गायत्री की पंचकोशी साधना एवं उपलब्धियां

ग्रन्थि- बेध

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विज्ञानमय कोश की चतुर्थ भूमिका में पहुँचने पर  जीव को प्रतीत होता है, कि तीन सूक्ष्म बन्धन भी मुझे  बाँधे हुए हैं। पंच-तत्वों से शरीर बना है, उस शरीर में  पाँच कोश हैं। गायत्री के यह पाँच कोश ही पाँच मुख हैं  इन पाँच बन्धनों को खोलने के लिए कोशों की  अलग-अलग साधनायें बताई गई हैं, विज्ञानमय कोश के  अन्तर्गत तीन बन्धन हैं जो पञ्च भौतिक शरीर पर न  रहने पर भी देव गन्धर्व, यक्ष भूत, पिशाच आदि योनियों  में भी वैसे ही बन्धन बाँधे रहते हैं जैसा कि शरीरधारी  का होता है।

यह तीन बन्धन-ग्रन्थियाँ, रुद्र-ग्रन्थि, विष्णु-ग्रन्थि,  ब्रह्म-ग्रन्थि के नाम से प्रसिद्ध हैं। इन्हें तीन गुण भी कह  सकते हैं। रुद्र ग्रन्थि अर्थात् तम, विष्णु ग्रन्थि अर्थात् रज,  ब्रह्म ग्रन्थि अर्थात् सत्। इन तीनों गुणों से अतीत हो जाने  पर, ऊँचा उठ जाने पर ही आत्मा शान्ति और आनन्द का  अधिकारी होता है।

इन तीन ग्रन्थियों को खोलने के महत्वपूर्ण कार्य को  ध्यान में रखने के लिए कन्धे पर तीन तार का यज्ञोपवीत  धारण किया जाता है, इसका तात्पर्य यह है कि तम, रज्,  सत् के तीन गुणों द्वारा स्थूल सूक्ष्म कारण शरीर बने हुए  हैं। यज्ञोपवीत के अन्तिम भाग में तीन ग्रन्थियाँ लगाई  जाती हैं इसका तात्पर्य यह है कि रुद्र ग्रन्थि विष्णु ग्रन्थि  तथा ब्रह्म ग्रन्थि से जीव बँधा पड़ा है। इन तीनों को  खोलने की जिम्मेदारी का नाम ही पितृ-ऋण ऋषि-ऋण  देव-ऋण है। तम को प्रकृति, रज को जीव, सत को  आत्मा कहते हैं।

व्यावहारिक जगत में तम को सांसारिक जीवन, रज  को व्यक्तिगत जीवन, सत को आध्यात्मिक जीवन कह  सकते हैं। जैसे हमारे पूर्ववर्ती लोगों ने, पूर्वजों ने अनेक  प्रकार के उपकारों, सहयोगों द्वारा निर्बल दशा से ऊँचा  उठाकर हमें बल, विद्या, बुद्धि सम्पन्न किया है वैसे ही  हमारा भी कर्तव्य है कि संसार में अपनी अपेक्षा किसी भी  दृष्टि से जो लोग पिछड़े हुए हैं उन्हें सहयोग देकर ऊँचा  उठायें। सामाजिक जीवन को मधुर बनायें। देश, जाति और समाज के प्रति अपने कर्तव्य का पालन करें  यही पितृ-ऋण से, पूर्ववर्ती लोगों के उपकारों से उऋण  होने का मार्ग है। व्यक्तिगत जीवन को शारीरिक,  बौद्धिक और आर्थिक शक्तियों से सुसम्पन्न बनाना अपने  को मनुष्य जाति का सदस्य बनाना ऋषि ऋण से छूटना  है। स्वाध्याय, सत्संग, मनन, चिन्तन, निदिध्यासन  आदि आकस्मिक साधनाओं द्वारा काम, क्रोध लोभ  मोह, मत्सर आदि अपवित्रताओं को हटाकर आत्मा को  परम निर्मल-देवतुल्य बनाना यह देव-ऋण से उऋण  होना है।

दार्शनिक दृष्टि से विचार करने पर तम की अर्थ  होता है- शक्ति, रज का अर्थ होता है- साधन, सत का  अर्थ होता है- ज्ञान। इन तीनों की न्यूनता एवं विकृत  अवस्था, बन्धन कारक अनेक उलझनों, कठिनाइयों और  बुराइयों को उत्पन्न करने वाली होती है। इसलिए जब  तीनों की स्थिति सन्तोषजनक होती हैं तब त्रिगुणातीत  अवस्था प्राप्त होती है। हमको भली प्रकार यह समझ लेना  चाहिए कि परमात्मा की सृष्टि में कोई भी शक्ति या पदार्थ  दूषित अथवा भ्रष्ट नहीं है। यदि उसका सदुपयोग किया  जाय तो वह कल्याणकारी सिद्ध होगा।

आत्मिक क्षेत्र में सूक्ष्म अन्वेषण करने वाले  ऋषियों ने यह पाया है कि तीन गुण, तीन शरीरों, तीन  क्षेत्रों का व्यवस्थित या अव्यवस्थित होना अदृश्य केन्द्रों  पर निर्भर रहता है, सभी दशाओं को उत्तम बनाने से यह  केन्द्र उन्नत अवस्था में पहुँच सकते हैं, दूसरा उपाय यह  भी कि अदृश्य केन्द्रों को आत्मिक साधना विधि से उन्नत  अवस्था में ले जाया जाय तो स्थूल, सूक्ष्म एवं कारण शरीर  को ऐसी स्थिति पर पहुँचाया जा सकता है कि जहाँ उनके  लिए कोई बन्धन या उलझन शेष न रहे।

साधक जब विज्ञानमय कोश की स्थिति में होता है  तो उसे ऐसा अनुभव होता है मानो उसके भीतर तीन  कठोर, गठीली, चमकदार हलचल करती हुई हलकी गाँठें  हैं। इनमें से एक गाँठ मूत्राशय के समीप, दूसरी आमाशय  के ऊर्ध्व भाग में और तीसरी मस्तिष्क के मध्य केन्द्र में  विदित होती है। इन गाँठों में से मूत्राशय वाली ग्रन्थि को  रुद्र ग्रन्थि, आमाशय वाली को विष्णु ग्रन्थि और सिर वाली  को ब्रह्म ग्रन्थि कहते हैं। इन्हीं तीनों को दूसरे शब्दों में  महाकाली महालक्ष्मी और महासरस्वती भी कहते हैं।

इन तीन महाग्रन्थियों की दो सहायक ग्रन्थियाँ भी  होती हैं जो मेरुदण्ड स्थित सुषुम्ना नाड़ी के मध्य में रहने  वाली ब्रह्मनाड़ी के भीतर रहती हैं। इन्हें ही चक्र भी कहते  हैं। रुद्ग्रन्थि की शाखा ग्रन्थियाँ मूलाधार चक्र और  स्वाधिष्ठान कहलाती है। विष्णु ग्रन्थि की दो शाखायें  मणिपूर चक्र और अनाहत चक्र हैं। मस्तिष्क में निवास  करने वाली ब्रह्मग्रन्थि के सहायक ग्रन्थि चक्रों  को विशुद्धि चक्र और आज्ञा चक्र कहा जाता है। हठयोग  की विधि से षट् चक्रों का बेधन किया जाता है। इन  षट्चक्र बेधन की विधि के सम्बन्ध में अलग से प्रकाश  डाला जायेगा। यह हठयोग के अंतर्गत आती है। जिन्हें  हठयोग की अपेक्षा गायत्री की पंचमुखी साधना के  अन्तर्गत विज्ञानमय कोश में ग्रन्थिबेध करना है उन्हीं के  लिए आवश्यक जानकारी देने का यहाँ प्रयत्न किया  जायेगा।

रुद्र -ग्रन्थि का आकार बेर के समान ऊपर को  नुकीला, नीचे को भारी, पैंदे में गड्ढा लिए होता है, इसका  वर्ण कालापन मिला हुआ लाल होता है। इस ग्रन्थि के दो  भाग हैं। दक्षिण भाग को रुद्र और वाम भाग को काली  कहते हैं। दक्षिण भाग के अन्तरंग गह्वर में प्रवेश करके  जब उसकी झाँकी की जाती है तो ऊर्ध्व भाग में श्वेत रंग  की छोटी-सी नाडी़ हल्का-सा श्वेत रस प्रवाहित करती  है, एक तन्तु तिरछा पीत वर्ण की ज्योति-सा चमकता है।  मध्य-भाग में एक काले वर्ण की नाड़ी साँप की तरह  मूलाधार से लिपटी हुई है। प्राण वायु का जब उस भाग से  सम्पर्क होता है तो डिम-डिम जैसी ध्वनि उसमें से  निकलती है। रुद्रग्रन्थि की आन्तरिक स्थिति की झाँकी  करके ऋषियों ने रुद्र का सुन्दर चित्र अंकित किया है।  मस्तक पर गंगा की धारा, जटा में चन्द्रमा, गले में सर्प,  डमरू की डिम-डिम ध्वनि, ऊर्ध्व भाग में त्रिशूल के रूप  में अंकित करके भगवान शंकर का ध्यान करने लायक  एक सुन्दर चित्र बना दिया। उस चित्र में अलंकारिक  रूप से रुद्रग्रन्थि की वास्तविकताएँ ही भरी गई हैं। उस  ग्रन्थि का वाम भाग जिस स्थिति में है उसी के अनुरूप  काली का सुन्दर चित्र सूक्ष्मदर्शी आध्यात्मिक चित्रकारों ने  अंकित कर दिया है।

विष्णु ग्रन्थि किस वर्ण की, किस गुण की किस  आकार की, किस आन्तरिक स्थिति की, किस ध्वनि की,  किस आकृति की है, यह सब हमें विष्णु के चित्र से सहज  ही प्रतीत हो जाता है। नील वर्ण, गोल आकार, शंख  ध्वनि, कौस्तुभ मणि, बनमाला यह चित्र उस मध्य-ग्रन्थि  का सहज प्रतिबिम्ब है।

जैसे मनुष्य को मुख की ओर से देखा जाय तो  उसकी झाँकी दूसरे प्रकार की होती है ओर पीठ की ओर  से देखा जाय तब यह आकृति दूसरे ही प्रकार की होती है।  एक ही मनुष्य के दो पहलू दो प्रकार के होते हैं। उसी  प्रकार एक ही ग्रन्थि दक्षिण भाग से देखने में पुरुषत्व  प्रधान आकार की और बाँई ओर से देखने पर स्त्रीत्व  प्रधान आकार की होती है। एक ही ग्रन्थि को रुद्र या  शक्ति ग्रन्थि कहा जा सकता है। विष्णु लक्ष्मी, ब्रह्मा और  सरस्वती का संयोग भी इसी प्रकार है।

ब्रह्म ग्रन्थि मध्य मस्तिष्क में है। इससे ऊपर  सह-सार शतदल कमल है, यह ग्रन्थि ऊपर से चतुष्कोण  और नीचे से फैली हुई है, इसका नीचे का एक तन्तु  ब्रह्म-रन्ध्र से जुड़ा हुआ है। इसी को सहस्रमुख वाले शेष  नाग की शैय्या पर लेटे हुए भगवान की नाभि कमल से  उत्पन्न चार मुख वाला ब्रह्मा चित्रित किया गया है। वाम  भाग में यही ग्रन्थि चतुर्भुजी सरस्वती है। वीणा झंकार से  ओंकार ध्वनि का यहाँ निरन्तर गुञ्जार होता है।

यह तीनों ग्रन्थियाँ जब तक सुप्त अवस्था में रहती  हैं, बँधी हुई रहती हैं, तब तक जीव साधारण दीन- हीन  दशा में पड़ा रहता है, अशक्ति अभाव और अज्ञात उसे नाना प्रकार से दुःख देते रहते हैं। पर जब इनका खुलना  आरम्भ होता है तो उनका वैभव बिखर पड़ता है। मुँह  बन्द कली में न रूप है, न सौन्दर्य, न गन्ध है, न  आकर्षण। पर जब वह कली खिल पड़ती है और पुष्प के  रूप में प्रकट होती है तो एक सुन्दर दृश्य उपस्थित हो  जाता है। जब तक खजाने का ताला लगा हुआ है, थैली  का मुँह बन्द है, तब तक दरिद्रता दूर नहीं हो सकती, पर  जैसे ही रत्न राशि का भण्डार खुल जाता है वैसे ही  अतुलित वैभव का स्वामित्व प्राप्त हो जाता है।

रात को कमल का फूल बन्द होता है तो भौंरा भी  उसमें बन्द हो जाता है, पर प्रातःकाल वह फूल फिर  खिलता है तो भौंरा बंधन- मुक्त हो जाता है। यह तीन  कलियाँ, तीन तीन ग्रन्थियाँ, जीव को बाँधे हुए हैं। जब  यह खुल जाती हैं तो मुक्ति का अधिकार स्वयंमेव ही प्राप्त  हो जाता है। इन रत्न-राशियों का ताला खुलते ही  शक्ति सम्पन्नता और प्रजा का अटूट भण्डार हस्तगत हो  जाता है।

चिड़िया अपनी छाती की गर्मी से अण्डों को पकाती  हैं, चूल्हे की गर्मी से भोजन पकता है, सूर्य की गर्मी से  वृक्षों वनस्पतियों और फलों का परिपाक होता है। माता  नौ महीने तक बालक को पेट में पकाकर उसको इस  स्थिति में लाती है कि वह जीवन धारण कर सके।  विज्ञानमयकोश की यह तीन-ग्रन्थियाँ भी तप की गर्मी से  पकती हैं तप द्वारा ब्रह्मा, विष्णु, महेश, सरस्वती लक्ष्मी,  काली सभी का परिपाक हो जाता है। यह शक्तियाँ समदर्शी  हैं, न उन्हें किसी से प्रेम है न द्वेष। रावण जैसे असुरों ने  भी शंकरजी से वरदान पाये थे, और अनेक सुर भी कोई  सफलता नहीं प्राप्त कर पाये। इसमें साधक का पुरुषार्थ  ही प्रधान है। श्रम और प्रयत्न ही परिपक्व होकर  सफलता बन जाते हैं

रुद्र, विष्णु और ब्रह्म ग्रन्थियों को खोलने के लिए  ग्रन्थि के मूल भाग में निवास करने वाली बीज शक्तियों  का संचार करना पड़ता है। रुद्र ग्रन्थि के अधोभाग में बेर  के डण्ठल की तरफ एक सूक्ष्म प्राण अभिप्रेत होता है उसे  'क्लीं' बीज कहते हैं। विष्णु ग्रन्थि के मूल में 'श्रीं' का  निवास है और ब्रह्म ग्रन्थि के नीचे 'ह्रीं' तत्व का  अवस्थान है। मूलबन्धन बाँधते हुए एक ओर से अपान  और दूसरी ओर से कूर्मप्राण को चिमटे की तरह बनाकर  रुद्र ग्रन्थि को पकड़कर रेचक प्राणायाम द्वारा दबाते हैं।  इस दबाव की गर्मी से क्लीं बीज हो जाता है। वह  नोकदार डण्ठल आकृति का बीज अपनी ध्वनि और रक्त  वर्ण प्रकाश-ज्योति के साथ स्पष्ट रूप से परिलक्षित होने  लगता है।

इस जागृत क्लीं बीज के अग्रिम नोंक से  कुंचुकि-क्रिया की जाती है। जैसे किसी वस्तु में छेद करने  के लिए नोकदार कील कोंची जाती है, इस प्रकार  वेधन-साधना को कुंचुकी क्रिया कहते हैं। रुद्र ग्रन्थि के  मूल केन्द्र में क्लीं बीज की अग्र शिखा से जब निरन्तर  कुंचुकी होती है तो प्रस्तुत कलिका में भीतर ही भीतर एक  विशेष प्रकार के लहलहाते हुए तड़ित प्रवाह उठाने पड़ते  हैं इनकी आकृति एवं गति सर्प जैसी होती है। इन तड़ित  प्रवाहों को ही शंभु के गले में फुफकारने वाले सर्प बताया  है, जिस प्रकार ज्वालामुखी पर्वत के उच्च शिखर पर  धूम्र मिश्रित अग्नि निकलती है उसी प्रकार रुद्र ग्रन्थि के  ऊपरी भाग में पहले क्लीं बीज की अग्नि जिह्वा प्रकट  होती है। इसी का काली की बाहर निकली हुई जीभ माना  गया है। इसी को शंभु का तीसरा नेत्र भी कहते हैं।

मूल- बन्ध अपान और कूर्म प्राण के आघात से  जाग्रत हुई क्लीं बीज की कुंचुकी क्रिया से धीरे-धीरे रुद्र  ग्रन्थि शिथिल होकर वैसे ही खुलने लगती है, जैसे कली  धीरे-धीरे खिलकर फूल बन जाती है। इस कमल पुष्प के  खिलने को पद्मासन कहा गया है। त्रिदेव के कमलासन  पर विराजमान होने के का तात्पर्य यही है कि वे  विकसित रूप से परिलक्षित हो रहे हैं।

साधक के प्रयत्न के अनुरूप खुली हुई रुद्र ग्रन्थि  का तीसरा भाग जब प्रकटित होता है तब साक्षात रुद्र का  काली का अथवा रक्त वर्ण सर्प के समान लहलहाती हुई,  क्लीं-घोष करती हुई अग्नि शिखा का साक्षात्कार होता है। यह रुद्र जागरण साधक में अनेक प्रकार की गुप्त प्रकट  शक्तियाँ भर देता है। संसार की सब शक्तियों का मूल  केन्द्र रुद्र ग्रन्थि ही है। उसे रुद्र लोक या कैलाश भी  कहते हैं। प्रलय काल में संसार संचालिनी शक्ति व्यय  होते-होते पूर्ण शिथल होकर जब सुषुप्त अवस्था को चली  जाती है तब रुद्र का ताण्डव नृत्य होता है। उस  महामंथन से इतनी शक्ति फिर उत्पन्न हो जाती है  जिससे आगामी प्रलय तक काम चलता रहे। घड़ी में चाबी  भरने के समान रुद्र का प्रलय ताण्डव होता है। रुद्र  शक्ति की शिथिलता से जीवों की तथा पदार्थों की मृत्यु हो  जाती है। इसलिए रुद्र की मृत्यु का देखना मना है।

विष्णु ग्रन्थि को जागृत करने के लिए जालन्धर  बन्ध बाँधकर 'समान' और 'उदान' प्राणों द्वारा दबाया  जाता है तो उसके मूल भाग का 'श्रीं' बीच जागृत होता  है। यह गोल गेंद की तरह है और इसकी अपनी धुरी पर  द्रूत गति से घूमने की क्रिया होती है। इस घूर्णन किया  के साथ-साथ एक ऐसी सनसनाती हुई सूक्ष्म ध्वनि होती  है जिसको दिव्य श्रोतों से 'श्रीं' जैसे सुना जाता है।

श्रीं बीज को विष्णु ग्रन्थि की वाह्य परिधि में  भ्रामरी क्रिया के अनुसार घुमाया जाता है। जैसे पृथ्वी  सूर्य की परिक्रमा करती है उसी प्रकार परिभ्रमण करने को  भ्रामरी कहते हैं। विवाह में वर-वधू की भाँवरि या फेरे  पड़ना, देव-मन्दिरों तथा यज्ञ की परिक्रमा या प्रदक्षिणा  होना, भ्रामरी क्रिया का ही रूप है। विष्णु की उँगली पर  घूमता हुआ चक्र सुदर्शन चित्रित करके योगियों ने अपनी  सूक्ष्म दृष्टि से अनुभव किये गये इसी रहस्य को प्रकट  किया है, 'श्रीं' बीज विष्णु ग्रन्थि की भ्रामरी गति से  परिक्रमा करने लगता है तब उस महा-तत्व का जागरण  होता है।

पूरक प्राणायाम की प्रेरणा देकर समान और उदान  द्वारा जागृत किये गये श्री बीज से जब विष्णु ग्रन्थि के  वाह्य आवरण की मध्य परिधि में भ्रामरी किया की जाती है  तो उसके गुञ्जन से उसका भीतरी भाग चैतन्य होने  लगता है। इस चेतना की विद्युत तरंगें इस प्रकार उठती  हैं जैसे पक्षी के पंख दोनों बाजुओं में हिलते हैं। उसी  गति के आधार पर विष्णु का वाहन गरुड़ निर्धारित किया  गया है।

इस साधना से विष्णु ग्रन्थि खुलती है और साधक  की मानसिक स्थिति के अनुरूप विष्णु लक्ष्मी या पीत वर्ण  की अग्नि-शिखा की लपटों के समान ज्योति पुञ्ज का  साक्षात्कार होता है। विष्णु का पीताम्बर इस पीत ज्योति  पुञ्ज का प्रतीक है। इस ग्रन्थि का खुलना ही बैकुण्ठ स्वर्ग  एवं विष्णु लोक को प्राप्त करना है। बैकुण्ठ या स्वर्ग को  अनन्त ऐश्वर्य का केन्द्र माना जाता है। वहाँ सर्वोत्कृष्ट  सुख साधन जो सम्भव हो सकते हैं वे प्रस्तुत हैं। विष्णु  ग्रन्थि वैभव की केन्द्र है, जो उसे खोल लेता है उसे विश्व  के ऐश्वर्य पर पूर्ण अधिकार प्राप्त हो जाता है।

ब्रह्म- ग्रन्थि मस्तिष्क के मध्य भाग में सह-स्रदल।  कमल की छाया में अवस्थित है। उसे अमृत कलश कहते   हैं। बताया गया है कि सुरलोक में अमृत कलश की रक्षा  सहस्र फनों वाले शेषनाग करते हैं। इसका अभिप्राय इसी  ब्रह्म-ग्रन्थि से है।

उड्डियान बन्ध लगाकर ध्यान और धनञ्जय  प्राणों द्वारा ब्रह्म-ग्रन्थि को पकाया जाता है। पकाने से  उसके मूलाधार में वास करने वाली ही शक्ति जागृत होती  है। इसकी गति को प्लावनी कहते हैं जैसे जल में लहरें  उत्पन्न होती हैं और निरन्तर आगे को ही लहराती हुई  चलती हैं उसी प्रकार ही बीज की प्लावनी गति से  ब्रह्म-ग्रन्थि को दक्षिणायन से उत्तर की ओर प्रेरित करते  हैं। चतुष्कोण ग्रन्थि के ऊर्ध्व भाग में यही ही तत्व  रुक-रुककर गाँठें-सी बनाता हुआ आगे की ओर चलता  है और अन्त में परिक्रमा करके अपने मूल संस्थान को  लौट आता है।

गाँठ बाँधते चलने की नीची ऊँची गति के आधार  पर माला के दाने बनाये गये हैं। १०८ दचके लगाकर तब  एक परिधि पूरी होती है, इसलिए माला के १०८ दाने होते  हैं। इस ही तत्व की तरंगें मन्थर गति से इस प्रकार  चलती हैं जैसे हंस चलता है। ब्रह्मा या सरस्वती का  वाहन हंस इसीलिए माना गया है। वीणा के तारों की  झंकार से मिलती- जुलती 'ह्रीं' ध्वनि सरस्वती की वीणा  का परिचय देती है।

कुम्भक -प्राणायाम की प्रेरणा से ही बीज की प्लावनी  क्रिया प्रारम्भ होती है। यह क्रिया निरन्तर होते रहने पर  ब्रह्म-ग्रन्थि खुल जाती है। तब उस ब्रह्म के रूप में,  सरस्वती के रूप में अथव श्वेत वर्ण प्रकम्पित शुभ ज्योति  शिखा के समान साक्षात्कार होता है। यह स्थिति आत्म-  ज्ञान, ब्रह्म प्राप्ति, ब्राह्मी स्थिति की है। ब्रह्मलोक एवं  गोलोक भी इसे कहते हैं। इस स्थिति को उपलब्ध कराने  वाला साधक ज्ञान बल से परिपूर्ण हो जाता है। इसकी  आत्मिक शक्तियाँ जागृत होकर परमेश्वर के समीप पहुँचा  देती है, अपने पिता का उत्तराधिकार उसे मिलता है और  जीवनमुक्त होकर ब्रह्मी स्थिति का आनन्द ब्रह्मानन्द  उपलब्ध करता है।

षट्- चक्र का हठयोग- समस्त विधान अथवा  सहयोग का यह ग्रन्थि भेद, दोनों ही समान स्थिति के हैं।  साधक अपनी स्थिति के अनुसार उन्हें अपनाते हैं, दोनों  से ही विज्ञानमय कोश का परिष्कार होता है।


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