गायत्री की पंचकोशी साधना एवं उपलब्धियां

ईश्वर का अनुग्रह तपस्वी के लिए

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श्रीमद्भागवत के द्वितीय स्कंध नवमें अध्याय में भगवान ने अपने निज रूप का परिचय देते हुए कहा है     ''तपो में हृदयं-साक्षादात्माहि तपसो हि वै |''    अर्थात- तप मेरा प्रत्यक्ष हृदय है और मैं भी तप का हृदय हूँ। दोनों एक-दूसरे पर आश्रित हैं।

आगे इस तथ्य का और अधिक स्पष्टीकरण करते हुए वे कहते हैं-
सुजामि तपसैर्वेदं ग्रसामि तपसा पुन:।।
विमर्मि तपसा विश्व वीर्य मे दुश्चरं तप:।।

अर्थात- मैं इस समस्त विश्व को तप के सहारे उत्पन्न करता हूँ तप के द्वारा ही अन्त में इसे आत्म रूप में विलीन कर लेता हूँ। विश्व का परिपोषण मैं तपोबल से ही करता हूँ। मेरी अद्भुत सामर्थ्य तप में ही केन्द्रीभूत है।

श्रीमद्भागवत् के आगे विवरण में अग्नि, ब्रह्मा, वासु आदि देवताओं का उल्लेख है जिनके अपने लिए कर्तव्य और साधन सम्बन्धी प्रश्न पूछने पर परब्रह्म ने एक ही उत्तर दिया है कि 'तपं तपस्य' अर्थात् तप की तपस्या करो। इसी से शक्ति उत्पन्न होगी। शक्ति के बलबूते ही व्यक्तित्व प्रखर होता है। क्षमताओं का स्त्रोत खुलता है और उसी के सहारे सहजता से कठिन काम सम्पन्न होते हैं। जो अशक्त है वह कल्पना कल्पना कुछ भी करता रहे पर पुरुषार्थ की क्षमता के अभाव में कुछ बन नहीं पड़ता। जिसका पुरुषार्थ शिथिल है उसकी क्षमता भी क्या दृष्टिगोचर होगी और सफलता का सुयोग भी कैसे बनेगा।

सृष्टा ने मनुष्य के भीतर विद्यमान देवता को अपना अंशधर होने के कारण समस्त क्षमताओं से सम्पन्न किया है, पर वे बीज रूप में प्रसुप्त स्तर में बनकर रहती है उनके प्रकटीकरण के लिए ऊर्जा की अनिवार्य आवश्यकता है। जलयान, थलयान, वायुयान कितने ही सुनियोजित बने हों, पर उन्हें गतिशील करने के लिए ऐसा ईधन चाहिए जो तदनुरूप ऊर्जा उत्पन्न कर सके। यह सुयोग जैसे ही बनता है वैसे ही वे चलना आरम्भ कर देते हैं। कुशल संचालक उन्हें नियत दिशा में नियत गति से चलाते हुए यथा समय लक्ष्य तक पहुँचाते हैं। यदि ऊर्जा का प्रबन्ध न बन पड़े तो कुशल संचालक एवं त्रुटि विहीन वाहन एक जगह खड़े रहेंगे और वह न कर सकेंगे जो वे कह सकते हैं।

तप का तात्पर्य है- तपाना गरम करना। वह प्रक्रिया रगड़ से उत्पन्न होती है। रगड़ ही अथक और अनवरत श्रम को कहते हैं। समुद्र में अनादिकाल से विपुल सम्पदा भरी पड़ी थी। उससे लाभ लेना तो दूर कोई उससे परिचित तक न था। पर जब देव और दानवों ने मिलकर मंथन का प्रबल पुरुषार्थ किया तो एक से एक अद्भुत चौदह रत्न निकले। जिनके प्रकटीकरण से संसार का काया कल्प ही हो गया।

इसीलिए पुरुषार्थ को ही तप कहा गया है। यह मात्र श्रम भर से सम्पन्न नहीं होता उसके पीछे उच्च उद्देश्य और अटूट साहस एवं विश्वास भी जुड़ा रहना चाहिए। इस त्रिविध संयोग से ही 'तप' बनता है। अन्यथा निरुद्देश्य और उपेक्षापूर्वक श्रम करते रहने पर भी वैसा परिणाम नहीं निकलता जैसा कि तप का सम्भव होता है।

तप अर्थात् तपाना। व्यक्तित्व को तपाने के लिए जिस ऊर्जा की आवश्यकता पड़ती है वह प्रतिरोध से उत्पन्न होती है। सरलता और सुविधा सभी को प्रिय है। इस प्रकार का सुविधा सम्पन्न जीवन जीने से व्यक्ति ठण्डा पड़ता जाता है। उसे निष्क्रिय पड़े लौह खण्ड की तरह जंग खाने लगती है और उपयोगिता चली जाती है। शस्त्रों की धार तेज करने के लिए उन्हें पत्थर पर रगड़ते रहने की निरन्तर आवश्यकता पड़ती है। अन्यथा धार न रहने पर वे देखने दिखाने भर के उपयुक्त रह जाते हैं। प्रहार का चमत्कार नहीं दिखा पाते। मनुष्य को सुविधा सम्पन्न जीवनचर्या से विरत होकर ऐसी रीति-नीति अपनानी पड़ती हैं जिसमें कठिनाइयों से जूझना पड़े। तेजस् उत्पन्न करने का यही तरीका है।

विलासिता शरीर और मन दोनों को क्षीण करती है। असंयमी अपनी शक्ति के भण्डार को चुकाता जाता है और घुन लगी लकड़ी की तरह क्षीण हो जाता है। मन की इस लोलुपता से जो जूझता है और संयमशील जीवन में जिस निग्रह का परिचय देना पड़ता है उसे अपनाता है उसे अपना तेजस् मनोबल निखरता प्रतीत होता है। यही है वह पूँजी जिसके बलबूते कष्टसाध्य लगने वाले कठिन दीखने वाले कार्यों का नियोजन सम्भव होता है। इसलिए व्यक्तिगत जीवन में इन्द्रियजन्य लिप्सा लोलुपता से जूझने के लिए समर्थ बनने वालों को समुचित साहस करना पड़ता है। इतना ही नहीं ऐसे कामों में भी हाथ डालना पड़ता है जो केवल कष्ट साध्य होते हैं वरन् जोखिम भरे भी होते हैं।

संचित कुसंस्कारों की परतें चट्टान जैसी कठोर होती है। उन्हें तोड़े बिना पथरीली जमीन में कुआँ खोदना और शीतल जल प्राप्त कर सकना सम्भव नहीं होता। भूमि से प्राप्त करते समय सभी धातुएँ कच्ची मिश्रित एवं अनगढ़ होती हैं उन्हें शुद्ध करने के लिए तीव्र तापमान वाली भट्टी में तपाना पड़ता है। इसके उपरान्त यदि उससे उपकरण या आभूषण बनाने हों तो दूसरी बार तपाने और उपयुक्त साँचे में ढालने की आवश्यकता होती है। यही बात मनुष्य के सम्बन्ध में भी है। उसे अनुपयुक्तता के विरुद्ध संघर्ष करना होता है। अपने अनगढ़ स्वाभाव के विरुद्ध तनकर खड़ा होना होता है। शिथिलता बरतने वाले लिप्साओं से छुट नहीं पाते और उस तेजस्विता को अर्जित नहीं कर सकते जो उच्चस्तरीय आदर्शवादी प्रयोजन पूरे करने के लिए प्रचुर परिमाण में आवश्यक होती हैं।

ईश्वर के अनुग्रह से सकल कामनाओं की पूर्ति की बात कही जाती है। वह ईश्वर तप ही है जो मनुष्य को उठाता, सशक्त बनाता योग्यता प्रदान करता और कठिन कामों को सरल बनाते हुए असम्भव लगने वाले प्रयोजनों तक सम्भव बनाते हुए कृत कार्य बनाता है। नीचे कुछ पाप नाशक एवं शक्तिवर्धक तपश्चर्याएँ की जा रहीं है जिनको अपने साधना क्रम में सम्मिलित रखना हर साधक के लिए अनिवार्य


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