गायत्री की पंचकोशी साधना एवं उपलब्धियां

उपवास के प्रकार

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उपवासों के पाँच भेद होते हैं (१) पाचक (२) शोधक (३) शामक (४) आनस (५) पावक। पाचक उपवास वे हैं, जो पेट के अपच, अजीर्ण, कोष्ठबद्धता को पचाते हैं। शोधक वे हैं जो रोगों को भूखा मार डालने के लिये किये जाते हैं, इन्हें लंघन भी कहते हैं। शामक वे हैं जो कुविचारों, मानसिक विकारों, दृष्प्रवृत्तियों एवं विकृत उपत्यिकाओं का शमन करते हैं। आनस वे हैं जो किसी विशेष प्रयोजन के लिए दैवी शक्ति को अपनी ओर आकर्षित करने के लिये किये जाते हैं। पावक वे हैं जो पापों के प्रायश्चित के लिये होते हैं। आत्मिक और मानसिक स्थिति के अनुरूप कौन सा उपवास उपयुक्त होगा और उसके क्या नियमोपनियम होने चाहिए इसका निर्णय करने के लिये सूक्ष्म विवेचना की आवश्यकता है।

साधक का अन्नमय कोश किस स्थिति में है ? उसकी कौन उपत्यिकायें विकृत हो रही हैं ? किस उत्तेजित संस्थान को शान्त करने एवं किस मर्म स्थल को सतेज करने की आवश्यकता है ? यह देखकर निर्णय किया जाना चाहिये कि कौन व्यक्ति किस प्रकार का उपवास कब करे ?     पाचक उपवास में तब तक भोजन छोड़ देना चाहिए जब तक कि कड़ाके की भूख न लगे। एक बार का, एक दिन का या दो दिन का आहार छोड़ देने से आमतौर पर कब्ज पक जाता है। पाचक उपवास में सहायता देने के लिये नीबू का रस, जल एवं किसी पाचक औषधि का सेवन किया जा सकता है।

शोधन उपवासों के साथ विश्राम आवश्यक है। यह लगातार तब तक चलते हैं, जब तक रोगी खतरनाक स्थिति को पार न कर ले। औटाकर ठण्डा किया हुआ पानी ही ऐसे उपवासों में एक मात्र अवलम्ब होता है।

शामक उपवास दूध, छाछ, फलों का रस आदि पतले, रसीले हल्के पदार्थों के आधार पर चलते हैं। इन उपवासों में स्वाध्याय, आत्म-चिन्तन, सेवन, मौन, जप, ध्यान, पूजा, प्रार्थना, आदि आत्मा शुद्धि के उपचार भी साथ में होने चाहिए।

अनास उपवास में सूर्य की किरणों द्वारा अभीष्ट दैवी शक्ति का आह्वान करना चाहिए। सूर्य की सप्तवर्ण किरणों में राहु, केतु को छोड़ कर अन्य सातों ग्रहों की रश्मियाँ सम्मिलित होती हैं। सूर्य में तेजस्विता, उष्णता, पित्त प्रकृति प्रधान हैं। चन्द्रमा शीतल, शान्तिदायक, उज्जवल, कीर्तिकारक। मंगल कठोर, बलवान, सहायक। बुध सौम्य, शिष्ट, कफ प्रधान, सुन्दर, आकर्षक। गुरु विद्या, बुद्धि धन, सूक्ष्मदर्शिका, शासन, न्याय राज्य का अधिष्ठाता। शुक्र बात प्रधान, चञ्चल, उत्पादक, कूटनीतिक। शनि स्थिरता, स्थूलता, सुखोपभोग, दृढ़ता, परिपुष्ट का प्रतीक है। जिस गुण की आवश्यकता हो उसके अनुरूप दैवी तत्वों को आकर्षित करने के लिये सप्ताह में उसी दिन उपवास करना चाहिए। इन उपवासों में लघु आहार उन ग्रहों में समता रखने वाला होना चाहिए उसी ग्रह के अनुरूप रंग की वस्तुयें वस्त्र आदि का जहाँ तक सम्भव हो अधिक प्रयोग करना चाहिए।

रविवार को श्वेत रंग और गाय के दूध, दही का आहार उचित है। सोमवार का पीला रंग और चावल का माड़ उपयुक्त है। मंगल को लाल रंग, भैंस का दही या छाछ। बुध को नीला रंग और खट्ठे-मीठे फल। गुरु को नारंगी रंग वाले मीठे फल। शुक्र को हरा रंग, बकरी का दूध, दही, गुड़ का उपयोग ठीक रहता है। प्रातःकाल की किरणों के सम्मुख खड़े होकर नेत्र बन्द करके निर्धारित किरणें अपने में प्रवेश होने का ध्यान करने से वह शक्ति सूर्य रश्मियों द्वारा अपने में अवतरित होती हैं।

पावस उपवास प्रायश्चित स्वरूप किये जाते हैं। ऐसे उपवास केवल जल लेकर करने चाहिये। अपनी भूल के लिये प्रभू से सच्चे हृदय से क्षमा याचना करते हुए भविष्य में वैसी भूल न करने का प्रण करना चाहिये। अपराध के शारीरिक कष्टसाध्य तितीक्षा एवं शुभ  कार्य के लिये इतना दान करना चाहिए जो पाप की व्यथा को पुण्य की शान्ति के बराबर कर सके। चान्द्रायण व्रत कृच्छ चान्द्रायण आदि ये पावस व्रतों में गिने जाते हैं।

प्रत्येक उपवास में यह बातें विशेष रूप से ध्यान रखने की हैं- १- उपवास के दिन जल बार-बार पीना चाहिये, बिना प्यास के भी पीना चाहिये। २- उपवास के दिन अधिक शारीरिक श्रम न करना चाहिये। ३- उपवास के दिन यदि निराहार न रहा जाय तो अल्प मात्रा में रसीले पदार्थ, दूध, फल आदि ले लेना चाहिये। मिठाई, हलुआ आदि गरिष्ठ पदार्थ भरपेट खा लेने से उपवास का प्रयोजन सिद्ध नहीं हो सकता। ४- उपवास तोड़ने के बाद हल्का शीध्र पचने वाला आहार स्वल्प मात्रा में लेना चाहिये। उपवास समाप्त होते ही अधिक मात्रा में भोजन कर लेना हानिकारक है। ५- उपवास के दिन अधिकांश समय आत्म-चिन्तन, स्वाध्याय या उपासना में लगाना चाहिये।

उपत्यिकाओं के शोधन परिमार्जन और उपयोगीकरण के लिये उपवास किसी विज्ञ पथ-प्रदर्शक की सलाह से करने चाहिये, पर साधारण उपवास जो कि प्रत्येक गायत्री उपासक के अनुकूल होता है, रविवार के दिन होना चाहिए। उस दिन सातों ग्रहों की सम्मिलित शक्ति पृथ्वी पर आती है जो विविध प्रयोजनों के लिये उपयोगी होती है। रविवार को प्रातःकाल स्नान करके या सम्भव न हो तो हाथ-मुँह धोकर शुद्ध वस्त्रों में सूर्य के सम्मुख मुख करके बैठना चाहिये और एक बार खुले नेत्र बन्द कर लेने चाहिए। ''इस सूर्य के तेजपु़ञ्ज रूपी समुद्र में हम स्नान कर रहे हैं, वह हमारे चारों ओर ओत-प्रोत हो रहा है'' ऐसा ध्यान करने से सविता की बाह्य रश्मियाँ अपने भीतर भर जाती हैं। बाहर से चेहरे पर धूप पड़ना और भीतर से ध्यानाकर्षण द्वारा उसकी 'सूक्ष्म रश्मियों को खींचना उपत्यिकाओं को सुविकसित करने में बड़ा सहायक होता है। यह साधना १५- २० मिनट तक की जा सकती है।

उस दिन श्वेत वर्ण की वस्तुओं का अधिक प्रयोग करना चाहिए, वस्त्र भी अधिक सफेद ही हों। दोपहर के बारह बजे के बाद फलाहार करना चाहिये। जो लोग रह सकें वे निराहार रहें, जिन्हें कठिनाई हो वे फल, दूध, शाक लेकर रहें। बालक, वृद्ध, गर्भिणी, रोगी या कमजोर व्यक्ति चावल, दलिया आदि दोपहर को, दूध रात को ले सकते हैं, नमक एवं शक्कर इन दो स्वाद उत्पन्न करने वाली वस्तुओं को छोड़कर बिना स्वाद का भोजन भी एक प्रकार का उपवास हो जाता है। आरम्भ में अस्वाद आहार के आंशिक उपवास से भी गायत्री साधक अपनी प्रवृत्ति को बढ़ा सकते हैं।


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