गायत्री की पंचकोशी साधना एवं उपलब्धियां

रस साधना

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जो फल आपको सबसे स्वादिष्ट लगता हो उसे इस  साधना के लिए लीजिए। जैसे आपको कलमी आम  अधिक रुचिकर है, तो उसके छोटे-छोटे पाँच टुकड़े  कीजिए। एक टुकड़ा जिह्वा के अग्रभाग पर एक मिनट  तक रखा रहने दें और उसके स्वाद का स्मरण इस  प्रकार करें कि बिना आम के भी आम का स्वाद जिह्वा को  होता रहे। दो मिनट में वह अनुभव शिथिल होने लगेगा,  फिर दूसरा टुकड़ा जीभ पर रखिये और पूर्ववत् उसे फेंक  कर आम के स्वाद का अनुभव कीजिए। इस प्रकार पाँच  बार करने में पन्द्रह मिनट लगते हैं।

धीरे- धीरे जिह्वा पर कोई वस्तु रखने का समय  कम करना चाहिए और बिना किसी वस्तु के रस के  अनुभव करने का समय बढ़ाना चाहिए। कुछ समय  पश्चात् बिना किसी वस्तु को जीभ पर रखे भी केवल  भावना मात्र से इच्छित वस्तु का पर्याप्त समय तक  रसास्वादन किया जा सकता।

शरीर के लिए जिन रसों की आवश्यकता है, वे  पर्याप्त मात्रा में आकाश में भ्रमण करते रहते हैं। संसार में  जितने पदार्थ हैं उनका कुछ अंश वायु रूप में, कुछ तरल  रूप में और कुछ ठोस आकृति में रहता है। अन्न को हम  ठोस आकृति में ही देखते हैं। भूमि में, जल में वह परमाणु  रूप से रहता है और आकाश में अन्न का वायु अंश उड़ता  रहता है। साधना की सिद्धि हो जाने पर आकाश में उड़ते  फिरने वाले अन्नों को मनोबल द्वारा, संकल्प-शक्ति के  आकर्षण द्वारा खींचकर उदरस्थ किया जा सकता है।  प्राचीनकाल में ऋषि लोग दीर्घकाल तक बिना अन्न जल  के तपस्यायें करते थे। वे इस सिद्धि द्वारा आकश में से ही  अभीष्ट आहार प्राप्त कर लेते थे, इसलिए बिना अन्न  जल के भी उनका काम चलता था। इस साधना का  साधक बहुमूल्य पौष्टिक पदार्थ, औषधियों एवं स्वादिष्ट  रसों का उपभोग अपने साधन बल द्वारा ही कर सकता है  तथा दूसरों के लिए वह वस्तुयें आकाश में उत्पन्न करके  इस तरह दे सकता है, मानो किसी के द्वारा कहीं से  मँगाकर दी हों।


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