गायत्री की पंचकोशी साधना एवं उपलब्धियां

उपवास से सूक्ष्म शक्ति की अभिवृद्धि

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आम धारणा है कि मनुष्य का जीवन-व्यापार भोजन और वायु पर निर्भर है। ये न मिलें तो उसका जीवित रहना असम्भव है, किन्तु सूक्ष्म दृष्टा जानते हैं कि जीवन का मूल वह प्राण-शक्ति है जो अनन्त अन्तरिक्ष में सर्वत्र व्याप्त है, जिसे कतिपय लोग आकाश तत्व के नाम से भी सम्बोधित करते हैं। जीवन-संचालन के लिए इसकी उपयोगिता वायु की अपेक्षा कहीं अधिक है। वस्तुत: आकाशतत्व् को प्राणशक्ति का प्रतीक-प्रतिनिधि कहना अधिक उपयुक्त होगा। जीवधारियों की जीवनी-शक्ति का मुख्य आधार यही है।

उपवास के दौरान इसी प्राणशक्ति को आकाशतत्व के अवगाहन द्वारा अधिकाधिक मात्रा में ग्रहण किया जाता है। इस लिए उच्चस्तरीय साधनाओं जप-अनुष्ठानों पर्व त्योहारों में उपवास की महत्ता पर विशेष बल दिया गया है। यों तो उपवास का भावार्थ है- पाचन संस्थान को विश्राम देना और संचित मल का निष्कासन करना पर यदि इसके शब्दार्थ पर विचार करें तो अर्थ होगा समीप रहना। समीप किसके ? यहाँ अभिप्राय-उस सूक्ष्म प्राण सत्ता के सान्निध्य से है जो प्राणियों के जीवन का मूलभूत कारण है। पेट को खाली रखते हुए आकाशतत्व के माध्यम से उसका अधिकतम लाभ उठाने का ही निर्देश इस शब्द में निहित है। धर्मानुष्ठानों में साधना-विधानों में इसी कारण इसे एक अनिवार्य अनुबन्ध के रूप में सम्मिलित किया गया है ताकि इसके अतिरिक्त लाभ लिया जा सके। प्राय: साधना-अनुष्ठानों का मुख्य उद्देश्य जीवन को अधिक प्रखर अधिक समर्थ बनाना होता है। इसे उपवास द्वारा अदृश्य आकाशतत्व में विद्यमान सूक्ष्म शक्तियों को आत्मसात कर अधिक सरलतापूर्वक सम्पन्न किया जा सकता है। यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि पेट जितना खाली रखा जा सके उतना ही आकाशतत्व को अधिक मात्रा में उपलब्ध कर सकने की सम्भावना रहेगी और उसी अनुपात में हम लाभान्वित भी हो सकेंगे।

इसे देव संस्कृति में ही इतना मह्त्त्व मिला हो ऐसी बात नहीं है। अन्य धर्म-सम्प्रदायों में भी उपवास का अपना विशिष्ट स्थान है। मुसलमानों में रमजान के महीने में रोजा रखने का विधान है। कहा जाता है कि मोहम्मद साहब को तीस दिन की उपवास युक्त साधना के उपरान्त हो दैवी शक्तियों का साक्षात्कार हुआ था। ईसामसीह के बारे में भी विख्यात है कि ४० दिन की उपवास-तपश्चर्या के पश्चात् ही उन्हें दिव्य अनुभूतियाँ हुई थी। ईसाई धर्म में अब भी ''लेण्ट'' के रूप में ईस्टर पर्व से पूर्व चालीस दिन का उपवास रखने की प्रथा- परम्परा है। इसमें व्रतधारी उपवास करता हुआ अपने पापों का प्रायश्चित करता है। ईसाई समुदाय में ऐसी मान्यता है कि इस प्रक्रिया दारा व्यक्ति के सारे पाप धुल जाते हैं। जैन धर्म में व्रत उपवास पर्यूषण पर्व के रूप में मनाया जाता है। यहूदी, बौद्ध, सिण्टो, ताओ, आदि धर्मों में भी किसी न किसी रूप में साधना विधानों के अन्तर्गत उपवास किये जाने की परम्परा अभी भी जीवित है।

जीवन के लिए वैसे तो पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु एवं आकाश पाँचों तत्व ही आवश्यक हैं, किन्तु इनमें सूक्ष्म प्राण की मात्रा क्रमश: अधिक होती जाती है। इस दृष्टि से आकाशतत्व की महत्ता एवं उपयोगिता बढ़ जाती है। उपवास के दिनों में इसकी अभिवृद्धि का अनुभव हर व्यक्ति अपने अन्दर कर सकता है। इन दिनों विचारणा- शक्ति अपेक्षाकृत अधिक समर्थ व सशक्त बन जाती है। श्रवणेन्द्रियो एवं घ्राणेन्द्रियों की संवेदनशीलता बढ़ पाती है। यहाँ तक कि मन भी सात्विकता की ओर मुड़ पड़ता है। पहले जिसका सुस्वादु व्यंजन की ओर मन ललकता था बाद में उसे सादा भोजन भी रुचिकर लगने लगता है। सूझ- बूझ प्रत्युत्पन्नमति कल्पनाशक्ति स्मरणशक्ति आदि में भी स्पष्ट बढ़ोत्तरी दृष्टिगोचर होती है। अमेरिका के प्रसिद्ध साहित्यकार अपटान सिन्क्लेयर का इस सम्बन्ध में व्यक्तिगत विचार है कि इससे जहाँ शरीर में ताजगी और स्फूर्ति महसूस होती है, वहीं मन में उत्साह और उल्लास उमड़ता रहता है। पढ़ाई में ध्यान रमता है एवं एकाग्रता बढ़ने लगती है। यह सब परिवर्तन प्रकारान्तर से उपवास के मध्य शरीर में आकाशतत्व की अभिवृद्धि से। ही अनुभव होते हैं।

महात्मा गाँधी ने आत्म शोधन एवं आध्यात्मिक शक्ति-सम्पादन हेतु उपवास को एक महत्त्वपूर्ण उपकरण बताया था और समय-समय पर वे इसका लाभ भी उठाते रहते थे। सामान्य व्यक्ति भी सुविधानुसार साप्ताहिक, पाक्षिक, या मासिक उपवास करता रहकर शरीर व मन शोधन का उभयपक्षीय लाभ हस्तगत कर सकता है। वर्ष में दो बार नवरात्रि उपवास कर लेने एवं आहार-विहार का संतुलन बिठाये रखने से हर व्यक्ति अपने शरीर व मन को स्वस्थ निरोग बनाये रह सकता है। कुछ लोगों की मान्यता है कि एक दिन भोजन नहीं करेंगे तो कमजोर हो जायेगें, पर वस्तुत: ऐसी बात नहीं है। शरीर में जो विजातीय द्रव्य रहते हैं, उपवास के दौरान उनका निष्कासन होने लगता है जीवनी-शक्ति इसी दिशा में उन दिनों व्यय होने लगती है फलतः आरम्भ में कुछ कमजोरी लगना स्वाभाविक है मगर यह स्थिति अधिक दिन तक नहीं बनी रहती है। जल्द ही शरीर अपने स्वाभाविक क्रम में आ जाता है। इस मध्य काया में कुछ क्षीणता अवश्य आ जाती है, किन्तु स्थूलता घटने के साथ- साथ झूम शक्तियों का भी प्रादुर्भाव होता है। मुखमण्डल में ओजस-तेजस बढ़ जाते हैं। रोगी का दुर्बल शरीर थका-थका सा मलीन और निस्तेज दिखाई पड़ता है जबकि साधक के शरीर और चेहरे पर चमक होती है। उसका, खाली पेट रहना उद्देश्यपूर्ण होता है। उसके साथ उसका संकल्प बल और लक्ष्य जुड़ा होता है अत: हाथों हाथ उसका सत्परिणाम भी ओजस-तेजस वर्चस से अभिवृद्धि के रूप में मिलता है, जबकि मरीज को निराहार स्थिति मजबूरी वश होती है। उसके मन में इसके प्रति न संकल्प होता है न उमंग- उत्साह जिससे इस दौरान उसकी शारीरिक क्षमता घटती प्रतीत होती है। निरुद्देश्य अथवा अंभाववश भूखे रहने वाले उपवास के आध्यात्मिक लाभ से सदा वंचित रह जाते हैं।

इस तथ्य को हमारे ऋषियों ने भली प्रकार समझा था। उन्होंने हर महीने कई उपवासों का धार्मिक महत्त्व स्थापित किया था।


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