाव है। मनोविकारों के कारण शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य चौपट हो जाना और सद्भावनाओं के आधार पर व्यक्तित्व के सभी पक्षों का समुन्नत होते चलना इसी संस्थान की संरचना के कारण सम्भव होता रहता है। उत्थान और पतन के बीज इसी क्षेत्र में उगते हैं। व्यक्तित्व की सुविस्तृत जड़ें इसी भूमि में घुसी होती हैं। अचेतन को चित्त कहते हैं। वस्तुत: मस्तिष्क का प्रेरक केन्द्र यही है। यह गई-गुजरी स्थिति में पड़ा रहे तो सचेतन की बुद्धिमत्ता का उपयोग धूर्तता, दुष्टता जैसे निकुष्ट प्रयोजनों के अतिरिक्त किसी रचनात्मक कार्य में सम्भव न हो सकेगा और बुद्धिमान कहलाने वाला मनुष्य भी उज्जवल भविष्य का सृजन न कर सकेगा।

मन और बुद्धि को विकसित करने के लिए स्कूली साहित्य सम्पर्क जन्य अनुभव सम्पादन करने जैसे अनेकों विधि-व्यवस्थाएँ प्रचलित हैं। किन्तु चित्त की चिकित्सा करने में उन्हीं उपचारों को काम में लाया जाता है जिन्हें मनोमय कोश की साधना कहते हैं। यों परामनोविज्ञान एवं मनोविज्ञान के अन्तर्गत भी अचेतन की क्षमता को समझने और उसमें अभीष्ट परिवर्तन करने के उपाय खोजे तथा सोचे जा रहे हैं किन्तु तत्वदर्शियो की अनुभूत पद्धति मन:साधना के अतिरिक्त और कोई कारगर मार्ग अभी तक करतलगत हुआ नहीं है।

मानसशास्त्री सर ऐलेक्जेण्डर केनन का कथन है- मनुष्य इस विश्व की सबसे विलक्षण सत्ता है। उसका सार तत्व मस्तिष्क है। मस्तिष्क का नवनीत अचेतन संस्थान है। दुर्भाग्य से इसी केन्द्र की न्यूनतम जानकारी हमें उपलब्ध है। यह नहीं जाना जा सका कि इस संस्थान को प्रभावित, परिवर्तित और परिष्कृत करने के लिए क्या किया जा सकता है ? शरीर चिकित्सा में काम आने वाले उपचारों की पहुँच वहाँ नहीं है। लगता है स्वसंवेदन स्वसम्मोहन और स्वनिर्देशन जैसे उन्हीं उपायों को काम में लाना पड़ेगा जिन्हें पुरातन योगीजन अपने ढंग से काम में लाते रहे हैं। जो हो संसार की सुख-शान्ति और मानवी प्रगति के मर्म केन्द्र तक हमें पहुँचना ही होगा। किसी उपाय से अचेतन को नियन्त्रित करने की विधि-व्यवस्था हस्तगत करनी ही होगी। इसके बिना समुन्नत व्यक्ति और समृद्ध विश्व की सम्भावना बन नहीं सकेगी।

इस तथ्य को दूरदर्शी आत्म-विज्ञानियों ने चिरकाल पूर्व ही जान लिया था। उनने मानवी व्यक्तित्व का आधार केन्द्र मन को ही कहा है। जीवन की भली-बुरी स्थिति का उतरदामी उसी को माना है और इस बात पर बहुत बल दिया है कि समृद्धि के अन्यान्य आधारों पर जितना ध्यान दिया जाता है उससे कम नही, वरन् अधिक ही मानसिक परिष्कार पर दिया जाय। इस क्षेत्र की प्रगति के बिना भौतिक एवं आत्मिक प्रगति की आशा पूरी हो नहीं सकेगी। इन तत्वदर्शियो का अभिगत इस सन्दर्भ में इस प्रकार है-
चित्तमेव हि संसारो रागदिक्लेशदू षतम्।
तदेव वर्तिनिमुक्त भवान्त इति कथ्यते।।
                                         -महोपनिषद् ४। ६६
यह चित्त ही संसार है। चित्त रागादि दोषों से भर जाने पर क्लेश होते हैं। इन दूषणों से छुटकारे को ही मुक्ति कहते हैं।

पापासक्तं हि बन्धाय पुण्यासक्तं हि मुक्तये।
मन एव मनुष्याणां कारणं  बन्धमोक्षयो:।।
                                         -स्कन्द पुराण
पाप में आसक्त मन बन्धक का और पुण्य में संलग्न मन मोक्ष का कारण है। वस्तुत: मन ही मनुष्य को बन्धन में डालता और मुक्त करता है।

मन एव मनुष्याणां कारणं बध मोक्षयो बन्धाय
विषाय सक्त मुक्त्यै निर्विषाय स्मृतम्। -
                                             योगवशिष्ठ
यह मन ही मनुष्यों को बन्धन में बाँधता है। इसके द्वारा मुक्ति भी मिलती है। विषयासक्त मन बन्धन का कारण है और उसकी निर्मलता से मुक्ति मिलती है।
 
दृढ़भावनया चेतो यद्यथा भावयत्यलम्।
तत्तफलं तदाकारं तावत्मालं प्रपश्यति।।
                                     योगवशिष्ठ ४। २१।५६ -५७
हे राजन्! यह मन दृढ़ भावना वाला होकर जैसी कल्पना करता है उसको उसी आकार में उतने समय तक और उसी प्रकार का फल देने वाला अनुभव होता है।

गंगाद्वारश्च केदार सन्ति हत्मां तथैब च।
एवानि सर्वतीर्थानि कृत्वा पापै: प्रमुच्यते।।
                                          -व्यास स्मृति
जिसने अपने मन को जीत लिया उसके लिये गंगा द्वार, केदारनाथ आदि सभी तीर्थो का लाभ अपने पास ही मिल जाता है।

मनो निर्मलसत्वात्म यभ्दावयतियादृशम्।
तत्तथाशु भवत्येव यथाऽवर्तो भवेत्यम:।।
                                       -योग वशिष्ठ ४। १७। ४
मन यदि शुद्ध है तो जैसे जल भँवर का रूप धारण कर लेता है, वह जिस वस्तु की जैसी भावना करता है वह अविलम्ब वैसी ही हो जाती है और दूसरे की मन की बात अपने मन में उतर आती है।

मन क्षेत्र पर चढ़े संचित कुसंस्कारों को हटाना और उनके स्थान पर सत्प्रवृत्तियों की स्थापना कर सकना, मानव जीवन का सबसे प्रबल पुरुषार्थ है। इसके समान श्रेयस्कर सफलता और कोई हो नहीं सकती। इस महान् उपलब्धि को प्राप्त करने में मनोमय कोश की साधना से बढ़कर और कोई उपाय हो नहीं सकता। इसकी चर्चा शास्त्रकारों ने इस प्रकार की है-
इत्येवमादिभिर्यत्नै: संशुद्धं योगिनोमन:।
शंक्त स्यादति सूक्ष्माणां महता मपि भावने।।
                                            -सर्व दर्शन सिद्धान्त
यत्नपूर्वक मन को शुद्ध करने से योगी सूक्ष्म और गम्भीर विषयों को: समझने योग्य हो जाता है।

लयविक्षेप रहित मन: कृत्वा सुनिश्चतम्।
एतज्ज्ञानं च मोक्ष च शेषास्तु ग्रन्थविस्तरा:।।
एक एव मनोदेवो ज्ञेय: सर्वार्थसिद्धिद।
अन्यत्र विफलाक्लेशा: सर्वेषां तञ्जयं विना।।
विद्यमान मनो यावत्तावदुःखक्षय: कुत:।
मन को विक्षेपों से मुक्त करके सदुद्देश्य में लय करके स्थिर बना लेना- यही वह उपाय है जिससे सर्वार्थो में सिद्धि मिलती है। मन देवता ही परम देव है। उसकी साधना किये बिना क्लेशों और दुःखों की निवृत्ति नहीं हो सकती। मन को जीत लेना ही सबसे बड़ी विजय है।

मन: सर्वमिदं राम तस्मिन्नन्तश्चिकित्सिते।
चिकित्सतो वै सकलो जगज्जालमयो भवेत्।।
                                           -योग वशिष्ठ ४। ४। ६
हे राम, मन ही सब कुछ है। मन की चिकित्सा लेने पर संसार के सब रोगों की चिकित्सा हो जाती है।

पूर्ण मनसि सम्पूर्ण जगत्सर्व सुधा द्रवै:।
 उपानद्गूढ़पादस्य नानुचर्यास्तुतैव भू:।।
                                    -योग वाशिष्ठ ५।१ २१। १४
मन यदि पूर्ण हो गया तो सारा संसार अमृत से परिपूर्ण दीखेगा। पैर में जूता पहन लेने से सारी पृथ्वी चमड़े से ढकी हुई प्रतीत होत है।

सर्वेषामुत्तम स्थांना सर्वा सांचिर संपदाम्।
 स्वमनो निग्रहो भूमिर्भूमिः सस्यश्रियामिव।।
                                           -योग वाशिष्ठ ५। ४३। ३५
सब उत्तम परिस्थितियाँ, सब्र श्रेष्ठ चिर संपदाएँ मन के निग्रह से उसी प्रकार प्राप्त होती हैं जैसे अच्छी भूमि से सब अन्न प्राप्त होते हैं।

मन: प्रमादाद्वर्धन्ते दुःखानि गिरि कूटवत्।
तद्वशादेव नंश्यन्ति सूर्यस्याग्रे हिमयथा।।
                                               -योग वाशिष्ठ ३।९९। ४३
मन के प्रमाद से ही दुःख पर्वत की चोटी के समान बढ़ते हैं और मन की विवेकशीलता से वे ऐसे नष्ट हो जाते हैं जैसे सूर्य की धूप से बर्फ नष्ट होती है।

आनन्दो वर्धते देहे शुद्धे चेतसि राघव।
                                 -योग वाशिष्ठ ६। ८१। २१
हे राम, चित्त शुद्ध होने से देह का आरोग्य, आनैद भी बढ़ता है।

उद्वरेदात्मनात्मान नात्मानमवसादयेत्।
 आत्मैवह्मात्मनो रिपुरात्मन:।।
बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मनोजिताः।
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत्।।
                                                       -गीता
स्वयं ही अपना उद्धार करना चाहिए। अपने आपको गिरावे नहीं। मनुष्य स्वयं अपना शत्रु है। जिसने अपने आपको सँभाल लिया वह स्वयं ही अपना मित्र है और जिसने अपने आपको पतित किया वह स्वयं ही अपना शत्रु है।

यतोनिर्विषयस्थास्य मनसो रिष्यते।
अतो निर्विषय नित्यं मन: कार्य मुमुक्षुणा।।
मन का निर्विष्य होना मुक्ति है। इसलिए बन्धन से मुक्ति की इच्छा करने वालों को अपना मन निविष्य करना चाहिए।

तावदेव निरोद्धव्यं यावद्धि गतं क्षयम्।
सतज् ज्ञानं च ध्यानं च शैषौऽन्यो ग्रन्थविस्तर।।
                                                        -विष्णु पुराण ६।७। २८
मन का तब तक निरोध करें जब तक कि हृदय की वासनाएँ नष्ट न हो जाय। यही ज्ञान है, यही ध्यान है और तो सब शास्त्र विस्तार है।

यह मनोनिग्रह, अन्त:सन्तुलन, चित्त परिशोधन समग्र विकास का आधारभूत उपाय है। मनोमय कोश की साधना का सत्परिणाम मनोजय है। इसे प्राप्त कर लेने वाला आत्म विजय को विश्व विजय के लाभ से भी बढ़कर आनन्ददायक अनुभव करता है।

गायत्री की उच्चस्तरीय योग साधना द्वारा मनोमय कोश का वेधन अनेक विशेषताएँ उत्पन्न करता है। मैस्मरेजम, हिम्मोटिज्म, मेंटल थरेपी आकाल्ट साइन्स आदि विद्याओं पर योरोपीय योगी बड़ा अभिमान करते हैं, यह मनोमय कोश के छोटे-छोटे खेल हैं। ध्यानयोग की पाँच श्रेणियाँ स्थिति, संस्थिति विगति, प्रगति, संस्थिति इष्ट देव का साक्षात्कार कराने में समर्थ होती हैं। त्राटक से पत्थर को तोड़ देने वाली वेधक दृष्टि पैदा होती है। शब्द रूप, रस, गन्ध, स्पर्श पंच तत्वों का इन पाँच तन्मात्राओं पर अधिकार होने से जो कुछ सूक्ष्म जगत में अदृश्य है वह सब दृश्यमान हो जाता है।


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