गायत्री की पंचकोशी साधना एवं उपलब्धियां

छाया पुरुष- हमारा समर्थ सूक्ष्म शरीर

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मरणोत्तर जीवन के उपरान्त कितनी ही आत्माएँ  प्रेत या पितर के रूप में अपने, अस्तित्व का परिचय देती  रहती हैं। पर अन्वेषकों ने ऐसा भी पाया है कि जीवित  व्यक्ति भी अपने ''ईथरीक प्रबल'' का परिचय प्राप्त करते  हैं। इसे पुरातन ग्रन्थों में छाया पुरुष कहा गया है। दर्पण  की सहायता से अपनी काया को एक अन्य काया के रूप  में अनुभव करने से कुछ समय उपरान्त यह छाया पुरुष  न केवल पृथक में दृष्टिगोचर होने लगता है, वरन् कई  बार एक सहायक की तरह हाथ बटाने सहयोग देने में  उसकी सत्ता काम करती हुई दिखाई पड़ती है।

यह छाया पुरुष अपना ही सूक्ष्म शरीर है जो जीवन  काल में आमतौर से काया के साथ गुँथा रहता है और  उसका परिचय यदा-कदा ही मिलता है। कई बार ऐसे  स्वप्न आते हैं कि हम कहीं गये हैं या कोई हमारे पास  आया है। उनमें जो वार्तालाप हुआ है वह सर्वथा सार्थक  था। बताई या देखी हुई घटनाएँ सर्वथा सही निकली।

मृतात्माओं से सम्बन्ध बनाना, उनसे वार्त्तालाप  करना या सहयोग लेना पूर्णतया अपने हाथ में होता।  इसमें उन आत्माओं का सहयोग भी चाहिए। वे अन्यत्र  जन्म ले चुकी हों या सहयोग न करना चाहें तो वे प्रयोग  सफल नहीं होते। पर अपने ही छाया पुरुष को साधने का  अभ्यास किया जाय तो उनकी सत्ता का परिचय तो मिलने  ही लगता है। वह क्या सहयोग कर सकता है, यह इस  बात पर निर्भर रहता है कि उसके पीछे आत्मबल का  कितना अनुपात है।

ऐसी घटनाएँ तो पूर्वकाल में भी घटित होती थीं पर  उन्हें मति विभ्रम (इल्युजन) या दिवा स्वप्न कह कर  टाल दिया जाता था। पर अब चूँकि इस विषय पर व्यापक  खोज-बीन होने लगी है और परा मनोविज्ञानियों ने ऐसे  घटनाक्रम का संकलन और पर्यवेक्षण करना आरम्भ  किया है तो प्रतीत हुआ कि यह भी अन्तराल की एक  विशेष क्षमता है। कितने ही व्यक्ति अदृश्य दर्शन, भविष्य  कथन आदि की क्षमताएँ विशेष प्रयत्नपूर्वक अर्जित करते  है पर कितने ही ऐसे भी होते हैं जिनमें ऐसी अद्भुत  क्षमताएँ अनायास ही उभर आती हैं। भारतीय मान्यताओं  के आधार पर यह किसी पुरातन अभ्यास का प्रतिफल  होना चाहिए। जो पुनर्जन्म पर विश्वास नहीं करते, वे  भी मनुष्य को अति मानवी-अतीन्द्रिय क्षमताओं को अनेक  प्रमाणों के आधार पर मान्यता देते हैं। उनका विचार है  कि कुछ व्यक्तियों में ऐसा उभार अनायास भी हो सकता  है। भले ही उसका कारण कुछ भी क्यों न हो ?

योग साधना में अन्य देवी- देवताओं या आत्माओं  को सिद्ध करने की अपेक्षा अपने ही छाया पुरुष को  सिद्ध कर लेना अधिक सरल है। भले ही उसकी सामर्थ्य  प्रत्यक्ष शरीर के अनुरूप प्रकृति की सीमा में या स्वल्प ही  क्यों न हो।

जर्मनी के महान् विद्वान जॉन गेटे ने अपने  व्यक्तिगत अनुभव का उल्लेख किया है कि वह अपने मित्र  फ्रेडरिक से मिलने गया। भावनापूर्ण विदाई के उपरान्त  वह वापस लौटा तो उसे बादल में ही वैसे ही घोडे़ पर  सवार अपनी ही छाया चलती दीखी। उसकी पोशाक दूसरे  प्रकार की थी। कुछ वर्ष बाद यह उस मित्र से फिर  मिलने गया तो उसे ठीक वैसी ही पोशाक पहनने का  अनायास सुयोग बन गया जैसा कि उसने पूर्व आगमन के  समय अपने छाया पुरुष को पहने देखा था। परामनोविज्ञानियों ने और भी कितनी ही घटनाएँ  इस सन्दर्भ में नोट की हैं। इनमें एक प० जर्मनी की  कुमारी फ्रेलिक की है जो अपने सूक्ष्म शरीर को आसमान  में उड़ते देखती थी और कहाँ क्या हो रहा है यह देखती  थी। साथ ही स्थूल शरीर को वे पीछे सड़क पर चलते हुए  भी देखती थी। उड़ते हुए उनने जहाँ जो देखा था पीछे  पता लगाने पर वह दृश्य सही पाया गया।

ब्रिटेन की परामनोविज्ञान क्षेत्र की शोधकर्त्री श्रीमती  रोजा ने इस विषय पर जो घटनाएँ घटित होते पाई  उनका वर्णन अपनी पुस्तक "ई० एस० पी०, ए०  पर्सनल मैनुएल" में विस्तारपूर्वक लिखा है। उनका  कथन है कि इसमें कुछ भी आश्चर्यजनक नहीं है। सही  एवं गलत कामों में से एक का चुनाव करते समय जो  अन्तर्द्वन्द्व काम करता है उसमें हमारे दो व्यक्तियों का  परिचय मिलता है। इसी प्रकार सही सिद्ध होने वाले  स्वप्नों में भी प्राय: अपने ही सूक्ष्म शरीर की क्षमता काम  करती है।

इस पतन की गवाहियों में श्रीमती हेवुड का  वर्णन है जिससे उनका छाया पुरुष उनके देखते देखते - अनेक इच्छित काम कर दिया करता था।  इसी सन्दर्भ में एक पुस्तक लिखी है- एडमण्ड गर्नी  ने जिसका नाम है ''फैन्टेमप्र आफ दि लिविंग'' इनमें  उनने ऐसे घटनाक्रमों का उल्लेख किया है कि एक ही  व्यक्ति एक समय में दो जगह दो प्रकार के काम करता  हुआ देखा गया।

नार्वे में ऐसे अनेक जन श्रुतियों प्रचलित हैं जिनमें  छाया पुरुषों के कारण सम्पन्न हुए क्रिया-कलापों का  मनोरंजक वर्णन है। वहाँ इन्हें पूर्णसत्य न सही अर्द्ध सत्य तो माना ही जाता है इसी प्रकार योरोप के कई देशों  में ऐसी गाथाओं की पुष्टि कई प्रामाणिक व्यक्ति भी करते  देखे गये हैं जो मरणोत्तर जीवन में न सही जीवन काल में  मनुष्य के दुहरे व्यक्तित्व की साक्षी देते हैं।

इंग्लैण्ड के पादरी चार्ल्स इवीडल ने अपनी पुस्तक  ''मेन्स सर्वाइवल आफ्टर डेथ'' में जहाँ मरणोत्तर जीवन  के उपरान्त चेतना का अस्तित्व बना रहने सम्बन्धी  प्रमाणों का उल्लेख किया है। वहाँ उनमें सूक्ष्म शरीर  और सूक्ष्म शरीर की विवेचना भी की है। कहते हैं  जीवित रहने वाले लोग सूक्ष्म शरीर पर ध्यान नहीं देते  अन्यथा उसे भी एक अभिन्न मित्र की तरह विकसित  किया और काम में लाया जा सकता है। इस सन्दर्भ में  उनने अपनी जानकारी की अनेकों घटनाओं का  विवरण भी दिया है जिससे सिद्ध होता है कि जीवन काल  में भी सूक्ष्म शरीर की सत्ता बराबर काम करती रहती है।  यह मनुष्यों के प्रयत्नों पर निर्भर है कि उसे प्रसुप्त स्थिति  में पड़ा रहने दे या प्रयत्नपूर्वक विकसित करके अपने  लिए एक अतिरिक्त सहायक उत्पन्न करने का लाभ  उठायें।

विश्वविख्यात लेखक मोपासा को तो जीवन के  अन्तिम दिनों छाया पुरुष के साथ इतना अधिक तन्मय  देखा गया कि वे स्थूल शरीर का मोह त्यागकर सूक्ष्म  चेतना और सूक्ष्म जगत को ही अपना कार्य क्षेत्र बनाने  का निश्चय कर चुके थे और इसके उपरान्त वे कम दिन  ही जीवित रहे।

भारतीय योग विद्या के अन्तर्गत अनेक ऋद्धि-सिद्धियों का वर्णन आता है। उनमें से जो विशुद्ध  भावात्मक हैं उन्हें छोड़कर जो अलौकिकताएँ उपलब्ध  होती हैं उनका निमित्त कारण सुविकसित सूक्ष्म शरीर ही  है। उसी के माध्यम से अमिमा, लघिमा, महिमा, परकाया  प्रवेश, आदि की शक्तियों को प्राप्त कर सकना सम्भव  होता है। जिन्हें अतीन्द्रिय क्षमता कहा जाता है और  अचेतन मन की विशिष्टता बताया जाता है वह भी  प्रकारान्तर से ऐसे सूक्ष्म शरीर के किया-कलापो ही हैं, जो  एक ही सूक्ष्म शरीर के अन्तर्गत दो व्यक्तित्व रह सकने  की बात को प्रामाणिक करते थे। छाया पुरुष साधना इसी  योग परिकर का एक छोटा प्रयोग है जिसे कोई चाहे तो  सरलतापूर्वक विकसित कर सकता है और उसके सहज  उपलब्ध सहयोग का लाभ उठा सकता है।


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