गायत्री की पंचकोशी साधना एवं उपलब्धियां

हमारा अद्भुत विलक्षण अन्नमय कोश

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मानवी शरीर यों उपेक्षित परिभाषा में एक 'चलता फिरता' पेड़ है। भौतिक दृष्टि से उसकी और कुछ व्याख्या हो भी नहीं सकती। वनस्पतियों में पाए जाने वाले रसायन ही न्यूनाधिक मात्रा में उसमें भी पाए जाते हैं। जन्म, वृद्धि और मरण के चक्र में घास पात की तरह मनुष्य भी भ्रमण करता है। आहार और साँस लेने की क्रिया ही पौधों की तरह उसे भी जीवित रखती है।

पिछले दिनों वैज्ञानिक इसी स्तर के प्रतिपादित करते रहे हैं। इससे किस सिद्धान्त की पुष्टि हो सकी किसकी न हो सकी यह पीछे की बात है, पर मानवी सत्ता का अवमूल्यन निश्चित रूप से हुआ है। उसकी आत्मिक विशेषता को अस्वीकार कर देने पर मनुष्य वनस्पति वर्ग का रह जाता है। अधिक से अधिक उसे कृमि-कीटकों की तरह कुछ अधिक विकसित स्तर का काय पिण्ड कह सकते हैं। इस स्थिति में उसके विशेष आदर्श, कर्त्तव्य और उत्तरदायित्व मानने की भी आवश्यकता नहीं रह जाती। नैतिक मर्यादाओं में भी उसे क्यों बाँधा जाय ? फिर उसके स्वेच्छाचार पर भी क्यों अंकुश लगे ? तब सेवा, उदारता, आत्मीयता, सहकारिता के आदर्शो का विस्तार करने की बात भी क्यों सोची जाय ? त्याग, बलिदान की तप और संयम की आवश्यकता भी क्यों मानी जाय ? नास्तिक दर्शन में भस्मी भूत देह का पुनरागमन न होने की मान्यता अपनाने के उपरान्त 'यावज्जीवेत् सुखंजीवेत्' की नीति मान्य ठहराई गई है। उसे ऋणं कृत्वा वृतं पिवेत् की ही नहीं, शोषण, उत्पीड़न और रक्तपान की भी छूट है। विचारणीय है कि यदि मनुष्य चलता-फिरता पौधा ही ठहरा दिया गया तो फिर उस पर कोई नैतिक उत्तरदायित्व न लादे जा सकेंगे और आदर्शों के नाम पर आत्म-संयम बरतने एवं परमार्थ कृत्यों में उत्साह रखने का औचित्य सिद्ध न किया जा सकेगा। इस दिशा में बढ़ते हुए हम संचित मानवी सभ्यता संस्कृति और आदर्शवादिता को तिलांजलि दे देंगे।

पौधे और मनुष्य के बीच पाए जाने वाले अन्तर पर दृष्टिपात करने से हमें दोनों के बीच हर क्षेत्र में मौलिक अन्तर होता है। दृष्टिगोचर मानवी काया के रोम-रोम में संव्याप्त है। आत्मिक गरिमा पर विचार करना पीछे के लिए छोड़कर मात्र काय संरचना और उसकी क्षमता पर विचार करें तो इस क्षेत्र में भी सब कुछ अद्भुत दीखता है। वनस्पति तो क्या पिछड़े स्तर के प्राणि शरीरों में भी वे विशेषताएँ नहीं मिलती जो मनुष्य के छोटे और बड़े अवयवों में सन्निहित हैं। कलाकार ने अपनी सारी कला को इसके निर्माण में झोंका है।

शरीर रचना से लेकर मनःसंस्थान और अन्तःकरण की भाव संवेदनाओं तक सर्वत्र असाधारण ही असाधारण दृष्टिगोचर होता है। यह सोद्देश्य होना चाहिए। अन्यथा एक ही घटक पर कलाकार का इतना श्रम और कौशल नियोजित होने की क्या आवश्यकता थी ? यह मात्र संयोग नहीं हैं और न इसे रचनाकार का कौतुक-कौतूहल कहा जाना चाहिए। मनुष्य को विशेष प्रयोजन के लिए बनाया गया। इस 'विशेष' को सम्पन्न करने के लिए उसका प्रत्येक उपकरण इस योग्य बनाया गया है कि उसके कण-कण में विशेषता देखी जा सके। इन साधन उपकरणों के सहारे ही वह आत्म कल्याण एवं विश्व-कल्याण जैसे महान् प्रयोजन सम्पन्न कर सकने में समर्थ हो सकता है। सृष्टा ने इसी साज-सच्चा से अलंकृत करके उसे इस संसार में अभीष्ट कर्तव्यों का निर्वाह करने के लिए भेजा है।

हृदय की धड़कन में सिकुड़न की- सिस्टोल और फैलने का डायेस्टोल क्रिया होती रहती है। इसी क्रिया के कारण रक्त संचार होता है और जीवन के समस्त क्रिया कलाप चलते हैं। यह रक्त प्रवाह नदी नाले की तरह नहीं चलता, वरन् पम्पिग स्टेशन जैसी विशेषता उसमें रहती है। पम्प में झटका मारने की क्रिया होती है उससे गति मिलती है। नीचे की दिशा में तो प्रवाह अपने आप भी होता है, पर ऊपर की ओर ले जाना हो तो उसके पीछे शक्ति का दबाव होना आवश्यक है। आकुंचन-प्रकुंचन से झटका लगता है और उसके दबाव से रक्त-चक्र नीचे और ऊपर आने की दोनों आवश्यकताएँ पूरी कर लेता है। हृदय की धड़कन रक्त के परिभ्रमण में काम आने वाली गति की व्यवस्था करती है।

कोई यन्त्र लगातार काम करने से गरम हो जाता है। श्रम के साथ विश्राम भी आवश्यक है। श्रम में शक्ति का व्यय होता है, विश्राम उसको फिर से जुटा देता है। हृदय के आकुंचन-प्रकुंचन से जहाँ झटके द्वारा शक्ति उत्पादन की आवश्यकता पूरी होती है वहाँ इन दोनों क्रियाओं के बीच मध्यान्तर की अवधि में विश्राम का लाभ भी उसे मिलता रहता है। एक धड़कन एक मिनट के ७२ वें भाग में सेकण्ड के पाँच बटे छः भाग में सम्पन्न होती है। इस अल्प अवधि में ही असंख्य विद्युत तरंगें उस संस्थान से प्रवाहित होती हैं तरंगों के विद्युत् आवेशों को इलेक्ट्रोकार्डियोग्राम के माध्यम से रिकार्ड करके हृदय की स्वास्थ्य परीक्षा की जाती है। नवजात शिशु की प्रगति आवश्यकता के अनुरूप उन दिनों हृदय एक मिनट में १४० बार धड़कता है किन्तु वह जरूरत कम होते जाने से यह चाल भी घटती है। ३ वर्ष के बच्चे का एक मिनट में १०० बार और युवा मनुष्य का मात्र ७२ बार धड़कता है। समर्थता की न्यूनाधिकता के अनुरूप धड़कन घटी-बढी़ रहती है। चूहे का हृदय ५०० बार, चिड़ियों का २५० बार, मुर्गी का २०० बार, खरगोश का ६५ बार, घोड़े का ५० बार और हाथी का ४० बार एक मिनट में धड़कता है। मनुष्य के शिशु और प्रौढ़ के बीच समर्थता वृद्धि के अनुपात हृदय की धड़कन भी घटती जाती है।

पुरुष के हृदय का औसत वजन ३३० ग्राम और स्त्री का २६० ग्राम यह सम्पूर्ण अवयव 'पेरीकार्डियम' नामक झिल्ली की थैली में बन्द रहता है। हृदय एक होते हुए भी उसके मध्य भाग में खड़ी सेप्टम नामक मांस पेशी उसे दो भागों में बाँट देती है। यह दो भाग भी दो दो हिस्सों में बँटकर चार हो जाते हैं। इनमें से ऊपरी भाग को ऑरिकिल और नीचे के भाग को वेंट्रिकिल कहते हैं। हृदय से फुफ्फुसीय धमनी में जाने की प्रक्रिया को मध्यवर्ती वाल्व नियन्त्रित करते हैं।

हृदय के समान ही फेंफेडे़ भी आजीवन कभी विश्राम नहीं करते। २० से ३० घन इंच हवा को वे बार बार भरते और शरीर को ताजगी प्रदान करते रहते हैं। बच्चों की श्वास गति २५ से ४० तक होती है। क्योंकि यह उनका विकास काल होता है।

शरीर में उत्पन्न दूषित वायु कार्बन-डाइ-ऑक्साइड गैस को बाहर निकालना और शुद्ध वायु ऑक्सीजन को शरीर पोषण के लिए उपलब्ध कराना यह दुहरा   उत्तरदायित्व फेंफडों को निवाहना पड़ता है। फेफडों में आँख से भी न दीख पड़ने वाली बहुत पतली वायु नलिकाऐं बहती हैं। इन ४० नलिकाओं के मिलने से एक वायुकोष्ठ एयरसैक बनता है। यही सघन होकर फेंफडे़ का रूप लेते हैं। इनकी संख्या प्राय: १६०० होती है। इन्हें श्वास विभाग के सफाई कर्मचारी भी कहा जा सकता है। इन वायुकोष्ठों की लचक अद्भुत है। इन्हें पूरी तरह फूलने का अवसर मिले तो वे समूचे शरीर से ५५ गुने विस्तार में फैल सकते हैं।

साधारणतया उपलब्ध ऑक्सीजन का ४.५ प्रतिशत अंश ही शरीर ग्रहण कर पाता है। यदि श्वास लम्बी और गहरी लेने का अभ्यास डाल लिया जाय तो तीन गुनी अर्थात् १३.५ तक ऑक्सीजन ग्रहण की जा सकती है। इस उपार्जन का लाभ भी शरीर पोषण के लिए तीन गुना अधिक प्राप्त हो सकता है। इसी प्रकार सफाई का कार्य तीन गुना अधिक बढ़ सकता है। जिस अनुपात से गहरी साँस द्वारा ऑक्सीजन अधिक ग्रहण की जा सकती है उसी कार्बन डाइ आक्साइड को भी ४.५ प्रतिशत के स्थान पर १३.५ के अनुपात से बाहर निकाला जा सकता है। कहना न होगा कि शक्ति प्राप्त करने और विषाक्तता निकालने के अनुपात बढ़ जाएं तो उससे आरोग्य वृद्धि में अत्याधिक लाभ मिलेगा। गहरी और लम्बी: साँस लेने की सामान्य प्रणाली, डीप ब्रीथिंग, भौतिक विज्ञान की प्राणायाम प्रक्रिया कहलाती है। इसमें आध्यात्मिक आधारों को भी मिला दिया जाय तो फेंफडे़ स्वास्थ्य सम्वर्धन में अद्भुत भूमिका निभाने लगते हैं।

हृदय के समान ही फेंफडे़ भी आजीवन बिना विश्राम लिए काम करते रहते हैं। २० से ३० घन इंच हवा वे बार बार भरते और शरीर को ताजगी प्रदान करते रहते हैं। प्रति मिनट वे १७ बार के हिसाब से धोंकनी धोंकते हैं बच्चों की श्वास गति तो २५ से ४० तक होती है।

हृदय और फेंफडे़ ही नहीं अन्य छोटे दीखने वाले अवयव भी अपना काम अद्भुत रीति से सम्पन्न करते हैं। गुर्दों की गाँठे देखने में मुट्ठी भर आकार की भूरे कत्थई रंग की सेम के बीज जैसे आकृति की लगभग १५० ग्राम भारी है। प्रत्येक गुर्दा प्राय: ४ इंच लम्बा, २.५ इंच चौड़ा २ इंच मोटा होता है। जिस प्रकार फेंफडे़ साँस को साफ करते हैं, उसी प्रकार जल अंश की सफाई इन गुर्दों के जिम्मे है। गुर्दे रक्त में घुले रहने वाले नमक, पोटैशियम, कैल्सियम मैग्नीशियम आदि पर कड़ी नजर रखते हैं। इनकी मात्रा जरा भी बढ़ जाय तो शरीर पर घातक प्रभाव डालती हैं। शरीर में जल की भी एक सीमित मात्रा होनी चाहिए। रक्त में क्षारीय एवं अम्लीय अंश न बढ़ने पाए इसका ध्यान भी गुर्दों को ही रखना पड़ता है। छानते समय इन सब बातों की सावधानी वे पूरी तरह रखते हैं। गुर्दे एक प्रकार की छलनी हैं। उसमें १० लाख से अधिक नलिकाऐं होती हैं। इन सबको लम्बी कतार में रखा जाय तो वे ११० किलोमीटर लम्बी डोरी बन जाएगी। एक घण्टे में गुर्दे इतना रक्त छानते हैं जिसका वजन शरीर के भार से दूना होता है। विटामिन, अमीनो अम्ल, हॉर्मोन, शक्कर जैसे उपयोगी तत्व रक्त को वापिस कर दिए जाते हैं। नमक ही सबसे जादा अनावश्यक मात्रा में होता है। यदि यह रुकना शुरू कर दे तो सारे शरीर पर सूजन चढ़ने लगेगी। गुर्दे ही हैं जो इस अनावश्यक को निरन्तर बाहर फेंकने में लगे रहते हैं।

दोनों गुर्दों में परस्पर अति सघन सहयोग है। एक खराब हो जाय तो दूसरा उसका बोझ अपने ऊपर उठा लेता है। गुर्दे प्रतिदिन प्राय: दो लिटर मूत्र निकालते हैं। मनुष्य अनावश्यक और हानिकारक पदार्थ खाने से बाज नहीं आता। इसका प्रायश्चित्त गुर्दों को करना पड़ता है। नमक, फॉस्फेट, सल्फेट, पोटैशियम,कैल्सियम, मैग्नेशियम, लोहा, क्रिएटाइनिन, यूरिया, अमोनिया, यूरिक ऐसिड, हिप्यूरिक ऐसिड, नाइट्रोजन आदि पदार्थों की प्रचलित आहार पद्धति में भरमार है। गुर्दे इस कचरे को मूत्र मार्ग से बाहर करने और स्वास्थ्य सन्तुलन बनाए रखने का उत्तरदायित्व निबाहते हैं। यदि वे अपने कार्य में तनिक भी ढील करदें तो मनुष्य ढोल की तरह फूल जाएगा और देखते देखते प्राण गँवा देगा।

आमाशय का मोटा काम भोजन हजम करना माना जाता है, पर यह क्रिया कितनी जटिल और विलक्षण है। इस पर दृष्टिपात करने से आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है, इसे छोटी थैली की एक अद्भुत रासायनशाला की संज्ञा दी जाती है, जिसमें सम्मिश्रणों के आधार पर कुछ से कुछ बना दिया जाता रहता है। कहाँ अन्न और कहाँ रक्त ? एक स्थिति को दूसरी में बदलने के लिए उसके बीच इतने असाधारण परिवर्तन होते हैं इतने अधिक रसायनिक सम्मिश्रण मिलते हैं कि इस स्तर के प्रयोगों की संसार भर में कहीं भी उपमा नहीं ढूँढ़ी जा सकती। आमाशय में पाए जाने वाले लवणाम्ल, पेप्सिन, रेन्नेट आदि भोजन को आटे की तरह गूँधते हैं। लवणाम्ल खाद्य पदार्थों में रहने वाले रोग कीटाणुओं का नाश करते हैं। पेप्सिन के साथ मिलकर वे प्रोटीनों से 'पेप्टोन' बनाते हैं। पेन्क्रियाज में पाए जाने वाले इन्सुलीन आदि रसायन शक्कर को सन्तुलित करते हैं और आँतों के काम को सरल बनाते हैं। इतने अधिक प्रकार के इतनी अद्भुत प्रकृति के इतनी विलक्षण प्रतिक्रियाएँ उत्पन्न करने वाले रासायनिक प्रयोग मनुष्यकृत प्रयोग प्रक्रिया द्वारा सम्भव हो सकते हैं, इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। आमाशय की रासायनिक प्रयोगशाला क्या क्या कौतुक रचती है और क्या से क्या बना देती है ? इसे किसी बाजीगर की विलक्षण जादूगरी से कम नहीं कहा जा सकता।

यों तो कर्त्ता की कारीगरी का परिचय रोम-रोम और कण-कण में दृष्टिगोचर होता है, पर आँख कान जैसे अवयवों पर हुई कारीगरी तो अपनी विलक्षण संरचना से बुद्धि को चकित ही कर देती है। आँख जैसा कैमरा मनुष्य द्वारा कभी बन सकेगा। इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। कैमरों में नाभ्यान्तर-फोकल-लेन्थ-को बदला जा सके ऐसे कैमरे कहीं नहीं बने। फोटो लेने के लिए अच्छे कैमरों के लेंस भी पहले एक निश्चित नाभ्यान्तर पर फिट करने होते हैं। फिल्मों तक में फोटो दृश्य और कैमरे की दूरी का सन्तुलन मिलाकर फोकस सही करना पड़ता है। इस व्यवस्था को बनाए बिना अभीष्ट फोटो खिंच ही नहीं सकेगा। किन्तु नेत्र संरचना में ऐसा कुछ नहीं करना पड़ता। वे निकट से निकट और दूर से दूर को भी आँखों के बिना आगे पीछे हटाए मजे से देखते रह सकते हैं। प्रिज्म या थ्री-डायमेन्शनल कैमरे अद्भुत माने जाते हैं। पर वे भी रंगों का वर्गीकरण उस तरह नहीं कर सकते जैसा कि आँखें करती हैं। सुरक्षा सफाई का प्रबन्ध जैसा आँखों में है वैसा किसी कैमरे में नहीं होता। कैमरे पहले उलटा फोटो लेते हैं, फिर दुबारा प्रिंट करके उन्हें सीधा करना पड़ता है किन्तु आँखें सीधा एक ही बार में सही फोटो उतार लेती हैं।

कान जैसा 'साउण्ड फिल्टर' यन्त्र कभी मनुष्य द्वारा बन सकेगा, ऐसी आशा नहीं की जा सकती। रेडियो और वायरलैस की आवाजें एक निश्चित 'फ्रीक्वेंसी' पर ही सुनी जा सकती है। कानों के सामने इस प्रकार की कोई कठिनाई नहीं है। वे किसी भी तरफ की कोई भी ऊँची हलकी आवाज सुन सकते हैं। कई आवाजें एक साथ सुनने या कोलाहल के बीच अपने ही व्यक्ति की बात सुन लेने की क्षमता हमारे ही कानों में होती है। ध्वनि साफ करने के लिए 'रेक्टीफायर' का प्रयोग किया जाता है। कुछ यन्त्रों में 'वैकुऊम सिस्टम' एवं 'गस सिस्टम' से ध्वनि साफ की जाती है। उनमें लगे धन प्लेट 'ऐनोड' और ऋण प्लेट 'कैथोड' के साथ 'ग्रिड' जोड़ना पड़ता है तब कहीं एक सीमा तक आवाज साफ होती है। किन्तु कान की तीन हड्डियाँ स्टयिम, मेलियस और अंकस में इतनी स्वच्छ प्रणाली विद्यमान है कि वे आवाज को उसके असली रूप में बिना किसी कठिनाई के सुन सके। न मात्र सुनने की है उस सन्देश के अनुरूप अपना चिन्तन और कर्म निर्धारित करने के लिए प्रेरणा देनी वाली विद्युत् प्रणाली कानों में विद्यमान है। साँप की फुसकार सुनते ही यह प्रणाली खतरे से सावधान करती है और भाग चलने की प्रेरणा देने के लिए रोंगटे खड़े कर देती है। ऐसी बहुद्देशीय संरचना किन्हीं ध्वनि ग्राहक यन्त्रों में सम्भव नहीं हो सकती।

शरीर पर चमड़ी का क्षेत्रफल प्राय: २५० वर्ग फुट और वजन ६ पौण्ड होता है। एक वर्ग इन्च त्वचा में ७२ फुट लम्बाई वाला तन्त्रिका जाल और १२ फुट से अधिक लम्बाई वाली रक्त नलिकाऐं बिछी बिखरी होती हैं। त्वचा के रोमकूपों से प्राय: एक पौण्ड पसीना बाहर निकलता है। शरीर को 'एयरकण्डीशन' बनाए रखने के लिए त्वचा फैलने और सिकुड़ने की क्रिया द्वारा कूलर और हीटर दोनों का प्रयोजन पूरा करती है। त्वचा के भीतर बिखरे ज्ञान तन्तुओं को एक लाइन में रख दिया जाय तो वे ४५ मील लम्बे होंगे। इन तन्तुओं द्वारा प्राप्त अनुभूतियाँ मस्तिष्क तक पहुँचती हैं और टेलीफोन तारों जैसा उद्देश्य पूरा होता है। त्वचा से 'कोरियम' नामक एक विशेष प्रकार का तेल निकलता रहता है यह सुरक्षा और सौन्दर्य वृद्धि के दोनों ही कार्य करता है। उसकी रंजक कोशिकाऐं 'नेलानिक' रसायन उत्पन्न करती हैं। यही चमड़ी को गोरे, काले, पीले आदि रगों से रंगता रहता है।

शरीर पूरा जादू घर है। उसकी कोशिकाऐं तन्तुजाल किस प्रकार जीवन-मरण की गुत्थियाँ स्वयं सुलझाते हैं और समूची काया को समर्थ बनाए रहने में योगदान करते हैं यह देखते ही बनता है। जीवन सामान्य है, पर उसे सुनियोजित एवं सुसंचालित रखने में एक छोटा ब्रह्माण्ड ही जुटा रहता है। पिण्ड मानवी काया का नाम है, पर उसके भीतर चल रही विधि व्यवस्था को ब्रह्माण्डीय किया प्रक्रिया का छोटा रूप ही कहा जा सकता है। -

अन्नमय कोश जिसे स्थूल शरीर भी कहते हैं। परमेश्वर की विचित्र कारीगरी से भरा पूरा है। उसके किसी भी अवयव पर दृष्टिपात किया जाय उसमें एक से एक बढ़ी चढ़ी अपने अपने ढंग की विलक्षणताऐं प्रतीत होंगी। सामान्यतया इसे खाने सोने में ही खपा दिया जाता है। पर यदि इस सृष्टि के सर्वश्रेष्ठ अनुदान के सदुपयोग की बात सोची जाय, उसकी प्रसुप्त क्षमताओं की जागृत किया जाय तो इतना कुछ कर गुजरना सम्भव हो सकता है जिससे मनुष्य जन्म को सच्चे अर्थों में सार्थक हुआ कहा जा सके।




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