गायत्री की पंचकोशी साधना एवं उपलब्धियां

पाँच प्राण-पाँच उपप्राणों की अद्भुत शक्ति धाराएँ

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यों प्राणतत्व एक है, पर प्राणी के शरीर में उसकी क्रियाशीलता के आधार पर कई भागों में विभक्त किया गया है। शरीर के प्रमुख अवयव मांस पेशियों से बने हैं, पर संगठन की भिन्नता के कारण उनके आकार-प्रकार में भिन्नता पाई जाती है। इसी आधार पर उनका नामकरण एवं विवेचन भी पृथक्-पृथक् होता है। मानवी-काया में प्राण-शक्ति को भी विभिन्न उत्तरदायित्व निवाहने पड़ते हैं। उन्हीं के आधार पर उनके नामकरण भी अलग हैं और गुण धर्म की भिन्नता भी बताई जाती है। इस पृथकता के मूल में एकता विद्यमान है। प्राण अनेक नहीं हैं। उसके विभिन्न प्रयोजनों में व्यवहार पद्धति ही पृथक है। बिजली एक है, पर उसके व्यवहार विभिन्न यंत्रों में भिन्न प्रकार के होते हैं। हीटर कूलर, पंखा, प्रकाश पिसाई आदि करते समय उसकी शक्ति एवं प्रकृति भिन्न लगती है। उपयोग और प्रयोजन को देखते हुए भिन्नता अनुभव की जा सकती है तो भी जानने वाले जानते हैं कि यह सब एक ही विद्युत शक्ति के बहुमुखी क्रिया-कलाप हैं। प्राण-शक्ति के सम्बन्ध में भी यही बात कही जा सकती है। शास्त्रकारों ने उसे कई भागों में विभाजित किया है, कई नाम दिये हैं और कई तरह से व्याख्या की है। उसका औचित्य होते हुए भी इस भ्रम में पड़ने की आवश्यकता नहीं कि प्राणतत्व कितने ही प्रकार का है और उन प्रकारों में भिन्नता एवं विसंगति है। इस प्राण विस्तार को भी “एकोऽहं वहुस्याम” का एक स्फुरण कहा जाता है।

मानव शरीर में प्राण को दस भागों में विभक्त माना गया है। इनमें ५ प्राण और ५ उपप्राण हैं। प्राणमय कोश इन्हीं १० के सम्मिश्रण से बनता है। ५ मुख्य प्राण हैं- (१) अपान (२) समान (३) प्राण (४) उदान (५) व्यान। उपप्राणों को (१) देवदत्त (२) वृकल (३ )कूर्म (४) नाग (५) धनंजय नाम दिया गया है।

शरीर में कुछ ऐसे भ्रमर हैं, जिनके जागने से प्राण-तत्व की क्रिया एवं स्थिति उन भ्रमरों के अनुकूल ही हो जाती है। बिजली की धारा बल्व के स्पर्श से प्रकाश करती है, पंखे के साथ मिलकर हवा करती है, मोटर में आकर ताकत पैदा करती है, रेडियो में उसका कार्य खनि को पकड़ना होता है। प्राण तत्व एक प्रकार की शक्ति के समान है। बहते हुए पानी में जैसे भ्रमरों के गड्ढे पड़ते हैं वैसे ही सूक्ष्म शरीर में कुछ ऐसे भ्रमर हैं जिनके साथ प्राण का सम्मिश्रण होने से एक विशेष प्रक्रिया की जाती है।

पाँच महाप्राणों को ‘ओजस’ और पाँच लपुप्राणों को रेतस’ कहते हैं। दोनों प्राण एक दूसरे के सहायक एवं पूरक हैं। दोनों नेत्र, दोनों नथुने, दोनों कान, दोनों हाथ दोनों पैर एक-दूसरे के सहायक एवं साथी हैं। इसी प्रकार महाप्राण और लघुप्राण भी आपस में सम्बद्ध तथा सहायक हैं। इनको एक ही प्राण के दो भाग कहा जा सकता है। एक होते हुए भी कछ भेदों के कारण मस्तिष्क को अगला (बड़ा मस्तिष्क) और पिछला (छोटा मस्तिष्क) दो भागों में बाँटा गया है, वैसे ही प्राण-तत्व भी दो भागों में विभाजित हुआ है।

प्राण वायु का निवास स्थान हृदय है। ‘नाग’ भी उसके समीप रहता है। ‘अपान’ गुदा और मूत्रेन्द्रियों के बीच में मूलाधार के निकट रहता है, उसी के पास ‘कूर्म’ लघुप्राण का निवास है। ‘समान और कृकल’ नाभि में रहते हैं। ‘उदान’ और ‘देवदत्त’ का स्थान कण्ठ है। ‘धनञ्जय’ में आकाश-तत्व का अधिक मिश्रण रहने से यह सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त रहता है, पर उसका प्रधान केन्द्र मस्तिष्क का मध्य भाग है।

साधारणतः ऐसा माना जाता है कि प्राण के द्वारा शब्द एवं मस्तिष्क का पोषण होता है। अपान में मल-मूत्र, स्वेद आदि का विसर्जन होता है। समान से पाचन, परिपाक और उष्णता का संचार होता है। उदान विविध वस्तुएँ बाहर से शरीर के भीतर ग्रहण करता है। व्यान का काम रक्त-संचार है। लघु प्राणों में नाक से डकार आती है। कूर्म से पलक मारने और बन्द होने की क्रिया होती है। कृकल से छींकें और देवदत्त से जंभाई आती है। धनञ्जय जीवित अवस्था में शरीर का पोषण करता है और मरने पर देह सड़ा-गला कर शीघ्र नष्ट करने का प्रबन्ध करता है।

यह मान्यताएँ सर्वांगपूर्ण नहीं हैं। जिस स्थान पर जिस प्राण का निवास बताया गया है, वहाँ एक प्रकार के वायु भ्रमर होते हैं, जिनमें प्राणों का विशेष संचार रहता है। गर्मी के दिनों में जलवायु अधिक गरम हो जाती है तो एक प्रकार के वायु ‘भ्रमर’ उत्पन्न होते हैं, जो घूमते और नाचते हुए अन्धड़ की तरह आगे चलते हैं। उसी प्रकार के कुछ भ्रमर शरीर में पाये जाते हैं।

सूक्ष्म निरीक्षण करने पर पता चलता है कि इन स्थानों पर शरीरगत वायु और प्राण की उष्णता के कारण एक प्रकार के भ्रमर चक्र उत्पन्न हो जाते हैं। भ्रमर सदा ऊपर चौड़े होते हैं और नीचे की तरफ ढलवाँ होते जाते हैं तथा अन्त में बहुत ही छोटे नोंक मात्र रह जाते हैं। ऊपर के सबसे चौड़े भाग को ‘स्तर’ और नीचे से सबसे नुकीले भाग को ‘बिन्दु’ कहते हैं। इसी प्रकार प्राण वायु के भ्रमर का ऊर्ध्व भाग महाप्राण और अधो भाग लघुप्राण कहा जाता है। एक स्तर है तो दूसरा बिन्दु। वस्तुतः दोनों एक ही महातत्व के दो विभाग मात्र हैं। वस्तुतः प्राण का कार्य जीवन चलाना है। हृदय की धड़कन जीवन की प्रतीक है। घड़ी में फनर की ऐंठ ही सब कल-पुर्जों को चलाती है। फनर की चाबी नष्ट हो जाय पुर्जो का चलना बन्द हो जायेगा। प्राण के द्वारा हृदय की धड़कन होती है। फिर उससे रक्त सञ्चार होता है, साँस आ जाती है। इसके बाद शरीर की अन्य क्रियायें होती हैं।

प्राण में शिथिलता आने पर जीवन शक्ति घट जाती है और उसके अत्यन्त न्यून हो जाने पर हृदय की धड़कन बन्द हो जाती है। समाधि लगाने वाले महात्माओं का प्राण पर अधिकार होता है। ये दीर्घ काल तक निस्तब्ध रहने पर जब चाहते हैं तब शरीर में प्राण का स्पन्दन बढ़ाकर हृदय का धड़कना आरम्भ कर देते हैं और साधारण जीवन जीने लगते हैं। जब तक उनका प्राण खिंचकर ब्रह्माण्ड में संचित किया रहता है तब तक हृदय की धड़कन बन्द रहती है और शरीर मृततुल्य हो जाता है इसलिए उनको दीर्घकालीन समाधि सुख मिलता रहता है।

प्राण पर अधिकार प्राप्त किये बिना लम्बे समय तक स्थिर समाधि नहीं लग सकती। प्राण अधिकार करके दीर्घकाल तक जीवन स्थिर रखना मृत्यु को इच्छानुवर्ती बना लेना सम्भव है। एक मनुष्य दूसरे को प्राण-दान दे सकता जैसे एक मनुष्य का रक्त दूसरे के शरीर में प्रवेश करके उसे जीवन एवं मनोबल दे सकता है।

‘अपान’ का कार्य स्थूल मलों का ठीक प्रकार विसर्जन करना है। देह के भीतर सदा पैदा होने वाले मल, मूत्र, पसीना, कफ, कीचड़, विष, विजातीय पदार्थ आदि त्याज्य पदार्थों को अपान अनेक छिद्रों द्वारा शरीर से बाहर निकालता रहता है। यदि अपान अपनी यह क्रिया न करे तो शरीर में मल निकलने की शक्ति घट जायेगी और अपच, जुकाम आदि अनेक रोग पैदा हो जायेंगे।

इसके अतिरिक्त अपान की सूक्ष्म क्रिया जननेन्द्रिय में होती है। काम-वासना का आधार इसी पर निर्भर है। मन को मथ डालने वाली, चित्त को अधीर, व्यग्र एवं आतुर कर डालने वाली वासना, अपान के उत्तेजित हो जाने से होती है। यह यदि शिथिल हो जाय तो तरुण पुरुष भी नपुंसक हो जायेगा। सन्तान का सौन्दर्य, स्वास्थ्य, बुद्धि, पराक्रम एवं स्वभाव अपान से बहुत कुछ सम्बन्धित हैं। अपान का सहवर्ती ‘कूर्म’ लघुप्राण यदि सुषुप्त अवस्था में होगा तो शारीरिक दृष्टि से पूर्ण स्वस्थ होने पर भी गर्भ की स्थापना कदापि न हो सकेगी।

जिन स्त्री-पुरुषों में अपान साम्य होता है, उन्हें काम-सेवन में असाधारण आनन्द आता है। रूप, सौन्दर्य पर नहीं कामतुष्टि अपान की समानता पर निर्भर रहती है। पुरुष में अपान और स्त्री में कूर्म प्रधान होता है जो अनेक शारीरिक और मानसिक अभावों की पूर्ति करता है। अपान पर अधिकार की पद्धति न जानते हुए भी जिन्हें हठपूर्वक ब्रह्मचर्य रखना पड़ता है वे प्रायः किन्हीं रोगों में ग्रसित रहते हैं।

आज विधुर और विधवाओं में से अधिकांश का स्वास्थ्य खराब देखा जाता है और जन गणना की रिपोर्ट से पता चलता है कि ग्रहस्थों की अपेक्षा विधुरों की मृत्यु संख्या का अनुपात कहीं अधिक है, जिनमें अपान की समानता है वे अकारण ही आपस में घनिष्ठ मित्र बन जाते हैं। उन्हें एक-दूसरे के साथ रहने में बड़ी शान्ति मिलती है। ऐसे मित्रों को ही ‘प्राणसखा’ कहते हैं। उन्हें आपसी वियोग मर्मान्तक दुःख देता है।

समान प्राण उदर में नाभि के नीचे रहता है। पाचन इसका मुख्य कार्य है। गर्मी, उष्णता एवं पित्त को समान का प्रतीक कहते हैं। शरीर में चञ्चलता, स्फूर्ति, उत्साह, छरहरापन एवं चमक इसी के कारण होती है। त्वचा की चिकनाई, कोमलता, चमक में कृकल-प्राण का अस्तित्व परिलक्षित होता है। खूब भूख लगना, अधिक आहार करना, जल्दी पचा लेना, सर्दी के प्रभाव से व्यथित न होना समान की विशेषता है। जिनमें यह प्राण कम होगा वे सर्दी बर्दाश्त नहीं कर सकेगे, जाड़ो में उनकी देह लुञ्ज-पुञ्ज सी हो जायेगी। कानों को, उँगलियों को, पैरों को बड़ी ठण्ड लगेगी, ठण्डे जल में जाड़े के दिनों में स्नान करना उन्हें बड़ा कष्टकर होगा। अधिक कपड़े लादे रहने पर भी ठण्ड न छूटेगी।

ऐसे लोगों का जरा से भोजन में पेट भर जाता है। गरम पदार्थ खाने की धूप या अग्नि के निकट बैठने की इच्छा रहती है। ऐसे मनुष्य अपनी दुर्बलता के कारण गर्मी को बर्दाश्त नहीं कर पाते, पर गर्मी का मौसम उनकी प्रकृति के अनुकूल पड़ता है। समान की न्यूनता के कारण शरीर में उष्णता कम रहती है, उसकी पूर्ति गरम मौसम से हो जाती है। ऐसे लोगों की नाड़ी पतली चलती है।

समान-प्राण का स्वास्थ्य से बड़ा सम्बन्ध है। इन्द्रियों की रसानुभूति समान के आधार पर घटती- बढ़ती रहती है। स्वादिष्ट पदार्थ, मनोरम दृष्टि, मधुर ध्वनि, सुखद स्पर्श, सुरभित गंध को भली प्रकार ग्रहण करने और इससे आनन्दित होने की क्षमता ‘समान’ प्राण वालों में होती है। जिसका समान घट जायेगा वह सब प्रकार की सुखद परिस्थिति होते हुए भी खिन्न, असन्तुष्ट एवं झुंझलाया रहेगा, देह का कोई न कोई अंग बीमारी का कष्ट पाता रहेगा।

ऐसे लोगों को सन्निपात, मोतीझला आदि तीव्र रोग तो नहीं होते, पर जुकाम, खाँसी, पेट का भारीपन सिरदर्द, दाँतों का हिलना, आँखों की कमजोरी, देह का टूटना, थकान जैसे मन्द रोग घेरे रहेंगे। एक से पीछा छूटने से पहले ही दूसरा नया उत्पन्न हो जायेगा।

‘समान’ पित्त का प्रतीक है। ‘कृकल’ कफ का प्रतिनिधि है। दोनों के मिलने से ‘बाद’ बनता है। इन तीनों के उलझने-सुलझने और घटने-बढ़ने से बीमारी और तन्दुरुस्ती का चक्र घूमता है। कहा जाता है कि बीमारी की जड़ पेट में है। इसका अर्थ यही है कि नाभि चक्र के निवासी ‘समान’ और ‘कृकल’ ही हमारे स्वास्थ्य के अधिपति हैं। इन पर अधिकार होने से चिरस्थायी स्वास्थ्य का स्वामित्व प्राप्त होता है।

‘उदान’ प्राण का निवास कण्ठ है। यह श्री और समृद्धि का स्थान है। लक्ष्मी जी का केन्द्र कण्ठ- कूप की ‘स्फुटा’ ग्रन्थि को माना गया है। लक्ष्मी जी की पूजा एवं ‘स्फुटा’ के उत्तेजन से निर्मित कण्ठ में स्वर्णाभूषण धारण किये जाते हैं। ‘स्फुटों’ पर धातुओं और रत्नों का जो प्रभाव पड़ता है, उसे जानने वाले गले में रत्न, कवच, आभूषण एवं मालायें बनाकर कण्ठ में धारण करते हैं और उनके सूक्ष्म परिणामों से लाभान्वित होते हैं।

उदान के परिपूर्ण होने से मनुष्य को वे योग्यतायें, सामर्थ्य, शक्तियाँ, विशेषतायें एवं चतुरतायें प्राप्त होती हैं, जिनके कारण सांसारिक आवश्यकता की वस्तुएँ प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होती रहती हैं। तृष्णाओं का तो अन्त नहीं, उन्हें तो कुबेर भी पूरा नहीं कर सकता, पर जीवनोपयोगी कोई वस्तु ऐसी नहीं जिसे उदान प्राण की सामर्थ्य से प्राप्त न किया जा सकता हो। जिनकी ‘स्फुटा’ ग्रन्थि जागृत है वे कभी भी अभावग्रस्त नहीं रह सकते, उनकी हर उचित आवश्यकता समय पर पूरी हो जाती है।

‘देवदत्त’ सूक्ष्म प्राण आध्यात्मिकता और सम्प्रदायों का स्वामी है। अष्ट सिद्धियाँ, नव निद्धियाँ देवदत्त से सम्बन्धित हैं। शाप-वरदान, दूर-दर्शन, दूर-श्रवण, अणिमा, महिमा, लघिमा आदि चमत्कारों का केन्द्र यही है।

अमीर, सम्पन्न, बड़े आदमी, व्यापारी, धनी, लक्ष्मीपति बनना, वैसे घर में जन्म माना, वैसी आकस्मिक सहायताये प्राप्त होना, वैसे अवसर, सुझाव या मित्र मिल जाना उदान-प्राण के शक्तिशाली होने पर निर्भर हैं। जब यह प्राण निर्बल हो जाता है तो लक्ष्मी विदा होते देर नहीं लगती। ऐसे गलत कदम उठ जाते हैं, ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न हो जाती हैं जिनके कारण घाटे पर घाटा होने लगता है, चोट पर चोट लगती है और मनुष्य कुछ दिनों में निर्धन एवं दीन-हीन बन जाता है।

जब तक स्फुटा जागृत रहती है, तब तक बड़ी-बड़ी हानि होने पर भी स्थायी रूप से दरिद्रता नहीं आ सकती। कारण यह है कि स्फुटा में उदान प्राण के सम्पर्क से एक ऐसी चैतन्य स्कुरणा उत्पन्न होती है, जो अदृश्य लोक में छिपे हुए भविष्य का परिचय पाती रहती है। उसे अज्ञात रूप से अनायास ही ऐसा आभास होता रहता है कि यह करना ठीक है और यह करना अनिष्टकारक होगा। एक अज्ञात शक्ति उसका पथ प्रदर्शन करती सी मालूम होती है। वह खतरों से बचाती है, आगे बढ़ने का मार्ग बताती है और कठिन परिस्थितियों में सहारा देती है, जिससे कि डूबता हुआ बेड़ा पार हो जाता है। उदान द्वारा चैतन्य स्फुटा को शरीर-वासिनी लक्ष्मी कहा जाता है। जिसका कण्ठ-कूप का ‘देवदत्त’ प्रबुद्ध होता है,’ ऐसा पुरुष महा चमत्कारी, परम सिद्ध पुरुष बन जाता है। वह चाहे तो प्राण बल से अद्भुत उथल-पुथल उत्पन्न कर सकता है।

‘व्यान’ का स्थान मस्तिष्क का मध्य भाग है। यह चार अन्य प्राणों का नियंत्रण करता है। दोनों कानों के बीच एक रेखा खींची जाय और दूसरी रेखा भूमध्य भाग से लेकर सिर के पीछे तक खींची जाय तो दोनों जहाँ मिलेंगी, वह स्थान त्रिकुटी कहा जायेगा। यही ‘ध्यान’ का स्थान माना जाता है। इसका सहायक ‘धनञ्जय’ है। व्यान को कृष्ण, धनञ्जय को अर्जुन कहते हैं। इसी त्रिकुटी में, युद्धस्थली के मध्य भाग में कृष्णार्जुन सम्वाद रूपी गीता का आविर्भाव होता है। मध्य मस्तक में शतदल कमल में अवस्थिति जिस अमृतकलश का योगशास्त्रों में वर्णन है, उसे ध्यान और धनञ्जय का प्रसाद ही समझना चाहिये।

‘व्यान’ के प्रबुद्ध होने से ऋतम्भरा प्रज्ञा मिलती है। ऋतम्भरा प्रज्ञा उस उच्च विचारधारा को कहते हैं, जो जीव को आत्मकल्याण की ओर ले जाती है। सत्कर्म शुभ-संकल्प, सद्वृत्ति आदि दैवी गुण कर्म स्वभावों का प्रकाश व्यान द्वारा ही होता है। आत्म-साक्षात्कार ईश्वर-दर्शन, ब्रह्म-प्राप्ति, दिव्य-दृष्टि एवं समाधि का केन्द्र व्यान है। व्यान को गरुड़ कहा गया है। भगवान का वाहन गरुड़ है। जिसका व्यान जागृत हो गया उसके मानस में परमात्मा का प्रत्यक्ष विकास परिलक्षित होने लगता है।

मस्तिष्क में अनेक शक्तियों हैं, जिनके कारण मनुष्य अपनी सर्वोपरि प्रधानता सिद्ध करता है। संसार में ऐसे कितने ही महापुरुष हुए हैं, जिनकी अद्भुत मानसिक योग्यता एवं प्रतिभा ने लोगों को हैरत में डाल दिया है। यह धनञ्जय प्राण के विकास का चमत्कार है। मस्तिष्क में अनेक शक्तियों का निवास है। व्यवस्था-शक्ति, ग्रहण-शक्ति, निर्णय-शक्ति, रचना-शक्ति, आमोद-शक्ति, उपक्रान्ति-शक्ति, अनुवर्तन-शक्ति आदि अगणित शक्तियाँ मस्तिष्क में भरी पड़ी हैं।

सभी प्रकार की भली-बुरी तुच्छ-महान, शक्तियों का भण्डार मस्तिष्क है। इस आधार की सुव्यवस्था एवं अव्यवस्था का आधार धनञ्जय प्राण है। यदि उसमें कुछ गड़बड़ी हो तो मनुष्य में अनेक मानसिक विभूतियाँ उत्पन्न हो जाती हैं। ऐसे लोग मूर्ख, मन्दबुद्धि चिंतित, दुःखी एवं उलझनों में उलझे रहते हैं। किसी व्यक्ति का पूर्ण मस्तिष्कीय विकास तभी हो सकता है जब उसका व्यान ठीक हो और उसका मंत्री ‘धनञ्जय’ जागृत होकर काम करे।

दस प्राणों को सुसुप्त दशा से उठाकर जागृत करने, उसमें उत्पन्न हुई कुप्रवृत्तियों का निवारण करने, प्राण शक्ति पर परिपूर्ण अधिकार एवं आत्मिक जीवन को सुसम्पन्न बनाने के लिए प्राण-विद्या’ का जानना आवश्यक है। जो इस विद्या को जानता है, उसको प्राण सम्बन्धी न्यूनता एवं विकृति के कारण उत्पन्न होने वाली कठिनाइयाँ दुःख नहीं देती।

प्राण विद्या को ही हठयोग भी कहते हैं। हठयोग के अन्तर्गत प्राण परिपाक के लिए (१) बंध, (२) मुद्रा और (३) प्राणायाम के साधन बताये गये हैं। तीन बन्ध और प्राणायामों का वर्णन नीचे किया जाता है।



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