गायत्री की पंचकोशी साधना एवं उपलब्धियां

उच्चस्तरीय गायत्री साधना और आसन

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उपासना बैठकर की जाती है। ध्यान धारण, जप, पूजा, पाठ, आदि क्रियाकृत्य खड़े होकर नहीं किये जाते उनके लिए स्थिरतापूर्वक सुख से बैठने का विधान है। महर्षि पतंजलि ने इसीलिए अपने अष्टांग योग में 'यम' नियम के बाद आसन को महत्त्व दिया है। यों आसन की परिभाषा 'स्थिर- सुखमासनम्' की गयी है, जिसका अर्थ स्थिरतापूर्वक सुख से बैठना कहा गया है। परन्तु-आसन का तात्पर्य मात्र बैठने की विधि से नहीं वरन् उस स्थान एवं वातावरण से है, जहाँ उपासना की जाय। आसन के नाम पर सिद्धासन, सर्वांगासन, पद्मासन आदि पैरों को मोड़ने-मरोड़ने की विधि विशेष तक ही सीमित नहीं किया जाना चाहिए वरन् उसमें समूचे वातावरण का संकेत सन्निहित समझा जाना चाहिए, जहाँ कि उपासना की जा रही है या की जानी है।

व्यक्ति की शरीरिक एवं मानसिक स्थिति पर स्थान और वातावरण का अनिवार्य रूप से प्रभाव पड़ता है। अवांछनीय परिस्थितियों में रहते हुए चित्त में उद्विग्नता बनी रहेगी और आत्मिक उत्कर्ष के वे प्रयोग न सध सकेंगे जिनमें, शान्ति-चित्त होने की, मानसिक स्थिरता की शर्त जुड़ी हुई है। साधना में मन न लगने, जी ऊबने, चित्त के चंचल रहने की शिकायत साधकों को प्राय: बनी ही रहती है। इसका कारण मन का अनगढ़ होना और निग्रह में संकल्प शक्ति का प्रयोग न किया जाना भी होता है। उसके कारण भी मन उचटता रहता है। साधना जिस श्रद्धा, अभिरुचि और विश्वासपूर्वक की जानी चाहिए वह हो नहीं पाती। कारण स्पष्ट है कि जिसमें गहरी श्रद्धा एवं मनोबल युक्त संकल्प का समावेश न होगा वह आत्मोत्कर्ष के लिए किया जाने वाला साधन मात्र छुट पुट कार्यक्रमों के सहारे संपन्न न हो सकेगा। अस्तु आसन की, वातावरण की उपयोगिता समझी जानी चाहिए और उसके लिए अच्छे स्थान की अच्छे वातावरण की व्यवस्था की जानी चाहिए।

किसके लिए, कहाँ, क्या, कितना सम्भव है ? यह निर्णय करना हर व्यक्ति का अपना काम है। उसे अपेक्षा कृत अधिक उपयुक्तता तलाश करनी चाहिए। पर यदि बहुत घिचपिच हो तो समीप में कोई सुविधाजनक सज्जनता के वातावरण वाला शान्त स्थान तलाश किया जा सकता है। घर में रचा हवादार कोठरी कोलाहल रहित कोने में मिल सके तो उत्तम है। खुली छत का भी उपयोग हो सकता है। कुछ भी न बन पड़े तो इतनी व्यवस्था तो बनानी चाहिए कि जितने समय तक उपासना की जानी है उतने समय तक लोगों का आवागमन न रहे। उपासना में कई व्यक्ति एक साथ बैठ सकते हैं, पर वे सभी रहने आत्मतल्लीन ही चाहिए। एक की हलचलें दूसरों का ध्यान न उचटावें, तभी साथ बैठने की सार्थकता है।      अब आसन की वह परिभाषा आरम्भ की जाती है। जिसका बैठने से सम्बन्ध है। आसन पैरों का ही नहीं समस्त शरीर का होता है। कमर सीधी, आँखें अधोमिलित, शान्त चित्त, स्थिर शरीर यह स्थिति रहनी चाहिए। मात्र ध्यान करना हो तो दोनों हाथ गोदी में रहने चाहिए अन्यथा जप में दाहिने बायें हाथों को इधर-उधर भटकाते नहीं रहना चाहिए वरन् एक निर्धारित क्रम सुस्थिर रखने की व्यवस्था आसन मुद्रा कहलाती है।

पैरों को किस प्रकार मोड़कर बैठा जाय। इसका भी साधना में महत्त्व है। इस बैठक का भी शरीर पर और मन पर प्रभाव पड़ता है और उसके सहारे साधना की सफलता में सरलता उत्पन्न होती हैं। यहाँ इतना और स्मरण रखने योग्य है कि उत्तानपाद, शीर्षासन, मत्स्यासन, मयूरासन आदि चौरासी या न्यूनाधिक संख्या में गिनाये जाने वाले आसन एक़ प्रकार के शारीरिक व्यायाम हैं। आरोग्य रक्षा की दृष्टि से विशेष व्यायामों जैसा ही उनका महत्त्व है। उन्हें आध्यात्मिक साधनाओं के साथ सम्मिलित नहीं किया जा सकता। चित्र-विचित्र ढंग से शरीर के अवयवों को मोड़ने मरोड़ने से शरीरगत लाभ तो हो सकते हैं, पर मन की एकाग्रता पर तो उनके कारण उत्पन्न हुए तनाव से बाधा ही पड़ेगी।

साधना के लिए बैठने में शरीर को सुविधा की स्थिति में रखे रहने वाली मुद्रा होनी चाहिए। इसके लिए सुखासन सर्व-सुलभ है। साधारण रीति से पालथी मारकर बैठने का नाम उसकी सुविधा को ध्यान में रखते हुए ''सुखासन'' उपयुक्त ही रखा गया है। इसे किसी भी साधना में बिना किसी संकोच के प्रयुक्त किया जा सकता है। शास्त्रकार आसन का उद्देश्य और स्वरूप समझते हुए कहते हैं
येन केन प्रकारेण सुख धैर्य च जायते।
                      यत्सुखासनामित्युक्तमशक्तस्तत्समाश्रयेत् ।। १२।।                 
                                                          -जावालदर्शनोपनिषद् ३। १२    
जिस प्रकार बैठने से शरीर को सुविधा हो, शान्ति में अड़चन न पड़े उसे सुखासन कहते हैं। निर्बल साधकों को ऐसे ही आसन का आश्रय लेना चाहिए।

योगशास्त्र के अंतर्गत कई प्रकार के आसनों का उल्लेख है। उन्हें मार्गदर्शन के परामर्श एवं निर्देश के अनुसार विशेष साधनाओं के लिए विशेष रूप से किया जाता है। यों योग शास्त्र में ८४ प्रकार के आसनों का उल्लेख है। गोरक्ष संहिता में तो ८४ लाख योनियों के अनुसार ८४ लाख आसनों की चर्चा की गई है पर मुख्य ८० ही बताये गये हैं।              (१। ९- १०)

इन चौरासी आसनों में भी चार विशेष उल्लेखनीय हैं (१) सिद्धासन (२) पद्मासन (३) मुद्रासन तथा (४) स्वीस्तकासन। यथा-  
सिद्धं पद्म् तथा सिहं यदं चेति चतुष्टयम्  
               श्रेष्ठ तंत्रापि च सुखे तिष्ठेन सिद्धिसिनेसदा                 
                                                   (हठयोग प्रदीपिका १। ३६)

इन चार आसनों में भी दो ही मुख्य माने गये हैं (१) सिद्धासन (२) पद्मासन। दो मुख्य आसनों में भी पद्मासन सरल है। उसका स्वरूप इस प्रकार बताया गया है।
बामोरूपरि दक्षिणं च चरणं संस्थाप्य वानं तथा,
दक्षोरूपरि पश्चिमेन विधिना धृत्वा कराभ्यां दृढम्।
अंगुष्ठौ हृदये निधाय चिवुकं नासाग्रमालोकये-
                  देतव्याधिविनाशकारि यमिनां पद्मासन प्राच्यते।।                  
                                                             हठयोग प्रदीपिका १। ४४


बाई जांघ के ऊपर दाहिने पैर और दाहिनी जांघ पर बायें पैर को रखें। पीछे की ओर दोनों हाथों से दोनों पैरों के अंगूठे पकड़कर और ठोड़ी को कण्ठ में सटाकर नाक के अग्रभाग में देखें यह पद्मासन है। इससे व्याधियाँ नष्ट होती हैं।     पद्मासन की सामान्य प्रचलित रीति में पैरों पर पैर चढ़ाकर हाथ सुविधाजनक घुटनों पर अथवा गोद में रखकर बैठने का क्रम है। पीछे से हाथ ले जाकर अंगूठा पकड़ने को पद्मासन कहा जाता है।

गायत्री साधना द्वारा कुंडलिनी जागरण के प्रयोग में सिद्धासन को प्रमुखता दी जाती है। यह लगातार तो नहीं हो सकता पर जितनी देर शक्ति चालिनी मुद्रा एवं प्राणायाम के अभ्यास किये जाते हैं, उतनी देर उसे लगाना लाभदायक है। सिद्धासन का महत्त्व शास्त्रकार इस प्रकार बताते हैं।
चतुर शीति पीठेषु सिद्धमेवसदाम्यसेत्।
द्वा सप्तति सहस्राण्ये नाड़ीनां मलशोधनम्।

अर्थात- ८४ आसनों में से सिद्धासन का हमेशा ही अभ्यास करना चाहिए क्योंकि वह ७२ हजार नाड़ियों के मल को दूर करता है।

किमन्यै बहुभि: पीठै: सिद्धे सिद्धासने सति।
प्राणानिले सावधाने बद्धे केवलकुंभके।।
उत्पद्यते निरायासात्स्वयमेवोन्मनो कला।
तथैकस्मिन्नेव दृढे सिद्धे सिद्धासने सति।
            बन्धत्रयमनायासात्स्वयमेवोपजायते।               
                             -हठयोग प्रदीपिका १। ४३, ४४

अर्थात्- सिद्धासन के सिद्ध होने पर अन्य अनेक आसनों के अभ्यास की क्या आवश्यकता ? प्राणवायु को सावधानीपूर्वक संयमित रखकर केवल 'कुम्भक' प्राणायाम का अभ्यास करते हुए सिद्धासन में दृढ़ रहकर साधना करने से उन्मनी कला स्वयमेव सिद्ध होती है और तीनों बन्ध भी इस अभ्यास से स्वत: ही सिद्ध हो जाते हैं।

एतत्सिद्धासनं ज्ञयं सिद्धानां सिद्धिदायकम्।।
येनाभ्यास वशात् शीघ्रं योगनिष्पत्तिमात्नुयात्।।
                 सिद्धासनं सदा सेव्य पवनाभ्यासिना परम्।।                
                                        शिव संहिता ३। १०२। १०३
    
अर्थ- यह सिद्धासन सिद्धिदायक है। इसके अभ्यास में योग निष्पत्ति शीघ्र होती हैं। इसीलिए प्राणवायु के अभ्यासी साधक को यह सिद्धासन सदा करना चाहिए।

सिद्धासन का मूल प्रयोजन मूलाधार चक्र को प्रभावित एवं उत्तेजित करना है। उसमें पैर की ऐडी का दवाब मूलाधार क्षेत्र पर डालना। इस प्रकार उत्पन्न की गई उत्तेजना कुंडलिनी को जागृत करने में विशेष रूप से सहायक सिद्ध होती है। इस सिद्धासन का स्वरूप इस प्रकार बताया गया है-
योनि स्थानकमडि ध्रमूलधरितं कृत्वा दृढ़ विन्यसेत्
मेढ्रे पादमथैकमेव हृदये धुत्वा सम विग्रहम्।।
स्थाणुः सयंमितेन्द्रियोSचलदृशा पश्यन् भुवोरंतरं।
                      चैतन्यारण्यकपाट भेद जनक सिद्धासन प्रोच्यते।                        
                                                                -गोरक्ष संहिता        
योनि स्थान को बाँये पद के मूल देश से दवा और एक़ चरण मेढू के देश में आबद्ध करके एवं हृदय में ठोड़ी को जमाते हुए देह को सरल एवं दोनों भौंहों के मध्य देश में दृष्टि स्थान पूर्वक यानी शिव नेत्र होकर निश्चल भाव से बैठने का नाम सिद्धासन है।     सिद्धासन का स्वरूप अधिक अच्छी तरह समझने के लिए उसे इस प्रकार जानने और अभ्यास में लाने का प्रयत्न करना चाहिए।

सिद्धासन- कमर सीधी। ध्यान मुद्रा। बाँया पैर इस प्रकार मोड़े कि उसकी ऐडी का ऊपरी भाग सीवंन मलमूत्र छिद्रों के मधवर्ती भाग के नीचे आ जाय। स्थिति ऐसी रहनी चाहिए कि सीधे बैठने पर ऐड़ी का दवाब 'सीवन' के भीतर चल रही मूत्र नलिकाओं पर पड़े।

दाँये पैर को बाँये पैर के ऊपर रखकर पालथी जैसी स्थिति बनाई जाय। ऐसा करने से दाहिने पैर की ऐड़ी नाभि से लगभग चार अंगुल नीचे उसी की सीध में जमी दिखाई देगी।

इस प्रकार दोनों ऐडि़याँ शरीर की मध्य रेखा पर रहती है। तथा उनके बीच मूलाधार क्षेत्र आ जाता है।     इस प्रकार बैठने से पैरों पर दबाव पड़ता है और अधिक देर इस तरह बैठ सकने में कठिनाई होती है। अतएव आवश्यकतानुसार पैरों को बदलते रहा जा सकता है। जिस प्रकार आरम्भ में बाँया पैर नीचे और दाहिना ऊपर रखा गया था उसी प्रकार बदलने पर दाहिने नीचे चला जायेगा और बाँया ऊपर आ जायेगा।

सिद्धासन का अभ्यास आरम्भ में पाँच मिनट से करना चाहिए और जितना अभ्यास हो सके। उठने पर पैरों को कष्ट अनुभव न हो उतनी देर चलाया जा सकता है। प्राय: १५ मिनट से आधा घण्टे तक यह अभ्यास आसानी से बढ़ सकता है। इसका प्रयोग सामान्य जप में नहीं सूर्यवेधन प्राणायाम जैसी विशेष साधनाओं में ही करना चाहिए। सामान्य गायत्री जप ध्यान आदि में तो सामान्य पालथी मारकर बैठना ही पर्याप्त होता है। तनाव उत्पन्न करने वाले साधनों से सामान्य साधना में ध्यान बटता है। लेकिन यदि गायत्री की उच्चस्तरीय साधना करनी हो तो, किस स्थिति, में कौन सा आसन अपनाया जाना चाहिए। इसका निर्णय स्वयं ही नहीं किया जा सकता है। इसके लिए उपयुक्त मार्ग दर्शन की सहायता पथ प्रदर्शक के रूप में प्राप्त करनी चाहिए। इसके साथ वातावरण, स्थान एवं संयम नियम का अपना महत्त्व तो है ही।


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