गायत्री की पंचकोशी साधना एवं उपलब्धियां

सूक्ष्मीकरण की अनेक गुनी सामर्थ्य

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पत्थर का कोयला जलायें जाने पर छोटे मोटे काम कर सकता है। हलवाई की अंगीठी में वह दिन भर जलता रहता है। उसकी सामर्थ्य इतनी भर है कि थोड़े से पकवान भर बना सके। अंगीठी के ऊपर लोहे का तवा रख दिया जाय या जरा सा पानी डाल दिया जाय, तो उसके बुझने में भी देर नहीं लगती।

पानी का क्या मूल्य है, यह सभी जानते हैं। जमीन पर फैला देने पर मिट्टी उसे सोख लेती है। धूप में रखा रहने दिया जाय तो वह भाप बनकर उड़ जाता है। कोयले की आग और बाल्टी का पानी बाजार भाव की दृष्टि से अपना कोई मूल्य नहीं रखते, पर जब विधि विशेष से रेलगाड़ी के इन्जन में इन दोनों का संयोग मिलाकर भाप बनाई जाती है और उसे इधर उधर छितराने न देकर इन्जन के पिस्टन के साथ सम्बद्ध किया जाता है तो उतने भर से शक्तिशाली इन्जन दौड़ने लगता है। न केवल स्वयं दौड़ता है वरन् अपने साथ भारी बोझ से लदे हुए ढेरों डिब्बों को भी द्रुतगति से घसीटता ले जाता है। यही है सूक्ष्मीकरण का प्रयोग जिसकी सामर्थ्य देखते हुए दाँतों तले उंगली दाबकर रह जाना पड़ता है।

आग और पानी जैसे स्वल्प मूल्य की वस्तुओं की तरह ही जौ, चावल, गुड़ जैसी वस्तुऐं भी हैं, जिनका बाजार भाव अत्यन्त स्वल्प है। इन्हें मिलाकर विधि विशेष से भाप बनाने पर शराब बन जाती है। उसकी सामर्थ्य देखते ही बनती है। थोड़ी मात्रा में पीने पर भी नशे में धुत्त कर देती है। आदमी होशो-हवास खो बैठता है और उन्मादियों जैसी चेष्टाऐं करता है। इसकी मात्रा अधिक पी ली जाय तो प्राण जाने का संकट सामने आ खढा़ होता है। अलग अलग अपनी स्वाभाविक स्थिति में इन वस्तुओं का क्या मूल्य है ? किन्तु इनका प्रयोग विशेष ऐसे चमत्कारी परिणाम दिखाता है कि आश्चर्य से चकित होना पड़ता है। संक्षेप में यही है सूक्ष्मीकरण का प्रयोग।

मनुष्य क्या है ? उसकी सत्ता नगण्य है। शरीर को मलमूत्र की गठरी सच ही कहा जाता है। वह जिन पदार्थो से मिलकर बना है। उनका बाजारू मोल छः रुपए से अधिक नहीं है। अब प्राण का लेखा जोखा लिया जाय। आमतौर से उसे प्राण वायु कहा जाता है वायु अर्थात् सांस गरदन दबाकर साँस चलना रोक दिया जाय तो पाँच मिनट के भीतर प्राण निकल जाते हैं और चलती हुई मशीन देखते-देखते ठण्डी पड़ जाती है। ऐसे भी कोई ठिकाना नहीं कि न जाने कब सांस चलना बन्द हो जाय और अच्छे खासे आदमी का दम निकल जाय। किन्तु प्राण और, शरीर के सम्मिश्रण से जो जीवन बनता है उसकी सामर्थ्य का क्या ठिकाना ? महामानवों के जीवन कितने महत्वपूर्ण होते हैं यह उनके व्यक्तित्व और कर्तृत्च को देखकर अनुमान लगाया जा सकता है।

प्रतिभा सूक्ष्म शक्ति का ही एक ब्राह्म रूप है। कितने ही लोगों में ऐसी आकर्षण शक्ति होती है जो दूसरों को अपनी ओर खींच लेती है। इसका सौन्दर्य से सीधा सम्बन्ध नहीं है। कुछ नर नारियों की नख-शिख बनावट ऐसी होती है जो आँखों को सुहाती हैं पर प्रतिभा के अभाव में दूसरों को आकर्षित करने की क्षमता का अभाव रहता है। कई लोगों में डरावनी प्रतिभा होती है। डाकुओं के शरीर सामान्य होते हैं पर उनकी प्रतिभा ऐसी होती है जिससे सामने वालों को हक्का-बक्का कर देते हैं। यह उनके अन्तरंग की विशेषताऐं हैं। इनका रूप सौन्दर्य से सीधा सम्बन्ध नहीं है। कई कुरूप भी प्रभावशाली होते हैं और कई रूपवान भी जहाँ जाते हैं, उपेक्षा के भागी बनते हैं।

सूक्ष्मीकरण का सम्बन्ध सूक्ष्म शरीर से है। दृश्य शरीर हाड़-मांस का होता है। इसमें देखने योग्य, आँख, दाँत, होंठ, चेहरा आदि होते हैं। हाथ, पैर, मांसपेशियाँ भी स्थूल शरीर की बनावट से ही सम्बन्धित हैं। किन्तु सूक्ष्म शरीर के साथ प्राण शक्ति प्रतिभा जुड़ी होती है। षट्चक्र, उपत्यिकाऐ, कुण्डलिनी, आदि का सम्बन्ध सूक्ष्म शरीर से है। उनके भीतर विशेष प्रकार की विद्युत् शक्ति होती है। इस विशेष क्षमता के सहारे मनुष्य का भला या बुरा व्यक्तित्व भीतर से बाहर उभर कर आता है।

हर वस्तु में सूक्ष्म शक्ति होती है। उसे उभारने के लिए विशेष प्रयोग करने पड़ते हैं। धातुऐं बाजार से मोल पर खरीदी जा सकती हैं। पर उनका खाने में प्रयोग नहीं हो सकता है। किन्तु जब उनका शोधन, मारण, जारण किया जाता है तो बहुमूल्य भस्में बन जाती है। लोह भस्म, स्वर्ण भस्म, आदि सूक्ष्म स्वरूप हैं। वे खाने में काम आती हैं। पच भी जाती हैं। उनके चमत्कारी परिणाम भी होते हैं। पारा ऐसी धातु है जिसे कच्चा खा लेने पर देह में से फूट निकलता है। उसकी संज्ञा विष में गिनी जाती है। अन्य विष भी शोधन करके औषधि रूप बन जाते हैं। पारा मकरध्वज बन जाता है जिसे अत्यन्त शक्तिशाली टॉनिक कहा जाता है। सूक्ष्मी-करण से कितनी ही वनौषधियों को विशेष प्रयोग से अमृतोपम बनाया जाता है। छोटी पीपल को विभिन्न रसों के पुट देकर ६४ पहर (आठ दिन) लगातार घोटते हैं। बीच में विराम का अवसर नहीं आने देते। इस प्रकार वह पीपल भी इतनी गुणकारी हो जाती है कि अनुपान भेद से उसे शत रोग निवारिणी बना लिया जाता है।

डीरोन औषधि विक्रेता भी यही करते हैं। वे एक वनौषधि की लगतार इतनी अधिक घुटाई पिसाई करते हैं कि मूल औषधि की तुलना में उसके गुण बहुत अधिक बढ़ जाते हैं।

होम्योपैथी के सिद्धान्तों में भी सूक्ष्मीकरण को विधा काम करती है। साधारण वस्तुओं को वे इतनी अधिक पोटेन्सी की बना देते हैं कि इनका मदर टिंचर शक्कर या पानी में मिलाए जाने पर और अधिक सामर्थ्यवान बनता जाता है।

यही बात मनुष्यों के सम्बन्ध में भी है। सामान्य स्थिति में वे सामान्य स्तर के मनुष्य ही होते हैं। पर यदि उनकी प्रसुप्त क्षमताओं को किसी साधना या विधि विशेष से सूक्ष्म शक्ति सम्पन्न बना लिया जाय तो फिर वे असाधारण हो जाते हैं और ऐसी सामर्थ्य का परिचय देते हैं जिसे अद्भुत कहा जा सके।

तन्त्र या योग के माध्यम से मनुष्य के स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों को विशिष्ट सामर्थ्य सम्पन्न बनाया जाता है। किसी देवी देवता की सिद्धि में किसी बाहर की सामर्थ्य को आकर्षित करके धारण करने की बात भ्रान्ति पूर्ण है। मनुष्य के शरीर के भीतर ही ऐसी सामर्थ्यं विद्यमान हैं, जिन्हें देवी देवता का नाम दिया जा सके। वे हमारे स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों में विद्यमान हैं। पर रहती प्रसुप्त स्थिति में हैं। इन्हें जागृत किया जा सके तो सात्विक अथवा तामसिक प्रकृति के देवी देवता अपने भीतर से ही जागृत हो जाते हैं और ऐसे काम करने लगते हैं मानो उन्हें कहीं बाहर से बुलाया या बशवर्ती किया गया है।

छाया पुरुष सिद्धि का विज्ञान एवं विधान जिन्हें मालूम है, वे जानते हैं कि ठीक अपनी ही जैसी आकृति-प्रकृति का एक अन्य देवता सिद्ध हो जाता है और वैसे ही काम करने लगता है मानो अपने ही जैसा एक दूसरा शरीर-धारी, भूत-प्रेत अपने साथ रहता हो और आज्ञानुवर्ती काम करता हो। इसमें अपनी ही छाया की साधना करनी पड़ती है। अपना शरीर यथावत् रहते हुए भी छाया की सिद्धि होने पर एक दूसरी शक्ति साथ रहने और काम करने लगती है। यही बात अन्य देवी देवताओं के सम्बन्ध में भी है। वे भीतर से उदय होते हैं, कहीं बाहर से नहीं आते। तामसिक तत्व भी अपने भीतर है और राजसिक सात्विक भी। उनकी उपासना करने में उसी स्तर के देवताओं के दर्शन होने लगते हैं। किन्तु वह झाँकी मात्र ही होती है। उनमें शक्ति सामर्थ्य उसी स्तर की होती हैं जितना कि साधक का व्यक्तितत्व होता है। झलक झाँकी देखने से कौतूहल का समाधान भर होता है पर उस देव दर्शन से कुछ काम नहीं बनता। वे इतने समर्थ नहीं होते कि कुछ प्रयोजन सिद्ध कर सकें। इसके नए देव उपासना मात्र पर्याप्त नहीं। साधक को अपना निजी व्यक्तित्व सबल समर्थ बनाना होता है। क्योंकि शक्ति भीतर से उगती है। बाहर की वस्तुऐं जिनमें देवता भी सम्मिलित हैं, झलक झाँकी दिखाकर तिरोहित हो जाती हैं। छाया पुरुष के सम्बन्ध में यह बात नहीं है। वह प्राय: अपने ही सदृश्य होता है। उसमे बल, पराक्रम प्राय: अपने जितना ही होता है।

विक्रमादित्य के पाँच वीर सिद्ध थे। यह उसके ही पाँच कोश थे। वह स्वयं जितना पराक्रम कर सकता था पाँचों वीर उतना उतना ही कर कार्य करते थे। अन्तर केवल इतना ही होता था कि अदृश्य छाया पुरुषों के लिए चर्म शरीर के साथ जो बन्धन होते हैं वे नहीं होते। चर्म शरीर एक धण्टे में तीन मील चलता है पर अदृश्य शरीरों के लिए ऐसा बन्धन नहीं। वह एक घण्टे में पचास मील या अधिक भी चल सकता है। दृश्य शरीर की गतिविधियाँ दूसरों के चर्म चक्षु प्रत्यक्ष देखते हैं किन्तु वीर स्तर के उत्पन्न किए गये सहयोगी अदृश्य रहने के कारण अपने काम तो करते रहते हैं किन्तु वे काम दूसरों को दृष्टिगोचर नहीं होते। प्रत्यक्ष शरीर इन्द्रियों के माध्यम से अपना प्रभाव दूसरों तक पहुँचाते हैं। कान के माध्यम से अपनी बात सुनाते हैं। आँख से देखने से घटनाक्रम का प्रभाव दूसरों तक पहुँचाते हैं। किन्तु अदृश्य शरीर बिना वाणी सुनाए या घटना दिखाए भी दूसरे के मन पर अपनी छाप छोड़ सकते हैं। दृश्य शरीर की प्रभाव शक्ति उतने ही लोगों तक सीमित होती है जो प्रभाव परिधि की सीमा में होते हैं। आँख से देखने और कान से सुनने वालों की संख्या एक सीमा तक ही है। दृश्य शरीर उतनी परिधि को ही प्रभावित करता। किन्तु अदृश्य शरीर के लिए ऐसा कोई बन्धन नहीं हैं। वह दो पाँच हजार को भी एक साथ प्रभावित कर सकता है। जो बात कहनी हैं सुनानी है उसे बिना कानों की सहायता के भी सीधे मस्तिष्क तक पहुँचा सकता है अन्तःकरण की गहराई तक उतार सकता है। इस प्रकार अदृश्य होने के कारण उसका कार्य क्षेत्र, प्रभाव क्षेत्र सैकडों गुना अधिक बढ़ जाता है। इतने पर भी यह बात समझ रखने की है कि मूल व्यक्तित्व जितना समर्थ एवं प्रभावी होगा अदृश्य शरीर की कार्य शक्ति न्यूनाधिक उसी के समतुल्य होगी। विक्रमादित्य का प्रत्यक्ष व्यक्तित्व जितना बलिष्ठ था उसके उपार्जित पाँचों वीरों में से प्रत्येक उतना उतना ही पुरुषार्थ कर सकने में समर्थ थे। कोई घटिया स्तर का व्यक्ति उपासना विशेष के विज्ञान का आश्रय लेकर अपने छाया पुरुष उपार्जित करले तो उनकी सामर्थ्य उतनी ही स्वल्प होगी। वे दूसरों पर उतना ही सीमित प्रभाव छोड़ सकेंगे।

अलाउद्दीन के चिराग की कथा जिसने सुनी है, वे उसकी वास्तविकता जानना चाहें तो सम्भवत: यह ज्ञात हो कि चालीसों उसे चोरी, उठाईगीरी के काम में ही मदद कर पाते होंगे। वे ऐसे उच्चस्तरीय कार्य करने में समर्थ नहीं रहे होंगे जैसे कि ऋषि मुनि कुरते थे या करना चाहते थे। क्योंकि मूल अलाउद्दीन ने जिस ढाँचे में अपना व्यक्तित्व ढाला था सकी अनुकृतियाँ उनसे भिन्न प्रकार का स्तर अपनाने में समर्थ नहीं हो सकती थी। तान्त्रिक साधना करने वालों को श्मशान सेवन, अघोरी आचरण का बहुत पहले ही अभ्यास करना होता है। जब उस कापालिक स्तर की प्रक्रिया उसकी नस नस मैं भर जाती है तभी वे भूत, प्रेत, चुड़ैल, डाकिन, जिन्न, मसान स्तर के भयावह कृत्य कर सकने में समर्थ होते हैं। यही बात देवोपम कृत्यों के बारे में है। योगीजन अपने व्यक्तित्व को उपवास, ब्रह्मचर्य धारणा, ध्यान, पुण्य, परमार्थ के कृत्यों में लगाए रहते हैं। इन कार्यों में उनकी गति जितनी गहरी होती है उसी अनुपात से उनकी अनुवृतियाँ छाया शक्तियाँ विशिष्ट कार्य करने में समर्थ होती हैं।

सिद्ध पुरुषों की ऋद्धि सिद्धियाँ वस्तुतः उनके मूल व्यक्तित्व के अनुरूप ही होती हैं। कितने ही सिद्ध पुरुष बाजीगर जैसे कौतुक भरे दृश्य दिखा सकते हैं पर उनके अतिरिक्त कोई प्रत्यक्ष लाभ बड़ी मात्रा में किसी को नहीं दे सकते। हवा में हाथ मारकर लौंग इलायची मँगाकर किन्हीं को उसके दस पाँच नग ही वे दे सकते हैं। एक बोरी लौंग एक बोरी इलायची मँगाकर किसी को वे हजारों रुपए का लाभ तत्काल करा सकें ऐसा नहीं हो सकता। कई आकृतियाँ दिखा सकना, गाय बैल के झुण्ड सामने दीखने लगना, यह हो सकता है, पर वे बैल हल खींचने लगें और गायें दूध देने लगें यह नहीं हो सकता। क्योंकि उस सिद्ध पुरुष के मूल शरीर में बैलों की तरह हल जीतने की सामर्थ्य नहीं होती। यदि उनमें उतनी क्षमता रही होती तो वे जादुई बैल हल जोतने गाड़ी खींचने का लाभ दे सकने में भी अवश्य ही समर्थ रहे होते। जिन्हें मात्र कौतुहल उत्पन्न करना है, सस्ती वाहवाही लूटनी है। पर जिन्हें अपने प्रत्यक्ष व्यक्तित्व के समतुल्य अदृश्य साथी उत्पन्न करने हैं। वे सर्व प्रथम अपनी मूल सत्ता को तदनुरूप बनाते हैं। इसी सफलता के ऊपर यह निर्भर है कि वे कितने साथी उत्पन्न कर सकते हैं। विक्रमादित्य पाँच वीर ही उत्पन्न कर सके यही उनकी चरम सीमा थी। यदि वे दस उत्पन्न करते तो उनमें नाम मात्र की शक्ति होती। संख्या की दृष्टि से दस होने पर भी वे पाँच के बराबर भी काम न कर पाते। साथ ही यह बात भी थी कि विक्रमादित्य जैसे योद्धा के, शासक के गुण थे वे वीर भी इन्हीं कामों को कर सकते थे। किसी ऋषि की भूमिका निभा सकना उनके बस की बात न थी।

हमारे सूक्ष्मीकरण प्रयोग के पीछे भी यही तथ्य काम करता रहा है। हमने ७५ वर्षों में एक विशेष क्षमता सम्पन्न व्यक्तित्व विनिर्मित किया है और प्रत्यक्ष शरीर से १० ऋषियों की भूमिका निभाई है। व्यास की लेखनी, पातंजलि का योगाभ्यास, चरक का वनौषधि विज्ञान एवं याज्ञवल्क्य का यज्ञ विज्ञान, नारद का प्रचार तन्त्र अपनाया है। विश्वामित्र की तरह गायत्री के दृष्टा बने हैं। पर इन सब वीरों में हमारी अर्जित शक्ति का एक-एक अंश ही आ सका है। एक ही समग्र शक्ति में से यह विभाजन हुए हैं। यदि एक काम में पूरी शक्ति लगी होती तो उसके परिणाम भी आश्चर्य जनक होते। अब पांच गुने व्यक्तित्व की सम्भावना सामने है। पाँच कोशों को समूचा व्यक्तित्व समझा जा सकता है। गायत्री की पंचमुखी साधना में अन्नमय कोश, प्राणमय कोश, मनोमय कोश, विज्ञानमय कोश, आनन्दमय कोश यदि ठीक तरह विकसित किए जा सकें तो पाँच स्वतन्त्र व्यक्तित्व विकसित होते हैं और वे अदृश्य स्तर के रहने के कारण दृश्यमान पाँच शरीरों की अपेक्षा पाँच गुना अधिक कार्य कर सकते हैं। सूक्ष्मीकरण प्रयास का तात्पर्य यही है। अब तक हम जो काम करते रहे हैं, उनमें अनेक गुनी क्षमताओं का समावेश होने से सफलता भी अनेकों गुनी होगी। दृश्य से अदृश्य की क्षमता अनेक गुनी अधिक जो होती है।

स्थूल शरीर की तुलना में सूक्ष्म और सूक्ष्म के कारण शरीर की सामर्थ्य कहीं अधिक है। सूक्ष्म शरीर की शक्तियाँ प्रसुप्त स्थिति में पड़ी रहती हैं। उन्हें साधना के माध्यम से जगाया उभारा जा सके तो मनुष्य अतीन्द्रिय शक्ति सम्पन्न बन सकता है। कारण शरीर जीवात्मा की क्रीडा स्थली है। परमात्मा की दिव्य अनुभूतियाँ इसी क्षेत्र में रमण करती हैं। उनका जागरण सम्भव हो सके तो प्राप्त उपलब्धियों से अपना ही नहीं दूसरों का भी हित साधना सम्भव है।


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