गायत्री की पंचकोशी साधना एवं उपलब्धियां

देवताओं के अधिक अंगों का रहस्य

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देव- दानवों के अधिक मुख और अधिक अंग ऐसी ही रहस्यमय पहेलियाँ हैं, जिनमें तत्सम्बन्धी प्रमुख तथ्यों का रहस्य सन्निहित होता है। वह सोचता है ऐसी विचित्रता क्यों हुई। इस प्रश्न पहेली का समाधान करने के निमित्त जब वह अन्वेषण करता है, तब पता चल जाता है कि इस बहाने कैसे महत्त्वपूर्ण तथ्य उसे प्राप्त होते है? अनुभव कहता है कि यदि इस प्रकार उलझी पहेली न होती तो शायद उनका ध्यान भी इन रहस्यमय बातों की ओर न जाता और वह उस अमूल्य जानकारी से वंचित रह जाता है। पहेलियों के उत्तर बालकों को ऐसी दृढ़तापूर्वक याद हो जाते हैं कि वे भूलते नहीं। अध्यात्मिक कक्षा का विद्यार्थी भी अधिक मुख वाले देवताओं को समझने के लिए जब उत्सुक होता है तो उसे वे अद्भुत बातें सहज ही विदित हो जाती हैं, जो उस दिव्य महाशक्ति से सम्बन्ध हैं। उदाहरण के लिए हनुमान जी की पूँछ, गणेश जी की सूँड़, हयग्रीव का अश्वमुख, ब्रह्माजी के चार मुख, दुर्गाजी की आठ भूजायें, शिवजी के तीन नेत्र, कार्तिकेयजी के छः मुख तथा इन देवताओं के मूषक, मोर, बैल, सिंह आदि वाहनों में क्या रहस्य है? इसका विस्तृत वितेचन तो यहाँ तो सम्भव नहीं है। यहां तो केवल गायत्री के पाँच मुखों के सम्बन्ध में ही विस्तार पूर्वक चर्चा की जा रही है।

गायत्री सुव्यवस्थित जीवन का, धार्मिक जीवन का अविच्छिन्न अंग है, तो उसे भली प्रकार समझना, उसके मर्म, रहस्य, तथ्य और उपकरणों को जानना भी आवश्यक है। डाक्टर, इन्जीनियर, यन्त्रविद्, बढ़ई, लुहार, रंगरेज, हलवाई, सुनार, दर्जी, कुम्हार, जुलाहा, नट, कथावाचक, अध्यापक, गायक, किसान आदि सभी वर्ग के कार्यकर्ता अपने काम की बारीकियों को जानते हैं और प्रयोग विधि, हानि- लाभ के कारणों को समझते हैं। गायत्री- विद्या के जिज्ञासुओं और प्रयोक्ताओं को भी अपने विषय में भली प्रकार परिचित होना चाहिए अन्यथा सफलता का क्षेत्र अवरुद्ध हो जायेगा। ऋषियों ने गायत्री के पाँच मुख बताकर हमें यह बताया है कि इस महाशक्ति के अन्तर्गत पाँच तथ्य ऐसे हैं जिनको जानकर और उनका ठीक प्रकार अवगाहन करके संसार सागर के सभी दुस्तर दुरितों से पार हुआ जा सकता है।

गायत्री के पाँच मुख वास्तव में उसके पाँच भाग हैं :- १- ऊँ, २- भूः भुवः स्वः, ३- तत्सवितुर्वरेण्यं, ४- भर्गोदेवस्य धीमहि, ५- धियो योनः प्रचोदयात्। यज्ञोपवीत के पाँच भाग हैं, तीन लड़ें, चौथी मध्य ग्रन्थियाँ पाँचवीं ब्रह्म ग्रन्थि। पाँच देवता प्रसिद्ध हैं। ओsम् अर्थात गणेश, व्याहृति अर्थात भवानी गायत्री का प्रथम चरण- ब्रह्मा, द्वितीय चरण विष्णु, तृतीय चरण महेश ।। इस प्रकार यह देवता गायत्री के प्रमुख शक्ति पुंज कहे जा सकते हैं।

गायत्री के इन पाँच भागों में वे सन्देश छिपे हुए हैं, जो मानव जीवन की बाह्य एवं आन्तरिक समस्याओं को हल कर सकते हैं। हम क्या हैं? किस कारण जीवन धारण किए हुए हैं। हमारा लक्ष्य क्या है? अभावग्रस्त और दुःखी रहने का कारण क्या है? सांसारिक सम्पदाओं की और आत्मिक शान्ति की प्राप्ति किस प्रकार हो सकती है? कौन बन्धन हमें जन्म- मरण के चक्र में बाँधे हुए हैं? किस उपाय से छुटकारा मिल सकता है? अत्यन्त आनन्द का उद्गम कहाँ है? विश्व क्या है? संसार का और हमारा क्या सम्बन्ध है? जन्म- मृत्यु के त्रासदायक चक्र को कैसे तोड़ा जा सकता है? आदि जटिल प्रश्नों के सरल उत्तर उपर्युक्त पंचकों में मौजूद हैं।

गायत्री के पाँच मुख असंख्य सूक्ष्म रहस्य और तत्व अपने भीतर छिपाये हुए हैं। उन्हें जानने के बाद मनुष्य को इतनी तृप्ति हो जाती है कि कुछ जानने लायक बात उसको सूझ नहीं पड़ती। महर्षि उद्दालक ने उस विद्या की प्रतिष्ठा की थी जिसे जानकर और कुछ जानना शेष नहीं रह जाता, वह विद्या गायत्री विद्या ही है। चार वेद और पाँचवा यज्ञ, यह पाँच ही गायत्री के पांच मुख हैं, जिनमें समस्त ज्ञान- विज्ञान और धर्म- कर्म बीज रूप में केन्द्रीभूत हो रहा है।

शरीर पाँच तत्वों से बना पड़ा है और आत्मा के पाँच कोश हैं। मिट्टी, पानी, हवा, अग्नि और आकाश के सम्मिश्रण से देह बनती है। गायत्री के पाँच मुख बताते हैं कि यह शरीर और कुछ नहीं केवल पंचभूतों का, जड़ परमाणुओं का सम्मिश्रण मात्र है। यह हमारे लिए अत्यन्त उपयोगी औजार, सेवक एवं वाहन है। अपने आप को शरीर समझ बैठना भारी भूल है। इस भूल को ही माया या अविद्या कहते हैं। शरीर का एवं संसार का वास्तविक रूप समझ लेने पर जीव मोह- निद्रा से जाग उठता है और संचय, स्वामित्व एवं भोगों की बाल- क्रीड़ा से मुँह मोड़कर आत्म- कल्याण कि ओर लगता है। पाँचों मुखों का एक सन्देश यह है पंच तत्वों से बने पदार्थों को केवल उपयोग की वस्तु समझें, उनमें लिप्त, तन्मय, आसक्त एवं मोहग्रस्त न हों।

उच्चस्तरीय साधना में पंचमुखी गायत्री प्रतिमा में पंचकोश गायत्री उपासना की आवश्यकता का संकेत है। यह पाँचकोश अन्तर्जगत् के पाँच देव, पाँच प्राण, पाँच महान सद्गुण पंचाग्नि, पंचतत्व, आत्मसत्ता के पाँच कलेवर आदि कहे जाते हैं। पंच देवों की साधना से उन्हें जागृत सिद्ध कर लेने से जीवन में अनेकानेक सम्पत्तियों और विभूतियों के अवतरण का रहस्योद्घाटन किया गया है। पाँच प्राणों को चेतना की पाँच धारायें चिन्तन की प्रखरताएं कहा गया है। चेतना की उत्कृष्टता इन्हीं के आधार पर बढ़ती और प्रचण्ड होती है। प्राण विद्या भी गायत्री विद्या का ही एक अंग है। गायत्री शब्द का अर्थ भी गय = प्राण + त्री = त्राता ।। अर्थात प्राण शक्ति का परित्राण करने वाली दिव्य क्षमता के रूप में इस प्राण तत्व को इन्हीं पाँच धाराओं के रूप में प्रस्तुत किया गया है।

गायत्री के पाँच मुखों, पंचकोशों के रूप में उन पाँच तत्वों की प्रखरता का वर्णन है जिनसे यह समस्त विश्व और मानव शरीर बना है। स्थूल रूप में यह पाँच तत्व पैरों तले रौंदी जाने वाली मिट्टी, कपड़े धोने के लिए काम आने वाले पानी, चूल्हे में जलने वाली आग पोला आकाश और उसमें मारी- मारी फिरने वाली हवा के रूप में देखे जाते हैं। पर यदि उनकी सूक्ष्म क्षमता पर गहराई से दृष्टि डाली जाय तो पता चलेगा कि इन तत्वों के नगण्य से परमाणु तक कितनी अद्भुत शक्ति अपने में धारण किये बैठे हैं। उनकी रासायनिक एवं ऊर्जागत क्षमता कितनी महान है। पंच तत्वों से बना यह स्थूल जगत और उनकी तन्मात्राओं से बना सूक्ष्म जगत कितना अद्भुत, कितना रहस्यमय है, यह समझने का प्रयत्न किया जाता है तो बुद्धि थक कर उसे विराट ब्रह्म की साकार प्रतिमा मानकर ही सन्तोष करती है। इन पंच तत्वों के अद्भुत रहस्यों का संकेत गायत्री के पाँच मुखों में बताया गया है और समझाया गया है कि यदि इनका ठीक प्रकार उपयोग, परिष्कार किया जा सके तो उनका प्रतिफल प्रत्यक्ष पाँच देवों की उपासना जैसा हो सकता है। पृथ्वी, अग्नि, वरुण, मरुत, अनन्त इन पाँच देवताओं की आराधना करके पाँच देवोपम पुत्र रत्न पाए थे। पंचमुखी, पंचकोशी उच्चस्तरीय गायत्री उपासना में तत्व दर्शन की - तत्व साधना की गरिमा का संकेत है।

मानव सत्ता के तीन शरीर हैं - कारण, सूक्ष्म और स्थूल। कारण शरीर में पाँच सम्वेदनायें, सूक्ष्म शरीर में पाँच प्राण चेतनायें और स्थूल शरीर में पाँच शक्ति धारायें विद्यमान हैं और उच्चस्तरीय साधना विज्ञान का सहारा लेकर उन्हें उभारे जाने का संकेत एवं निर्देश है।

पाँच देवों में (१) भवानी, (२) गणेश, (३) ब्रह्मा, (४) विष्णु, (५) महेश की उपार्जन शक्ति, अभिवर्धन पराक्रम एवं परिवर्तन की प्रखरता कह सकते हैं। यह पाँच देवता ब्रह्माण्ड- व्यापी ईश्वरीय दिव्य शक्तियों के रूप में संव्याप्त हैं। सृष्टि सन्तुलन एवं संचालन में योगदान करते हैं। यही पाँच शक्तियाँ आत्मसत्ता में भी विद्यमान हैं और इस छोटे ब्रह्माण्ड को सुखी समुन्नत बनाने का उत्तरदायित्व सम्भालते हैं। इन्हें पाँच कोशों में सन्निहित अन्तर्जगत् के पाँच देव कहा जा सकता है। पंचकोश साधना की सफलता को उपर्युक्त पाँच देवताओं के द्वारा प्राप्त हो सकने वाले अनुदान वरदान के रूप में अनुभव किया जाता है।

कोश खजानों को भी कहते हैं। समुद्र को रत्नाकर कहा जाता है और उसके गर्भ में असीम रत्न राशि भरी होने की बात सर्वविदित है। जमीन में भी जल, तेल, धातुयें रत्न तथा अन्यान्य बहुमूल्य पदार्थ मिलते हैं। यह खजाने खुदाई करने पर ही मिलते हैं। पूर्वजों के द्वारा छोड़ा हुआ धन प्रायः जमीन में गढा़ होता था। उत्तराधिकारी उसे खोदते, निकालते और लाभान्वित होते थे। ईश्वर प्रदत्त बहुमूल्य विभूतियाँ आत्मसत्ता के मर्मस्थलों में छिपी रहती हैं। पंचकोश जागरण की साधना से उस वैभव को - सिद्धि सम्पदा को साधक उपलब्ध करते हैं।

आत्मसत्ता के पाँच कलेवरों के रूप में पंचकोशों को बहुत अधिक महत्त्व दिया जाता रहा है। शास्त्रकारों ने मानवीसत्ता को पाँच वर्गों में विभक्त किया है। उनके नाम हैं - (१) अन्नमय कोश, (२) प्राणमय कोश, (३) मनोमय कोश, (४) विज्ञानमय कोश, (५) आनन्दमय कोश।

अन्नमय कोश का अर्थ है- इन्द्रिय चेतना, प्राणमय कोश अर्थात जीवनी शक्ति, मनोमय कोश अर्थात विचार बुद्धि, विज्ञानमय कोश अर्थात भाव प्रवाह, आनन्दमय कोश अर्थात आत्मबोध, आत्मस्वरूप में स्थिति यह पाँच चेतना स्तर हैं।

निम्न स्तर के प्राणी इनमें निम्न भूमिका में पड़े रहते हैं। कृमि- कीटकों की चेतना इन्द्रियों की प्रेरणा के इर्द- गिर्द अपना चिन्तन सीमित रखती है। वे शरीर की जीवनी- शक्ति मात्र से जीवित रहते हैं। संकल्प- बल उनके जीवन- मरण में सहायक नहीं होता। मनुष्य की जिजीविषा इस शरीर के अशक्त- असमर्थ होने पर भी जीवित रख सकती है, पर निम्न वर्ग के प्राणी मात्र सर्दी- गर्मी बढ़ने जैसे ऋतु प्रभावों से प्रभावित होकर अपना प्राण त्याग देते हैं उन्हें जीवन संघर्ष के अवरोध में पड़ने की इच्छा नहीं होती।

प्राणमय कोश की क्षमता जीवनी- शक्ति के रूप में प्रकट होती है। जीवित रहने की सुदृढ़ और सुस्थिर इच्छा शक्ति के रूप में उसे देखा जा सकता है। स्वस्थ, सुदृढ़ और दीर्घ जीवन का लाभ शरीर को इसी आधार पर मिलता है। मनस्वी, ओजस्वी और तेजस्वी व्यक्तित्व ही विभिन्न क्षेत्रों में सफलतायें प्राप्त करते हैं। इसके विपरीत दीन- हीन, भयभीत, शंकाशील, निराश, खिन्न, हतप्रभ व्यक्ति अपने इसी दोष के कारण उपेक्षित, तिरस्कृत एवं उपहासास्पद बने रहते हैं। उत्साह के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ी रहने वाली कर्मनिष्ठा का जहाँ अभाव होगा वहाँ अवनति और अवगति के अतिरिक्त और कुछ रहेगा ही नहीं। साहस बाजी मारता है। बहादुरों के गले में ही अनादि काल से विजय बैजन्ती पहनाई जाती रही है और अनन्त काल तक यही क्रम चलता रहेगा।

मनोमय कोश का अर्थ है- विचार शीलता, विवेक बुद्धि। यह तत्व जिसमें जितना सजग होगा उसे उसी स्तर का मनस्वी या मनोबल सम्पन्न कहा जायेगा। यों मन हर जीवित प्राणी का होता है। कीट- पतंग भी उससे रहित नहीं हैं। पर मनोमय कोश के व्याख्याकारों ने उसे दूरदर्शिता, तर्क प्रखरता एवं विवेकशीलता के रूप में विस्तारपूर्वक समझाया है। मन की स्थिति हवा की तरह है, वह दिशा विशेष तक सीमित न रहकर स्वेच्छाचारी वन्य पशु की तरह किधर भी उछलता- कूदता है। पक्षियों की तरह किसी भी दिशा में चल पड़ता है। इसे दिशा देना, चिन्तन को अनुपयोगी प्रवाह में बहने से बचा कर उपयुक्त मार्ग पर सुनियोजित करना मनस्वी होने का प्रधान चिन्ह है। मनोनिग्रह- मनोजय इसी का नाम है।

एकाग्रता का- चित्त का बहुत महात्म्य योगशास्त्रों में बताया गया है। इसका अर्थ चिन्तन प्रक्रिया को ठप्प कर देना, एक ही ध्यान में निमग्न रहना नहीं, वरन यह है कि विचारों का प्रवाह नियत निर्धारित प्रयोजन में ही रुचिपूर्वक लगा रहे ।। यह कुशलता जिनको करतलगत हो जाती है वे जो भी लक्ष्य निश्चित करते हैं उसमें प्रायः अभीष्ट सफलता ही प्राप्त करके रहते हैं। बिखराव की दशा में चिन्तन की गहराई में उतरने का अवसर नहीं मिलता। अस्तु किसी विषय में प्रवीणता और पारंगतता भी हाथ नहीं लगती। संसार में विशेषज्ञों का स्वागत होता है, यहाँ हर क्षेत्र में "ए- वन" की माँग है और यह उपलब्धि कुशाग्र बुद्धि पर नहीं सघन मनोयोग के साथ सम्बद्ध है। यह मनोयोग का वरदान प्राप्त करने के लिए जो प्रयास व्यायाम करने पड़ते हैं उन्हें ही मनोमय कोश की साधना कहते हैं।

विज्ञानमय कोश को सामान्य भाषा में भावना प्रवाह कह सकते हैं। यह चेतना की गहराई में अवस्थित अन्तःकरण से सम्बन्धित है। विचार- शक्ति से भाव- शक्ति कहीं गहरी है, साथ ही उसकी क्षमता एवं प्रेरणा भी अत्यधिक सशक्त है। मनुष्य विचारशील ही नहीं सम्वेदनशील भी है। यह सम्वेदनायें ही उत्कट स्तर की आकांक्षायें उत्पन्न करती हैं और उन्हीं से प्रेरित होकर मनुष्य बेचैन- विचलित हो उठता है जबकि विचार प्रवाह, मात्र मस्तिष्कीय हलचल भर पैदा कर पाता है। देव और दैत्य का वर्गीकरण इस भाव चेतना के स्तर को देखकर ही किया जाता है।

विज्ञानमय कोश की सन्तुलित साधना मनुष्य को दयालु, उदार, सज्जन, सहृदय, संयमी एवं शालीन बनाती है। उसे दूसरों को दुःखी देखकर उसकी स्थिति में अपने को रखकर व्यथित होने की 'सहानुभूति' का अभ्यास होता है। तदनुसार औरों का दुःख बँटाने की, सेवा परायणता की आकांक्षा सदा उठती रहती है। विभिन्न प्रकार के परमार्थ इसी स्थिति में बन पड़ते हैं। ऐसे व्यक्तियों की आत्म- भावना सुविस्तृत होते- होते अतीव व्यापक बन जाती है। तब दूसरों के सुख में भी अपने निज के जैसा आभास मिलता है।

आनन्दमय कोश का विकास यह देखकर परखा जा सकता है कि मनुष्य क्षुब्ध, उद्विग्न, चिन्तित, खिन्न, रुष्ट, असन्तुष्ट रहता है अथवा हँसती, मुस्कराती, हलकी- फुलकी, सुखी सन्तुष्ट जिन्दगी जीता है। मोटी मान्यता यह है कि वस्तुओं, व्यक्तियों अथवा परिस्थितियों के कारण मनुष्य सुखी- दुःखी रहते हैं, पर गहराई से विचार करने पर यह मान्यता सर्वथा निरर्थक सिद्ध होती है। एक ही बात पर सोचने के अनेकों दृष्टिकोण होते हैं। सोचने क तरीका किस स्तर का अपनाया गया- यही है मनुष्य के खिन्न अथवा प्रसन्न रहने का कारण।

अपने स्वरूप का, संसार की वास्तविकता का बोध होने पर सर्वत्र आनन्द ही आनन्द है। दुःख तो अपने आपे को भूल जाने का, संसार को कुछ से कुछ समझ बैठने के अज्ञान का है। यह अज्ञान ही भवबन्धन है, इसे ही माया कहते हैं। प्राणी त्रिविध ताप इसी नरक की आग में जलने से सहता है। सच्चिदानन्द परमात्मा के इस सुरम्य नन्दन वन जैसे उद्यान में दुःख का एक कण भी नहीं, दुःखी तो हम केवल अपने दृष्टि दोष के कारण होते हैं। वस्तु, व्यक्ति और परिस्थिति का विकृत रूप देखकर ही डरते और भयभीत होते हैं। यदि यह दृष्टि दोष सुधर जाय तो मिथ्या आभास के कारण उत्पन्न हुई भ्रान्ति का निवारण होने में देर न लगे और आत्मा की निरन्तर आनन्द उल्लास से परिपूर्ण परितृप्त रहने की स्थिति बनी रहे।

पाँच कोशों की भावनात्मक पृष्ठभूमि यही है। इन्हीं कसौटियों पर कसकर किसी व्यक्ति की आन्तरिक स्थिति के बार में जाना जा सकता है कि वह आत्मिक दृष्टि से कितना गिरा पिछड़ा है अथवा उठने, विकसित होने में सफल हुआ है।

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